view all

लापता नजीब और जेएनयू छात्रसंघ की खुलती कलई

शायद ये पहली दफा है कि किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय से कोई छात्र यूंं लापता हुआ है

Saqib Salim

मुझे ग़रज़ है मेरी जान गुल मचाने से

न तेरे आने से मतलब न तेरे जाने से


-‘जॉन एलिया’

उर्दू के मशहूर शायर जॉन एलिया ने ये शेर क्या सोच कर लिखा था ये तो सिर्फ वही बता सकते थे पर इसको अपनी जिदंगी में पूरी तरह उतारने का बीड़ा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की छात्रसंघ ने उठा लिया है.

जेएनयू परिसर से नजीब अहमद को लापता हुए चालीस दिन हो चले हैं और इस दौरान छात्रसंघ तरह-तरह से शोर मचाता तो दिखा पर नजीब को लेकर उसका रवैया ढुलमुल ही रहा.

इस ही साल फरवरी में जब तत्कालीन जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को पुलिस ने देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया था तब छात्रसंघ यूनिवर्सिटी के अधिकतर छात्र-छात्राओं को सड़क पर लाने में कामयाब रहा था.

पूरे देश ने टीवी के माध्यम से देखा कि किस प्रकार जेएनयू के आम छात्र-छात्राएं सड़कों पर उतर आए थे.

चाहे वो यूनिवर्सिटी के अंंदर का प्रदर्शन हो या जंतर-मंतर पर हुआ ऐतिहासिक प्रदर्शन हर जगह हजारों की संख्या में छात्र-छात्राएं पहुंचे थे. ‘स्टैंड विथ जेएनयू’ के नारों के साथ पूरा छात्र समुदाय एक होता हुआ नजर आया था.

उसके बाद सितंंबर में हुए छात्रसंघ चुनावों में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आईसा) और स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) ने कन्हैया की गिरफ्तारी की पूरी जिम्मेदारी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) पर डालते हुए यूनिवर्सिटी में माहौल तैयार किया कि या तो आप परिषद के साथ हैं या वामपंथी मोर्चे के साथ.

वामपंथी गठबंधन की जीत 

वामपंथी गठबंधन चारों सीटों पर जीता और इसको परिषद की हार करार दिया गया. इस चुनाव के लगभग एक महीने बाद 15 अक्टूबर को यूनिवर्सिटी परिसर से एमएससी का एक छात्र लापता हो जाता है.

गौरतलब है कि लापता होने से ठीक पहली रात यानी 14 और 15 अक्टूबर कि मध्य-रात्रि उसको परिषद से संंबंध रखने वाले कुछ छात्रों ने मारा था. नजीब के साथ हुई मार-पीट की पुष्टि यूनिवर्सिटी की प्रोक्टोरिअल जांच में हो चुकी है.

भारत के इतिहास में शायद ये पहली दफा है कि किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय से कोई छात्र यूंं लापता हुआ है. यूनिवर्सिटी परिसरों में हिंसा भले ही होती आयी हो पर लापता हो जाने का ये पहला वाकया है.

ऐसे में छात्रसंघ से उम्मीद की जा रही थी कि फरवरी जैसा ही एक मूवमेंट वो खड़ा करेगा. पर ऐसा नहीं हुआ. कन्‍हैया की गिरफ्तारी के वक्‍त हम सब जानते थे कि वो कहांं है. वो भले ही तिहाड़ जेल में था लेकिन एक राजनैतिक कैदी था, उसकी जान को खतरा नहीं था.

यहां नजीब लापता है. हम नहीं जानते कि वो किस हाल में है, कहांं है? चालीस दिन बीत जाने के बाद पुलिस को उसका अब तक कोई सुराग न मिल पाना बेहद चिंताजनक है. ऐसे में छात्रसंघ की प्रतिक्रिया फरवरी से कम तीखी होने की कोई वजह दिखाई नहीं पड़ती.

लेकिन हुआ इसके ठीक उलट. जहां फरवरी में कन्‍हैया की गिरफ्तारी के वक्‍त हजारों छात्र इकठ्ठा हो जाते थे वहांं कुछ सौ का एकत्र होना भी गनीमत लगती है.

ऐसा नहीं कि छात्रों को फर्क नहीं पड़ता एक साथी के लापता होने से. पर एक नेतृत्व के बिना वो भी कहांं जायें. छात्रसंघ के रवैये का अंदाजा इस बात से लग सकता है कि इस मुद्दे पर यूनिवर्सिटी जनरल बॉडी मीटिंग (यूजीबीएम) को बुलाने में उसको 35 दिनों का समय लगा.

वो भी दूसरे छात्र संगठनों के दबाव में ऐसा करना पड़ा. यूजीबीएम ही वो स्थान होता है जहांं पर लिया गया निर्णय छात्रसंघ को मानना जरूरी है. यहांं आम छात्र एक साथ मिलकर वोटिंग के जरिये निर्णय लेते हैं.

छात्रसंघ की ईमानदारी पर उठा सवाल

21 नवंबर को हुई यूजीबीएम खुद ही जेएनयू छात्रसंघ की ईमानदारी पर सवाल खड़े कर देती है. इस यूजीबीएम में कुछ निर्दलीय छात्र-छात्राओं ने ये प्रस्ताव रखा था कि इस सेमेस्टर की परीक्षाओं का तब तक बहिष्कार किया जाए जबतक के नजीब वापस न आ जाये.

इंसानी समाज में ये मांग जायज भी है. नजीब भी उस ही यूनिवर्सिटी का छात्र है. ये उसकी भी परीक्षाएं हैं ऐसे में उसके बिना उसके साथी परीक्षाएं दे देंगे तो उसका साल खराब हो जायेगा.

और इसमें नजीब की कोई गलती कम से कम अभी तक तो साबित नहीं है. लेकिन ये सीधी सी लगने वाली मांग छात्रसंघ और उस के हितैषियों को सही नहीं लगी और उन्होने इस प्रस्ताव को पारित न होने दिया.

एक और प्रस्ताव रखा गया था यूनिवर्सिटी प्रशासन पर दबाव बनाने का. इस प्रस्ताव को भी छात्रसंघ ने पारित न होने दिया.

वो संगठन जो कि छात्रसंघ का हिस्सा नहीं हैं उनकी मांग ये थी कि पहले पूरी यूनिवर्सिटी को एकजुट किया जाये तब ही पुलिस और सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है जैसा कि फरवरी में हुआ था. ये मांग छात्रसंघ में बैठे वामदलों आईसा-एसएफआई को ठीक न लगी और पारित न हो सकी.

जैसा कि एक महीने से देखा जा रहा है कि छात्रसंघ यूनिवर्सिटी के छात्रों को एकत्रित करने में बुरी तरह विफल रहा है और उसके आह्वान पर कुछ सौ ही छात्र जुट पाते हैं.

किरकिरी बचाने में जुटा छात्रसंघ

अपनी किरकिरी को बचाने के लिए छात्रसंघ ने प्रस्ताव में रखा कि नजीब को लेकर प्रदर्शन जेएनयू से बाहर ले जाया जाये. प्रस्ताव रखा गया कि ‘चलो बदायूं’ और ‘संसद मार्च’ के आंदोलन चलायें जायें. ये प्रस्ताव पास भी हुए.

कहने को तो इस तरह वे अपनी आवाज देशभर में ले जाना चाहते हैं पर असल में ये एक मुखौटा है अपनी विफलता छुपाने का. इस सच्चाई पर पर्दा डालने कि कोशिश भर है कि छात्रसंघ के प्रदर्शन में छात्र नहीं आते.

यदि इस बात पर किसी को कोई शक था भी तो वो 23 नवंबर को मिट गया. छात्रसंघ ने संसद मार्च का आह्वान किया था. जहां एक ओर इस संसद मार्च के प्रस्ताव को पारित करने के लिए यूजीबीएम में छात्रसंघ 200 के करीब हितैषी जुटा लाया था, जिन्होंने रात भर रुक कर 22 तारीख की सुबह 4-5 बजे वोट किया था.

23 तारीख को इस संसद मार्च में वो बमुश्किल 50 लोग ही जुटा पाया. ‘चलो बदायूं’  का नारा भी इस उम्मीद पर टिका है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया इस्लामिया से छात्र इसमें सहयोग कर देंगे और छात्रसंघ की फजीहत होने से बचा लेंगे.

छात्रसंघ को समझना होगा के ये एक इंसानी जिदंगी का सवाल है और राजनीति के दांवपेंच बाद में भी खेले जा सकते हैं.

(लेखक जेएनयू में इतिहास के शोधकर्ता हैं)