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गैंग रेप पीड़ित के साथ ही नाइंसाफी है पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट का फैसला?

ऐसा लगता है कि जस्टिस वर्मा कमेटी के सुझावों का बहुत असर अभी अदालतों में नहीं हुआ है

Deya Bhattacharya

जिंदल लॉ स्कूल बलात्कार के केस में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का फैसला बेहद चौंकाने वाला रहा है. अदालत के फैसले में जिन बातों को लिखा गया है, उनमें से कमोबेश सभी पीड़ित के बारे में हैं. बलात्कार पीड़ित लड़की जिंदल लॉ स्कूल में कानून की छात्रा है.

अदालत ने अपने फैसले में लड़की के किरदार पर सवाल उठाए हैं. जबकि होना ये चाहिए था कि आरोपी लड़कों हार्दिक, करन और विकास के चरित्र के बारे में अदालत कुछ कहती. मगर हाई कोर्ट ने तो आरोपियों को निचली अदालत से मिली सजा को भी स्थगित कर दिया. जबकि तीनों लड़कों पर पीड़ित लड़की को दो साल तक ब्लैकमेल करके गैंग रेप करने का आरोप है.


इसी साल निचली अदालत ने मुख्य आरोपी हार्दिक को बीस साल कैद की सजा सुनाई थी. वहीं उसके दो दोस्तों करन और विकास को सात-सात साल कैद की सजा सुनाई थी. लेकिन, हाई कोर्ट ने सजा को स्थगित कर के तीनों आरोपियों को रिहा करने का आदेश दिया है. अदालत ने इन तीनों के देश छोड़कर जाने पर पाबंदी लगा दी है. साथ ही उन्हें पीड़ित लड़की से किसी भी तरह से संपर्क करने पर भी रोक लगाई गई है. इस के अलावा हाई कोर्ट ने तीनों आरोपियों का मनोवैज्ञानिक से इलाज कराने का भी आदेश दिया है, ताकि वो ताक-झांक की अपनी आदत से छुटकारा पा सकें.

पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का ये फैसला जस्टिस महेश ग्रोवर और जस्टिस राज शेखर अत्री ने सुनाया. दोनों माननीय न्यायाधीशों ने कहा कि उन्होंने पीड़ित की शिकायत, समाज को संदेश देने और आरोपियों को भूल सुधार का मौका देने के बीच संतुलन साधने का काम किया है. जिस अदालत को अपराध के पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए था, उसने इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं दिया.

आरोपियों पर आईपीसी की दारा 376-डी यानी गैंग रेप का आरोप है. साथ ही धारा 506 यानी पीड़ित को धमकाने का आरोप है. साथ ही तीनों आरोपियों पर इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट की धारा 67 यानी बिना इजाजत, अश्लील, निजी और काबिले-ऐतराज चीजें सार्वजनिक करने का भी आरोप है. लेकिन अदालत ने इन आरोपों पर गौर ही नही फरमाया.

पीड़िता पर ही उठाए सवाल

इसके बजाय हाई कोर्ट ने पीड़ित के बयान के एक-एक पहलू को निशाने पर लिया. उसके किरदार पर सवाल उठाए. अदालत ने इस दौरान बलात्कार के दूसरे मुकदमों की रौशनी में भी इस मामले को नहीं देखा. सच कहें तो पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का ये फैसला इंसाफ नहीं, इंसाफ का मखौल है.

अदालत के पूरे फैसले में अपराध को दरकिनार किया गया है. इसके बजाय युवाओं के नैतिकता को ताक पर रखने पर जोर दिया गया. मसलन, अदालत ने कहा कि पीड़िता का बयान दिखाता है कि आज के युवा किस कदर अपने मूल्यों से भटके हुए हैं. वो किस कदर रिश्तों के प्रति नासमझी रखते हैं. वो समझदारी से परे नजर आते हैं. अदालत ने फैसले में कहा कि पूरा मामला दिखाता है कि किस तरह आज के युवा ड्रग, शराब, कैजुअल सेक्स और ताकाझांकी वाली जिंदगी जी रहे हैं.

पूरा फैसला पीड़ित लड़की के बजाय आरोपी लड़कों के पक्ष में है. जबकि पीड़ित के बुनियादी इंसानी हक पर डाका पड़ा. हाई कोर्ट की बेंच ने अपने फैसले में सजा, सुधार और फिर से मौका देने के बीच संतुलन बनाने की बात कही. ये तो अजब बात है. क्योंकि मुकदमे को जो पक्ष इंसाफ की उम्मीद में अदालत के सामने लाया, वो इंसाफ से ही महरूम कर दिया गया.

माननीय न्यायाधीशों ने आरोपियों को रिहा कर दिया क्योंकि अगर वो जेल में रहते तो उन्हें खुद को सुधारने और पढ़-लिखकर समाज से फिर से जुड़ने का मौका नहीं मिलता. जो सजा दी गई है, वो आरोपियों की बेहतरी पर जोर देती है. जबकि पीड़िता को इंसाफ से ही वंचित कर दिया गया.

कई और बातों पर हो सकता है ऐतराज

अदालत के फैसले में एक और काबिले-ऐतराज बात थी. अदालत ने कहा कि इस गैंग रेप में आरोपियों ने हिंसा नहीं कि जो आम तौर ऐसे अपराधों में होती है. अदालत के फैसले की इस बात ने 2012 के दिल्ली के ज्योति पांडेय गैंग रेप केस की याद दिला दी. जब छह लोगों ने चलती बस में पीड़ित से बलात्कार के बाद उससे बेरहमी की थी. इस घटना से पूरा देश हिल गया था. ज्योति के साथ जो हुआ, वो बलात्कार के उन तमाम मामलों की मिसाल है, जिसकी शिकार देश की लड़कियां होती हैं.

पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के फैसले को हम इस मामले की रौशनी मे देखें, तो लगता है कि अगर आरोपियों ने हिंसा नहीं की तो बलात्कार तो हमारे समाज में आम बात है. ऐसा लगता है कि पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने ने अपने फैसले से ये संदेश दिया है कि इंसाफ पाने के लिए बलात्कार पीड़ित लड़की को हिंसक मौत मरना होगा.

हाई कोर्ट ने तो अपने फैसले में पीड़ित लड़की के किरदार पर ही सवाल उठाए हैं, जबकि होना ये चाहिए था कि आरोपियों के बर्ताव को कठघरे में खड़ा किया जाता. लेकिन, अदालत ने कहा कि पीड़ित के बयान से उसकी बुरी आदतें जाहिर होती है. वो मौज-मस्ती लेने वाली और सेक्स में कुछ ज्यादा दिलचस्पी लेने वाली मालूम होती है.

इस मामले ने जाहिर कर दिया है कि 2013 की जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशों की अदालतें लगातार अनदेखी कर रही हैं. जस्टिस वर्मा कमेटी ने कहा था कि यौन अपराधों से जुड़े मामलों में हर पहलू को पीड़ित के नजरिए से देखा जाना चाहिए. लेकिन अदालतें ऐसा नहीं कर रही हैं. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का ताजा फैसला इसकी मिसाल है.

1978 के तुकाराम बनाम महाराष्ट्र सरकार के केस में सुप्रीम कोर्ट ने ही पीड़ित के बयान पर यकीन करने से इनकार कर दिया था. अदालत का मानना था कि परिस्थितिजन्य सबूतों से आरोपी का जुर्म साबित नहीं होता था.

ताजा मामले में पीड़ित लड़की के चरित्र पर सवाल उठाकर हाई कोर्ट ने दिखा दिया है कि बलात्कार पीड़ितों के मामलों में अदालतों का रुख पीड़ितों के खिलाफ ही रहता है. न तो कोर्ट पीड़ितों को इंसाफ दिलाने का इच्छुक दिखता है, न ही उसे फिर से मुख्य धारा में जोड़ने की जिम्मेदारी तय करने की कोशिश होती है. इन मामलों में पीड़ित की मदद करने की सरकार की जवाबदेही भी अदालतें नहीं सुनिश्चित करतीं.

सीनियर वकील फ्लैविया एग्नेस कहती हैं कि भारत में बलात्कार पीड़ित दोहरे जुर्म का शिकार होती है. पहले तो उसका यौन शोषण होता है. इसके बाद उसे अदालत में शोषण का शिकार होना पड़ता है. क्योंकि जब तक जुर्म साबित नहीं होता, आरोपी बेगुनाह माने जाते हैं. पीड़ित को पूरे केस के दौरान शर्मसार होना पड़ता है.

आज की तारीख में अदालतों के लिए जरूरी है कि वो पीड़ित लड़कियों के प्रति नरमी दिखाएं. मुकदमा इस तरह से चले कि पीड़ित को शर्मिंदगी न उठानी पड़े. साथ ही रेप के मुकदमों के निपटारे की एक मियाद भी तय होनी चाहिए. कानूनन पीड़ित की यौन आदतों का मुकदमे के दौरान जिक्र नहीं होना चाहिए. लेकिन इस पहलू को सख्ती से लागू करने की जरूरत है.

जिंदल लॉ स्कूल के केस ने जाहिर कर दिया है कि हमारे यहां बलात्कार के मामलों में इंसाफ की उम्मीद कितनी कम होती है. ऐसा तब है जब जस्टिस वर्मा कमेटी ने सुधारों की जबरदस्त तरीके से सिफारिश की थी.

इस मामले में अदालत ने न तो कानूनी पहलू पर गौर किया. न ही पीड़िता को बदनाम करने के लिए बनाई गई क्लिप को सार्वजनिक करने को ही गंभीर अपराध माना. इससे इंसाफ पसंद लोगों को तगड़ा झटका लगा है.

अदालत ने यौन संबंध में सहमति की अहमियत पर भी गौर नहीं फरमाया. पूरे मुकदमे को पीड़ित पर ही केंद्रित करके इंसाफ का मजाक बनाया गया. साफ है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था में समाज के हर पहलू से बदलाव की कोशिश करने की जरूरत है. इसके लिए कानून में भी बदलाव की जरूरत है और सबसे बड़ी जरूरत एक समाज के तौर पर हमारी सोच बदलने की है.