28 घंटे की गिनती के बाद जेएनयू के परिणाम आए. ये 28 घंटे काफी हलचल पूर्ण रहे. जैसा कि हम आपको बता चुके हैं कि यहां छात्रसंघ चुनाव यहां का एक मेला है. आइए आपको इस मेले की थोड़ी झलकी दिखाते हैं.
चुनाव परिणाम घोषणा का आखिरी का पड़ाव चल रहा है. लेफ्ट यूनिटी के खेमे में हरेक उम्मीदवार को मिले मत की सबसे सटीक जानकारी मिल रही है इसलिए वहां सबसे ज्यादा भीड़ लगी है. गणना करने वालों का धैर्य देखने लायक है. हरेक 2 मिनट पर कोई न कोई आकार उससे पूछता है कौन आगे चल रहा है? ऐसे माहौल में लगातर गिनती करना बहुत कठिन काम है. सब वोट गिना जा चुका है.
अब सबलोग मुख्य चुनाव अधिकारी भगत सिंह की आखिरी आवाज सुनने को लोग बैचेन हैं. लेफ्ट यूनिटी ने लाल और उजले झंडे निकाल कर लहराने शुरू कर दिये हैं. आम छात्र से पूरा लॉन भरा पड़ा है. लेफ्ट यूनिटी झंडे लहराते और स्लोगन लगाते एसआईएस बिल्डिंग के बाहर बैरिकेड से लग कर झूम रहे हैं. इस बिल्डिंग के ऊपर ही मतगणना केंद्र है. सोशल मीडिया पर हमारी पोस्ट की गई खबर चारों तरफ फैली हुई है .
नोटिफिकेशन की रफ़्तार से मोबाइल हैक हो रहा है. हम अंतिम घोषणा लाइव करने को तैयार बैठे हैं. अचानक आखिरी बार बिल्डिंग से आवाज़ आती है, ‘अटेंशन प्लीज’ और फिर से मुर्दसन्नाटा छा जाता है. लोग अंतिम समय तक पूरी सूचना और धन्यवाद, बधाई लिए बिना ही नाचना गाना शुरू कर देते हैं.
लाल गुलाल से होली होने लगी. हम गीता के सबसे पहले इंटरव्यू के लिए भीड़ में घुसे हुए हैं. गुलाल हमारे कपड़ों पर भी बरस रहा है. विजय जुलूस रविवार रात साढ़े नौ बजे निकलेगा इस बात की सूचना सबको दे दी गई है. कुछ देर के बाद लोग अब जाने लगे हैं. लेकिन लोगों के जाने के बाद कई सवाल पूरे लॉन में पसर जाता है.
अब नहीं रही लेफ्ट बनाम लेफ्ट की लड़ाई
जेएनयू की छात्र राजनीति में कुछ साल पहले तक लेफ्ट बनाम लेफ्ट की लड़ाई थी. आइसा और एसएफआई ही बदल-बदल कर यूनियन में आती थी लेकिन अस्मितावादी राजनीति के उभार के साथ कैंपस की राजनीति धीरे-धीरे बदलनी लगी है.
एबीवीपी का अपना एक वोट बैंक सब दिन से रहा है. बीजेपी की सरकार आने से एबीवीपी को इसका फायदा मिलता है. सन् 2000 में अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार थी तब संदीप महापात्रा जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष बने थे.
मतगणना में विवाद होने पर दुबारा काउंटिंग हुई और तब जाकर संदीप महापात्रा 1 वोट से चुनाव जीते. इस बार की बीजेपी सरकार में एबीवीपी को सफलता तो नहीं मिली लेकिन जेएनयू में एबीवीपी का जनाधार बढ़ा है. इस बार सेंट्रल पैनल की सभी सीट पर एबीवीपी दूसरे नंबर पर रही.
जीत के जश्न का एक दृश्य
बापसा से लेफ्ट को है ज्यादा खतरा
जेएनयू की छात्र राजनीति में सबसे बड़े बदलाव का नाम बापसा है. जिस जगह आने में एबीवीपी को वर्षों लग गए वहां बापसा 3 साल में ही पहुंच गई है. इस बार कई घंटे तक बापसा दो नंबर पर रही लेकिन अंतिम समय में एबीवीपी से लगभग सौ और उसके कम वोटों से सभी सीट पर पिछड़ गई. लेफ्ट के गढ़ माने जाने वाले सोशल साइंस स्कूल में बापसा को एबीवीपी से ज्यादा वोट मिले.
संदेश स्पष्ट है कि कैंपस में राजनीति का तीन कोण बन रहा है. तीन अलग विचारधारा और तीन पार्टी. एबीवीपी को इससे बहुत ज्यादा खतरा नहीं है लेकिन अगर लेफ्ट ने आने वाले समय में ओप्रेस्ड समुदाय के मुद्दों को प्रमुखता नहीं दी तो बापसा का उभार और गहरा होगा.
वैसे पिछले कुछ सालों से आइसा ने इस खतरे को भांप लिया है इसलिए उसमें दलित,पिछड़े और आदिवासियों को भी जगह मिल रही है. आइसा हरेक पैनल में इनको जगह दे रही है. इसलिए लेफ्ट का किला अब भी कायम है.
अब बात सिर्फ प्रतिनिधित्व देने से नहीं बनेगी क्योंकि उनके हक के लिए काम भी करना होगा. जेएनयू में ओबीसी का एक भी प्रोफेसर नहीं है, दलितों को इंटरव्यू में कम मार्क्स दिए जा रहे, आदिवासियों के भी विभिन्न मुद्दे हैं. अब सिर्फ लॉलीपाप देने से काम नहीं चलेगा. बापसा इन मुद्दों का फायदा उठाने को तैयार बैठी है. इसलिए इस जीत के बाद भी लेफ्ट को आत्मचिंतन करने की जरुरत है.