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कठुआ रेप केस: वो दलित मुसलमान परिवार की बेटी थी इसलिए मारी गई!

ये रेप और हत्या का कोई मामूली मामला नहीं है. इसके तार जम्मू कश्मीर के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव से जुड़े हैं. इसे गहराई से समझने की जरूरत है

Vivek Anand

आखिर 8 साल की एक मासूम बेटी के वीभत्स रेप और हत्या की खबर के बाद भी जम्मू-कश्मीर में वो प्रतिक्रिया देखने में क्यों नहीं आई जो आमतौर पर ऐसे मामलों में दिखती है? 8 साल की बच्ची के साथ निर्भया जैसी वारदात होने के बाद आरोपियों के पक्ष में क्यों खड़े हैं लोग? इस मामले के सांप्रदायिक रंग देने के पीछे क्या कहानी है? वकील से लेकर नेता तक आरोपियों के समर्थन में क्यों आ गए हैं?

आए दिन सेना के जवानों पर पत्थर बरसाने वाले कश्मीरी एक बेटी की रेप और हत्या के बाद भी खामोश क्यों हैं? ये कुछ वो सवाल हैं जो कठुआ रेप मामले के बाद से जेहन में कौंध रहे हैं. ये रेप और हत्या का कोई मामूली मामला नहीं है. इसके तार जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव से जुड़े हैं. इसे गहराई से समझने की जरूरत है.


इस मामले की चार्जशीट के मुताबिक 8 साल की मासूम की किडनैपिंग बकरवाल समुदाय को सबक सिखाने की सोची समझी साजिश के तहत की गई. और इसी कड़ी में उसके साथ निर्ममता से रेप हुआ और फिर हत्या कर दी गई. आखिर बकरवाल समुदाय से इस स्तर की रंजिश क्यों है?

कश्मीर के दलित मुस्लिम हैं बकरवाल-गुज्जर समुदाय के लोग

दरअसल बकरवाल जम्मू-कश्मीर की घूमंतू प्रजाति का समुदाय है. बकरवाल और गुज्जर समुदाय जंगलों के पास बसे इलाकों में रहते हैं. गुज्जर समुदाय डेयरी के कारोबार से जुड़ा है जबकि बकरवाल भेड़-बकरियां पालकर अपनी जीविका चलाते हैं. बकरवाल गर्मियों के दिनों अपनी भेड़-बकरियां लेकर कश्मीर और लद्दाख का रुख कर लेते हैं लेकिन सर्दियों में इनका ठिकाना जम्मू के आसपास जंगलों के किनारे होता है. ये सदियों से जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं. बदलते वक्त के साथ ये लोग जम्मू के आसपास अपना स्थायी ठिकाना बसाने लगे हैं.

दिल्ली में कठुआ और उन्नाव रेप केस के विरोध में कांग्रेस का विरोध प्रदर्शन

जम्मू कश्मीर में गुज्जर और बकरवाल की आबादी तकरीबन 11 फीसदी है. वोटबैंक के लिहाज से ये बड़ी मुस्लिम आबादी है. 1991 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने बकरवाल और गुज्जर समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया. जम्मू में बकरवाल समुदाय के लोगों और हिंदुओं के बीच जमीन के मसले पर बहुत पहले से झगड़े चल रहे हैं. हिंदुओं का आरोप है कि बकरवाल-गुज्जर समुदाय के लोगों ने जंगल की जमीनों का अतिक्रमण कर रखा है. जम्मू में इनकी मौजूदगी की वजह से वहां की डेमोग्राफी में बदलाव आ रहा है. जम्मू के हिंदू इन्हें बाहर से आए मुसलमान के तौर पर देखते हैं.

पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर की सरकार ने इस जाति के लोगों को राज्य के जंगलों पर कुछ अधिकार देने का फैसला किया था. इस फैसले का भी यहां के हिंदू विरोध कर रहे हैं. जम्मू के हिंदुओं को लगता है कि सरकार जानबूझकर जम्मू के जंगलों के आसपास इन्हें बसाना चाहती है. इन तमाम वजहों के चलते हिंदुओं के बीच बकरवाल समुदाय के लिए अलगाव की भावना ने धीरे-धीरे उग्र रूप धारण कर लिया है. बकरवाल को जम्मू से बाहर करने की एक मुहिम चलाई गई है. पिछले दिनों इसी बात को लेकर धरने प्रदर्शन भी हुए हैं.

बकरवाल समुदाय के लिए नफरत ने डाले इस वीभत्स वारदात के बीज

बकरवाल समुदाय के लिए नफरत ने ही 8 साल की मासूम की किडनैपिंग की रुपरेखा तैयार की जिसने रेप और मर्डर का वीभत्स रूप ले लिया. इसी वजह से हिंदू एकता मंच के बैनर तले लोग आरोपियों के समर्थन में हैं. लेकिन इसके बाद भी सवाल ये उठता है कि आखिर कश्मीर के लोग 8 साल की बच्ची के साथ ऐसी हैवानियत वाली वारदात के बाद भी इतने खामोश क्यों हैं. इस सवाल का जवाब बकरवाल समुदाय की एक बड़ी मजबूरी सामने ला देता है.

द प्रिंट से बात करते हुए आदिवासी हितों के लिए काम करने वाले जावेद राही बताते हैं कि बकरवाल के साथ जम्मू-कश्मीर में वैसा ही व्यवहार किया जाता है जैसे देश के दूसरे हिस्सों में दलितों के साथ. इस समुदाय की बेचारगी बताते हुए वो कहते हैं कि कश्मीर हमें आदिवासी समझता है और जम्मू हमें दलित. इस समुदाय की दोनों ही पहचान इसे राज्य की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना में हाशिए पर धकेलने के लिए काफी हैं. शायद यही वजह है कि इतनी बड़ी घटना के बाद भी कश्मीर के लोग इस समुदाय के समर्थन में खड़े नहीं दिखते.

ये अजीब विडबंना है कि एक तरफ मुस्लिम और दूसरी तरफ दलित होने की पहचान के बीच पिसकर इस समुदाय के लोगों की जिंदगी नरक हो गई है. उसके ऊपर सरकार अगर इनकी जिंदगी को कुछ आसान बनाने के लिए जंगलों पर इन्हें कुछ अधिकार सौंपती है तो उसका भी विरोध होता है. आसान होने के बजाए जिंदगी मुश्किल हो जाती है क्योंकि इसी आधार पर इन्हें पड़ोसी हिंदुओं की नफरत का शिकार होना पड़ता है.

कश्मीर में जल-जंगल-जमीन का झगड़ा

बकरवाल और गुज्जर समुदाय के लोग जंगलों पर अपना स्वभाविक अधिकार जताते हैं. कुछ उसी तरह से जैसे महाराष्ट्र के आदिवासी किसान वहां के जंगलों पर अपना अधिकार चाहते हैं. पिछले दिनों इसी तरह की मांग को लेकर महाराष्ट्र में बड़ा किसान आंदोलन हुआ था. करीब 30 हजार किसान 200 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर के मुंबई पहुंचे थे. इनकी मांग थी कि जंगल की उस जमीन का हक उन्हें मिले, जिस पर वो सदियों से रह रहे हैं. इसी तरह की मांग जम्मू-कश्मीर के बकरवाल और गुज्जर समुदाय के लोग भी कर रहे हैं.

यहां का आदिवासी समाज चाहता है कि सेंट्रल फॉरेस्ट राइट्स एक्ट 2006 जम्मू कश्मीर में भी लागू हो. इस एक्ट के जरिए आदिवासी समाज को जंगल के उस जमीन का हक मिले, जिसके जरिए वो वर्षों से अपनी आजीविका चला रहे हैं. इनकी मांग का विरोध ये कहते हुए किया जा रहा है कि इन्होंने जंगल की जमीन का अतिक्रमण किया है. कहा जा रहा है कि जंगल की जमीन पर इन्होंने जबरन कब्जा कर रखा है.

पीडीपी-बीजेपी की गठबंधन सरकार ने खड़ी की मुश्किलें

पीडीपी-बीजेपी की गठबंधन सरकार ने इस समुदाय के लिए अलग तरह की मुश्किलें खड़ी कर दी है. बेमेल गठबंधन वाली ये सरकार इस समुदाय के नाम पर दो अलग-अलग रास्तों पर चल रही है. आदिवासी कल्याण मंत्री राज्य के आदिवासी समाज के कल्याण के लिए जंगल की जमीन पर इनके हक की मांग की वकालत करते हैं, वहीं वन मंत्री जंगल की जमीन पर हो रहे अतिक्रमण के नाम पर इन्हें वहां से बाहर करने की बात करते हैं.

पीडीपी-बीजेपी की गठबंधन सरकार में आदिवासी मंत्री हैं चौधरी जुल्फिकार. ये खुद गुज्जर समुदाय से आते हैं. पिछले दिनों इन्होंने जंगल की जमीन पर आदिवासियों के अधिकार की वकालत की थी. इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक 16 फरवरी को सीएम मेहबूबा मुफ्ती की अगुआई में आदिवासी कल्याण मंत्रालय की मीटिंग हुई थी.

इसमें फैसला हुआ था कि सरकार एक ट्राइबल पॉलिसी लेकर आएगी. इसे आदिवासी कल्याण में सरकार कि एतिहासिक पहल के बतौर प्रचारित किया गया. बताया गया कि इस पॉलिसी के बाद जंगल की जमीन से आदिवासियों को नहीं हटाया जा सकेगा. एक आरटीआई कार्यकर्ता ने इस मीटिंग की एक-एक जानकारी भी लीक कर दी. हालांकि जब बीजेपी ने इस पर आपत्ति जाहिर की तो सरकार ने ऐसी किसी मीटिंग के होने से इनकार कर दिया.

पीडीपी-बीजेपी सरकार में वनमंत्री हैं चौधरी लाल सिंह. लाल सिंह पर्यावरण के नुकसान के नाम पर जंगल की जमीन पर खेती, यहां के कनालों पर अवैध कब्जे को हटाने की पुरजोर वकालत कर रहे हैं. सरकार की ऐसी किसी कार्रवाई की वजह से बकरवाल समुदाय को बेघर होना पड़ेगा. चौधरी लाल सिंह वही मंत्री हैं, जो कठुआ रेप आरोपियों के समर्थन में हिंदू एकता मंच की हुई रैली में शामिल हुए थे.

बताया जाता है कि कथित तौर पर चौधरी लाल सिंह ने आंदोलनकारियों का समर्थन करते हुए मामले की पुलिस जांच पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि ‘यदि आप आंदोलन करते हैं तो इसे पूरे मन से करें नहीं तो घर पर बैठें. यह धारा 144 क्या है? एक लड़की मरी है और उसके लिए इतनी जांच? यहां बहुत सी औरतों की मौतें होती रही हैं.' इस दोहरी खाई के बीच बखेरवाली समुदाय के लोग पिस रहे हैं.

दलित मुस्लिम होने की सजा भुगत रहे हैं लोग

बकरवाल समुदाय कश्मीर के बेहद पिछड़े आदिवासी समुदाय से आता है. कश्मीर में कुल 12 आदिवासी जातियां हैं. इनमें बकरवाल की साक्षरता दर सबसे खराब है. 2011 की जनगणना के मुताबिक सिर्फ 7.8 फीसदी बकरवाल ही बारहवीं क्लास पास हैं. एक अनुमान के मुताबिक हर 10 में से 8 बकरवाल महिलाएं अनपढ़ है.

इस समुदाय में कम उम्र में लड़कियों की शादी हो जाती है. दहेज का भी चलन है. दहेज की वजह से कई बार कम उम्र लड़कियों की शादियां उम्रदराज व्यक्तियों से हो जाती है. इस समुदाय के पुरुष कई पत्नियां रख सकते हैं. कई बार पुरुष 2 से लेकर 8 बीवियां तक रखते हैं. इनके बच्चे भी ज्यादा होते हैं. समुदाय की धारणा है कि जितने बच्चे होंगे परिवार की आजीविका चलाने के लिए जानवरों को पालने में उतनी ही आसानी होगी. बदले माहौल में इस समुदाय की जिंदगी और कठिन हो गई है.