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जस्टिस कर्णन मामला: खुद को मजाक का पात्र न बनने दे न्यायपालिका

जस्टिस कर्णन को अच्छी तरह मालूम है कि उनकी छुट्टी करना आसान नहीं है

Akshaya Mishra

अगर यह न्यायपालिका से जुड़ा मामला न होता जस्टिस कर्णन विवाद बेहद मजेदार होता. आखिर हमने कितनी बार निचली अदालत के किसी जज को देश के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के जजों को दोषी ठहरा कर सजा सुनाते देखा है? मिसाल मिलना दुर्लभ है.

जिन्हें पता नहीं है उन्हें बता दें कि कलकत्ता हाईकोर्ट के विवादास्पद जज जस्टिस सीएस कर्णन ने सोमवार को मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर और सुप्रीम कोर्ट के सात जजों को अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत दोषी ठहराया और एक-एक लाख रुपये के जुर्माने के अलावा उन्हें पांच साल की सजा सुनाई.


जस्टिस कर्णन ने इन जजों को सुप्रीम कोर्ट में कोई जिम्मेदारी निभाने से प्रतिबंधित किया और अपने पासपोर्ट सरेंडर करने को कहा. इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को जस्टिस कर्णन को अवमानना के आरोप में दोषी ठहराया और उन्हें 6 महीने जेल की सजा दी. देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है.

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस कर्णन को एक मेडिकल बोर्ड के सामने उपस्थित होने और अपने मानसिक स्वास्थ्य की जांच कराने का आदेश दिया था. लेकिन उन्होंने बोर्ड के सामने उपस्थित होने से इनकार कर दिया और सुप्रीम कोर्ट के सात न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीश की मनोचिकित्सक से जांच कराने की मांग की.

अपने सामने 'प्रतिनिधित्व' में नाकाम रहने के कारण जस्टिस कर्णन ने इनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किया और उनके देश से बाहर जाने पर रोक लगा दी. फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस कर्णन को न्यायिक और प्रशासनिक कार्यों से अलग कर दिया था. इसके बाद से ही वे कोलकाता में अपने निवास से आदेश जारी कर रहे हैं.

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न्यायपालिका से जुड़ा ये मसला कोई मजाक का विषय नहीं है

यदि आप को यह वाकया मजेदार लगता है तो कृपया अपनी मुस्कान को रोकिए. यह न्यायपालिका है. इसके बारे में कुछ भी नॉन-सीरियस नहीं हो सकता.

दरअसल, यह एक ऐसी समस्या का सामना कर रहा है जिसके लिए संविधान निर्माताओं ने इसे तैयार ही नहीं किया था. उन्होंने न्यायाधीशों को किसी दबाव या प्रभाव से मुक्त रखने की मंशा से उनकी नौकरी की पर्याप्त सुरक्षा सुनिश्चित की लेकिन यह नहीं सोचा कि कभी जस्टिस कर्णन जैसा मामला भी आ सकता है ...जब यही सुरक्षा न्यायपालिका के लिए शर्मिंदगी का कारण बन सकता है.

जस्टिस कर्णन ने मद्रास और कलकत्ता हाईकोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान भी साथी न्यायाधीशों के खिलाफ गंभीर आरोप लगाये थे और उनके खिलाफ स्वत: कार्रवाई के आदेश दिये था. उनका इस तरह का आचरण सचमुच अनुचित है.

दूसरे जजों के खिलाफ अपने आरोपों को सही ठहराने के लिए दलित कार्ड के इस्तेमाल की प्रवृत्ति जस्टिस कर्णन के मामले को और भी गंभीर बना देता है.

जस्टिस कर्णन लगातार अपने साथी जजों पर खुद के साथ दुर्व्यवहार के आरोप लगाते रहे हैं

साथी जजों पर आरोप

कुछ साल पहले उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट के अपने साथी जजों पर दलित जजों का अपमान करने का आरोप लगाते हुए एक प्रेस कांफ्रेंस की थी. उन्होंने एक जज पर अपने जूते से जानबूझकर उन्हें छूने और फिर सॉरी बोलने और दो जजों पर इस घटना के दौरान मुस्कुराने का आरोप लगाया था.

दरअसल, वह नियमित अंतराल पर इस तरह के आरोप लगाते रहे हैं.

उनका आचरण उनके पद की गरिमा के अनुरूप नहीं है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसे मामलों से निपटने के विकल्प सीमित हैं. वह संबंधित जज से सिर्फ न्यायिक और अन्य जिम्मेदारियां वापस ले सकता है लेकिन नौकरी से नहीं निकाल सकता.

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किसी जज को हटाने के लिए महाभियोग की प्रकिया है जिसके लिए संसद के हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती है. वी रामस्वामी के खिलाफ चले महाभियोग से साफ हो गया है कि यह बेहद मुश्किल प्रक्रिया है.

जस्टिस कर्णन को अच्छी तरह मालूम है कि उनकी छुट्टी करना आसान नहीं है. शायद इसीलिए वे लगातार ऊलल-जुलूल आदेश दे रहे हैं.

जस्टिस कर्णन इस साल जून में सेवानिवृत्त हो रहे हैं. ऐसे में वे बहुत दिनों तक परेशान नहीं करेंगे. लेकिन उन्हीं जैसा कोई और जज पैदा हो जाए और दूसरे जजों से भिड़ने लगे तो क्या होगा?

जाहिर है कि ऐसे एपिसोड न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के लिए ठीक नहीं हैं. न्यायपालिका लोगों के बीच मजाक का पात्र नहीं बन सकती. सरकार और ऊपरी अदालत को साथ मिलकर इसका समाधान खोजना चाहिए.