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जिन्ना और टीपू तो गुजरा कल हैं...किसानों को इतिहास बनने से बचा लीजिए

कर्नाटक में टीपू सुल्तान के इतिहास के अलावा किसानों की खुदकुशी का वर्तमान भी है और किसानों की खुदकुशी के आंकड़ों में इतिहासकारों की तरह मतभेद नहीं हैं जिस वजह से कर्ज और कंगाली से जूझ रहे किसानों को इतिहास बनने से रोकने की जरूरत है

Kinshuk Praval

इतिहास के पन्नों में दफन अतीत जब वर्तमान के धरातल पर उतारने की कोशिश हो तो उसका मकसद संदेहों से घिरा होता है. इतिहास के दो नाम टीपू सुल्तान और मोहम्मद अली जिन्ना वर्तमान के धरातल पर लाए जा चुके हैं. इतिहास के ये किरदार काल्पनिक नहीं हैं इसलिए इनको लेकर छिड़ी बहस और विरोध की आग को देखकर सवाल उठता है कि आज क्या वाकई इन्हें किसी भी रूप में याद करने की जरूरत है? क्या ये माना जाए कि देश वापस आजादी के पहले के दौर की तरफ जाने की तैयारी कर रहा है क्योंकि भविष्य सुलगते सवालों से घिरा और सहमा नजर आ रहा है.

कोई मैसूर के शासक टीपू सुल्तान का महिमामंडन करने में जुटा है और उसे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग को लेकर स्वतंत्रता सेनानी बता रहा है तो कोई जिन्ना को गांधी और नेहरू के बराबर बता कर इतिहास के पन्नों पर लिखी लकीरों को बदलने का काम कर रहा है.


जिन्ना को हिंदुस्तान का इतिहास हमेशा बंटवारे के लिए जिम्मेदार मानता आया है और मानता रहेगा. जिन्ना की जिद ने पाकिस्तान के वजूद की जमीन तैयार की जिसे हिंदुस्तान कभी माफ नहीं करेगा. लेकिन बंटवारे की कड़वी यादों से अब भारत बहुत साल आगे आ चुका है. उसे बार-बार अतीत में ले जाने की राजनीति से युवाओं का भविष्य ही प्रभावित होगा.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर से उठे विवाद ने यूनिवर्सिटी कैंपस को छावनी में बदल दिया है. जिन्ना के पैरोकार तस्वीर हटाने के पक्ष में नहीं हैं तो जिन्ना के विरोध में आए संगठन इसे राष्ट्रीय अस्मिता का सवाल बना चुके हैं. दीगर बात ये है कि जिन्ना की तस्वीर आजादी के पहले की लगी है. जिन्ना खुद एएमयू के मानद सदस्य रह चुके हैं. लेकिन जिन्ना के दामन पर बंटवारे का दाग ऐसा चस्पा है कि उनकी तस्वीर में अब उस पाकिस्तान की सूरत दिखाई दे रही है जो भारत पर आतंकी हमलों का गुनहगार है और जिन्ना उस पाकिस्तान के लिए जिम्मेदार हैं.

ऐसे में जिन्ना को लेकर सियासत में छिड़ी जंग से ये सवाल उठाता है कि आखिर जिन्ना को कैसे कोई गांधी और नेहरू के बरक्स रख सकता है? गोरखपुर से समाजवादी पार्टी के नवनिर्वाचित सांसद प्रवीण निषाद कहते हैं कि जिन्ना ने भी गांधी-नेहरू की ही तरह बराबरी से आजादी की लड़ाई में योगदान दिया था.

आम जनमानस में जिन्ना की तस्वीर उस शख्स के रूप में है जो प्रधानमंत्री बनने की जिद के चलते  बंटवारे की दहलीज लांघ गया. क्या इतिहास की ये बातें भ्रामक हैं या फैलाई गईं हैं ताकि जिन्ना के चरित्र को इतिहास में नेगेटिव ही दिखाया जा सके? आखिर जिन्ना को लेकर इतिहासकारों में कोई मतभेद क्यों नहीं दिखा? जिन्ना की महत्वाकांक्षाओं का पुख्ता सबूत पाकिस्तान है तो फिर जिन्ना को लेकर उमड़ता सियासी प्रेम तुष्टीकरण क्यों नहीं माना जा सकता? वहीं दूसरा सवाल ये भी उठता है कि

जिन्ना को लेकर इतना विरोध क्या वोटबैंक की राजनीति का हिस्सा है या फिर यूपी के कैराना में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश?

कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में टीपू सुल्तान की डेढ़ सौ साल बाद वापसी हुई है. राजनीतिक दलों की जुबान पर टीपू सुल्तान का नाम है. सवाल ये उठता है कि देश के पहले मिसाइल मैन कहे जाने वाले टीपू सुल्तान की क्या कर्नाटक के किसानों की खुदकुशी के मामलों से ज्यादा अहमियत है?

क्या ये वाकई जरूरी है कि टीपू सुल्तान का महिमा मंडन कर खास वर्ग को वोट के लिए लुभाने की राजनीति कर समाज को दो हिस्सों में बांटा जाए?

टीपू सुल्तान को लेकर इतिहास अलग-अलग राय रखता है. कहीं उस पर 800 ब्राह्मणों को एक साथ फांसी देने और लाखों हिंदुओं के धर्मांतरण का आरोप हैं. कहीं ये कहा जाता है कि टीपू सुल्तान ने हिंदू मंदिरों के लिए कर्नाटक में दिल खोल कर दान दिया. कहीं उसे एक बेजोड़ शासक माना जाता है जिसने अपनी युद्धशैली और दिलेरी से अंग्रेजी हुकुमत की नाक में दम किया.

लेकिन सवाल उठता है कि मौजूदा दौर में टीपू सुल्तान के इतिहास को किस-किस रूप में देखे जाने की  जरूरत है?  राजनीतिक दल अब अपने अपने तरीके से टीपू सुल्तान को परिभाषित और प्रचारित कर रहे हैं क्योंकि इतिहासकारों में टीपू सुल्तान को लेकर मतभेद हैं.

यही वजह है कि कर्नाटक में कोडावा समुदाय के लोग टीपू को कट्टर धार्मिक मानते हैं तो हिंदू संगठन मानते हैं कि टीपू ने जबरदस्ती लाखों लोगों का धर्म परिवर्तन कराकर इस्लाम कबूल करवाया.

कर्नाटक में मेलकोट नाम की एक जगह है जहां अय्यंगर ब्राह्मण समुदाय के लोगों का मानना है कि इस्लाम कबूल न करने की वजह से टीपू ने एक साथ 800 ब्राह्मणों को फांसी दी थी.

इतिहास भूलने और सबक याद रखने के लिए होता है. लेकिन टीपू सुल्तान के अच्छे-बुरे इतिहास का राजनीतिक इस्तेमाल वोटबैंक के लिए किया जा रहा है. यही वजह है कि हिंदूवादी संगठनों को चुनाव के मौके पर टीपू सुल्तान की राजनीति से हिसाब बराबर करने का मौका दिखाई दे रहा है. बीजेपी को भी हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की आस योगी आदित्यनाथ के कर्नाटक दौरे से ज्यादा टीपू सुल्तान के विरोध में दिखाई दे रही है.

किसी के लिए टीपू कुशल युद्ध रणनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, महत्वाकांक्षी शासक, चतुर सेनापति, धर्मनिरपेक्ष है तो किसी के लिए वो अत्याचारी और दक्षिण का औरंगजेब है. एक तरफ ये कहा जाता है कि टीपू सुल्तान ने मंदिरों में बहुत दान दिया तो दूसरी तरफ उस पर सैकड़ों मंदिर गिराने का आरोप है.

लेखक विलियम लोगान की किताब ‘मालाबार मैनुअल’ में टीपू सुल्तान के बारे में लिखा गया है कि उसने सरेआम सैकड़ों लोगों को फांसी दी थी. वहीं 'लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान' में लिखा है कि मालाबार इलाके में टीपू सुल्तान के हुक्म के चलते एक लाख से ज्यादा हिंदुओं और ईसाइयों को जबरन इस्लाम कबूल कराया गया.

आखिर टीपू सुल्तान को लेकर इतिहास और इतिहासकार इतने बंटे हुए क्यों नज़र आते हैं? पिछले सत्तर साल में टीपू के इतिहास को लेकर क्या सही और निष्पक्ष आंकलन और तथ्य रखने में कमी छूटी है? क्या इसकी बड़ी वजह राजनीतिक इस्तेमाल रही है?

बड़ा सवाल ये है कि क्या आज टीपू सुल्तान पर सियासी संग्राम की वाकई जरूरत है? जिस वजह से  टीपू सुल्तान को स्वतंत्रता सेनानी बताने के पीछे कांग्रेस की मंशा पर सवाल उठते हैं. कांग्रेस पर टीपू सुल्तान की आड़ में मुस्लिम वोट बैंक हासिल करने का आरोप है तो बीजेपी पर ब्राह्मण समुदाय के वोट हासिल करने का आरोप. किसी दौर का मैसूर का शासक आज राजनीतिक दलों के लिए सियासी मोहरा बन चुका है क्योंकि उससे जुड़ी आस्था और नफरत सत्ता की दशा-दिशा तय करने में लगी है.

और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा. कर्नाटक में टीपू सुल्तान के इतिहास के अलावा किसानों की खुदकुशी का वर्तमान भी है. किसानों की खुदकुशी के आंकड़ों में इतिहासकारों की तरह मतभेद नहीं हैं. कर्ज और कंगाली से जूझ रहे किसानों को इतिहास बनने से रोकने की जरूरत है. खेतों में काम करने वाले मजदूर और किसानों खुदकुशी का आंकड़ा साल 2016 के बाद से ही नहीं मिल सका है. लेकिन साल 2015 में एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र के बाद सबसे ज्यादा कर्नाटक में किसानों ने आत्महत्या की है और ये संख्या 1569 रही. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि कर्नाटक को टीपू सुल्तान के इतिहास की जरूरत है या फिर किसानों को इतिहास बनने से रोकने की.