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केरल के लोगों को मदद की सबसे बड़ी जरूरत है, विदेशी सहायता से इनकार क्रूरता है

राष्ट्रीय गौरव जैसी कोई वास्तविक चीज नहीं है. यह काल्पनिक है, जबकि सहायता-राशि और सहायता वास्तविक है

Aakar Patel

किसी आपदा के दौरान भारत को विदेशी मदद स्वीकार करनी चाहिए या नहीं, इसे लेकर विवाद है. इस बात को लेकर भी भ्रम है कि इस बारे में आधिकारिक नीति क्या है, जो कि जांच के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. तो आइए इसका पता लगाते हैं.

केरल सरकार का कहना है कि हालिया बाढ़, जिसमें सैकड़ों लोगों की मौत हो गई है और राज्य के बुनियादी ढांचे और निजी संपत्ति को गंभीर रूप नुकसान पहुंचा है, के प्रभावों का सामना करने के लिए इसे 2600 करोड़ रुपए की जरूरत है. केंद्र सरकार का कहना है कि वह 600 करोड़ रुपए देगी.


केरल सरकार का कहना है कि संयुक्त अरब अमीरात (यूएई- जिसमें दुबई, अबू धाबी और शारजाह शामिल हैं) ने 700 करोड़ रुपए की मदद की पेशकश की है, जिस पर केंद्र सरकार ने कहा कि वह स्वीकार नहीं करेगी. इस इनकार के लिए पूर्व की मनमोहन सिंह सरकार की नीति का हवाला दिया गया. शायद दिल्ली के दबाव में, अब यूएई सरकार भी कह रही है कि उसकी तरफ से किसी विशिष्ट सहायता का प्रस्ताव नहीं दिया गया था. हालांकि, भारत में थाईलैंड के राजदूत ने खुद लिखा है कि भारत सरकार विदेशी मदद लेने से इनकार कर रही है.

उनके शब्द सटीक रूप से यह हैं: 'खेद के साथ अनौपचारिक रूप से सूचित किया गया है कि भारत सरकार केरल बाढ़ राहत के लिए विदेशी दान स्वीकार नहीं कर रही है. हमारे दिल आपके साथ हैं, भारत के लोग.' दुबई के शाह से बात करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 18 अगस्त को ट्वीट किया: 'इस मुश्किल समय में केरल के लोगों का समर्थन करने के लिए शेख मोहम्मद को उनके सहृदय प्रस्ताव के लिए धन्यवाद. उनकी चिंता भारत और यूएई की सरकारों और लोगों के बीच खास संबंधों को प्रतिबिंबित करती है.'

विदेशी मदद पर पॉलिसी क्या है?

यह दर्शाता है कि हकीकत में प्रस्ताव किया गया था और इसे नामंजूर कर दिया गया. तो पॉलिसी क्या कहती है?

मनमोहन सिंह सरकार ने 2004 में इसमें दखल दिया था. उस वर्ष तक, भारत ने दूसरे देशों से सहायता स्वीकार ली थी. 2004 में सुनामी के बाद, यह निर्णय लिया गया कि भारत दूसरे देशों से राहत और बचाव सहायता स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन यह पुनर्वास के लिए सहायता स्वीकार करेगा. राहत और बचाव तत्काल करना होता है. इसमें जमीनी स्तर पर लोगों की टीम शामिल होती है, जो पीड़ितों के साथ सबसे पहले संपर्क में आते हैं और प्रभावित लोगों की मदद करते हैं. यह कहने का कारण क्या हो सकता है कि इसमें कोई विदेशी सहायता स्वीकार नहीं की जाएगी? इस फैसले के कई कारण हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, स्थानीय अधिकारी क्षेत्र से परिचित होते हैं और आपदा क्षेत्र में बाहरी लोग आते हैं, तो उन्हें इसके बारे में कोई जानकारी या स्थानीय भाषा का ज्ञान नहीं होता.

दूसरा कारण यह हो सकता है कि इन मामलों में, भारत पहले ही समुचित रूप से मजबूत है और एक स्थायी नौकरशाही के माध्यम से कनेक्टेड है. भारत के पास एक बड़ा सैन्य और अर्धसैनिक बल भी है जिसे अक्सर नागरिक ड्यूटी के लिए तैनात किया जाता है (जैसा कि केरल में भी किया गया). तीसरा कारण यह हो सकता है कि विदेशियों द्वारा भारतीयों की मदद करने में समस्याएं हैं और यह राष्ट्रीय गौरव को चोट पहुंचाता है. यह चिंता बाद में पुनर्वास के लिए नहीं है, जिसका कोई चेहरा नहीं है. मनमोहन सिंह और उनकी टीम ने यह फैसला क्यों किया, इसकी दूसरी वजहें भी हो सकती हैं, लेकिन आपदा प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति में उनका जिक्र नहीं किया गया है. मेरा विचार यह है कि यदि चिंता पहली और दूसरी थी, तो यह तार्किक लगती है. हालांकि, अगर यूपीए के फैसले के पीछे तीसरा कारण, राष्ट्रीय गौरव निर्धारक था, तो यह फिजूल है.

पुनर्वास से इनकार किए जाने के कारण क्या हैं?

अब आइए हम पुनर्वास से भी इनकार किए जाने को देखें, जो कि यूएई और थाईलैंड के प्रस्ताव को स्वीकार करने से मना करके किया गया है. ऐसा करने के संभावित कारण इस प्रकार हैं: सबसे पहला, हमें उनके पैसे की जरूरत नहीं है. भारत के पास अपने नागरिकों के प्रभावित होने पर दीर्घ अवधि में उनकी देखभाल करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं.

दूसरा, कि हम कुछ खास देशों (उदाहरण के लिए चीन और पाकिस्तान) से पैसे नहीं लेना चाहते और इस कारण हम एक समान दिखने के लिए इसे किसी से भी नहीं ले सकते हैं. तीसरा, फिर से, मदद लेने से राष्ट्रीय सम्मान कम होता है और यह किसी भी तरह से बाहरी दुनिया द्वारा देखे जाने के नजरिए को छोटा करता है क्योंकि हम मदद लेने वाले हैं और मदद देने वाले नहीं.

इज्जत की बात आपदा से प्रभावित लोगों पर छोड़ देना चाहिए

फिर से कहना चाहूंगा कि यहां अन्य कारण मौजूद हो सकते हैं, जिन्हें हम जानते नहीं हैं, लेकिन सरकार ने हमें यह नहीं बताया कि वे क्या हैं. मेरे लिए, पहला कारण साफ तौर पर झूठा है. किसी भी परिभाषा से हम गरीब देश हैं. यह दिखावा करना कि हम गरीब नहीं हैं, अपने आस-पास के माहौल के प्रति अंधा बनना है. मेरे लिए, दूसरे और तीसरे कारण फिर से फिजूल हैं. मदद लेने में इज्जत घटती है या नहीं, यह उस व्यक्ति या समुदाय को तय करने देना चाहिए जो आपदा से प्रभावित है.

भावनाएं इंसान की होती हैं, न कि राष्ट्र की. राष्ट्रीय गौरव जैसी कोई वास्तविक चीज नहीं है. यह काल्पनिक है, जबकि सहायता-राशि और सहायता वास्तविक है. केरल सरकार का कहना है कि यूएई कोई आम जगह नहीं है, और इसे सिर्फ एक अन्य देश के रूप में नहीं देखा जा सकता. यह एक ऐसा देश है जिसके निर्माण में भारतीयों ने, विशेष रूप से मलयालियों ने, अपने हाथों से मदद की है. उनके साथ एक मजबूत हिस्सेदारी है और उस देश की किसी भी सहायता को सिर्फ दान के रूप में नहीं देखा जा सकता है. इस बात से असहमत होना मुश्किल है. यहां तक कि अगर मनमोहन सिंह की एक अलग नीति थी, तो भी हमारे पास गलतियों को परखने और इसे दुरुस्त नहीं करने का कोई कारण नहीं है. हमारे लोगों को उनकी सबसे बड़ी जरूरत के समय में मदद से इनकार करना क्रूरता है.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)