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झारखंडः क्या अंदर ही अंदर खुद को मजबूत करने में जुट चुके हैं माओवादी?

वामपंथी कवि वरवरा राव साफ मानते हैं कि दंडकारण्य के अलावा झारखंड में ही माओवादी सक्रिय हैं

Anand Dutta

झारखंड में माओवादी इस वक्त 'नक्सली सप्ताह' मना रहे हैं. यह 21 से 27 सितंबर तक चलेगा. इस दौरान सीआरपीएफ, राज्य पुलिस और रेलवे पुलिस को हाईअलर्ट पर रखा गया है. माओवादियों की ओर से कुछ जिलों में पर्चे पोस्टर बांटे गए हैं. छत्तीसगढ़ में इस सप्ताह मनाने को 'जन पितुरी सप्ताह' भी कहते हैं. इस दौरान पुलिस संग मुठभेड़ मे मारे गए अपने साथियों को शहीद का दर्जा देते हैं. उन्हें याद करते हैं. उनके परिजनों का हाल लेते हैं.

‘जन पितुरी सप्ताह’ के दौरान नक्सली अपने संगठन को मजबूत बनाने और अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाने का काम करते हैं. कह सकते हैं एक तरह से वह राज्यभर में चल रहे मूवमेंट का आंकलन भी करते हैं. इस लिहाज से साल 2017 को झारखंड सरकार उपलब्धियों भरा मान रही है, वहीं माओवादियों की स्थिति आमलोगों के लिए अबूझ पहेली बन चुकी है.


लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि राज्य से माओवाद या इससे संबंधित हिंसा खत्म होने के कगार पर है. वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर यह हिंसक आंदोलन अचानक शांत क्यूं पड़ गया?

सरकार के लिहाज से यह उपलब्धियों भरा वर्ष रहा. झारखंड पुलिस की वेबसाइट के मुताबिक कुल 39 माओवादियों ने सितंबर तक सरेंडर किया है. इसमें 25 लाख इनामी नकुल यादव, 15 लाख इनामी कुंदन पाहन सबसे बड़ा नाम शामिल है. यह अलग बात है कि माओवादियों के मुताबिक ये दोनों पार्टी लाइन से तीन साल पहले भटक चुके थे. खुद को सुरक्षित रखने के लिए इन्होंने सरेंडर किया है.

पहले भी माओवादियों ने योजना के तहत खुद को किया है पीछे 

नक्सलियों की रणनीति के लिहाज से देखें तो सरेंडर महज क्षणिक मामला है. कॉमरेड अनुराधा गांधी के साथ रह चुके पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते हैं कि साल 2017 नक्सलियों के लिए बहुत निराशाजनक रहा है, लोगों का ऐसा मानना है. लेकिन वास्तविक में ऐसा है नहीं. पोलित ब्यूरो के किसी भी सदस्य को पुलिस पकड़ नहीं पाई है. लातेहार के बूढ़ा पहाड़ में टॉप माओविस्ट लीडर अरविंद जी को घेरने के बावजूद पुलिस या सीआरपीएफ उन तक पहुंच नहीं पाई. अब तो केवल पैसा बनाने के लिए बूढ़ा पहाड़ पर पुलिस अभियान चला रही है. लैंड माइंस खोज रही है. उनके मुताबिक माओवादी इस समय 'रिट्रीट फेज' से खुद को गुजार रहे हैं. यानी खुद को कुछ देर के लिए पीछे खींच रहे हैं.

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. जब सन 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हुआ, इसके ठीक चार साल बाद ही माओवादियों को इस फेज से गुजरना पड़ा था. इसकी सबसे बड़ी वजह मानी जाती है पॉलिटिकल विंग पर मिलिट्री विंग का भारी पड़ना.

झारखंड के रिटायर्ड पुलिस अधिकारी भी मानते हैं कि जिन लोगों ने सरेंडर किया है, सभी चूके हुए नक्सली हैं. इनका कभी विचारधारा से लेना-देना नहीं रहा. केवल वसूली कर रहे थे. जब इनको माओवादियों से ही खतरा होने लगा तो सरेंडर कर जान बचा रहे हैं.

एक बार आईजी मुरारी लाल मीणा ने कहा था कि जितने खतरनाक जंगल के बंदूकधारी हैं, उससे कहीं अधिक संस्कृत कर्मी और आइडियोलॉजिस्ट होते हैं. पहले संस्कृतकर्मी बनकर यह गांव जाते हैं. लोगों को व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा करते हैं, भड़काते हैं. फिर पीछे से बंदूकधारी आकर इलाके को तबाह करते हैं.

सरेंडर के बावजूद टॉप माओवादी पुलिस गिरफ्त से बाहर 

दूसरी बात यह कि इस विचारधारा से मेल खाते कुल 19 संगठन झारखंड में सक्रिय है. सरकार किस आधार पर कह रही है कि उसने माओवाद मुक्त कराने की दिशा में बड़ी सफलता हासिल की है? सफलता पर तो सवाल ऐसे ही खड़े हो जाते हैं कि एक करोड़ इनाम वाले माओवादी मिसिर बेसरा, प्रशांत बोस (किशन दा), असीम मंडल, प्रयाग मांझी, अरविंद जी और सुधाकरण की फोटो झारखंड पुलिस की वेबसाइट पर पुलिस को बार-बार याद कराने के लिए काफी है कि अभी तो बहुत कुछ बाकी है. कभी भी, कुछ भी हो सकता है.

25 लाख के इनामी 21 माओवादी अभी पुलिस की गिरफ्त से कोसों दूर हैं. इसके साथ ही 15 लाख इनामी 20 माओवादी, 10 लाख इनामी 37 माओवादी बाहर हैं. यह अलग बात है कि आम जन और पुलिस की नजर में ये सभी निष्क्रिय हो चुके हैं!

वहीं झारखंड सरकार के लिहाज से इस साल सितंबर माह तक कुल 37 माओवादियों ने सरेंडर किया है. नियम के अनुसार सरकार 75 लाख 40 हजार रुपए कैश बांट चुकी है. जमीन और अन्य सुविधाओं का आवंटन अलग. राज्य में इस वक्त सीआरपीएफ के लगभग 40 हजार जवान तैनात हैं.

खूंटी में राज्य सत्ता को अब ग्रामीण दे रहे हैं चुनौती 

इस समय झारखंड में बमुश्किल 12 जिले माओवाद से प्रभावित हैं, लेकिन 22 जिले प्रभावित बताए जाते हैं. यह सब माओवाद प्रभावित इलाके के नाम पर केंद्र सरकार से फंड लेने के लिए किया जा रहा है. दूसरी बात यह कि रांची से सटा खूंटी जिला अति प्रभावित जिलों में है. लेकिन खूंटी को माओवाद मुक्त कराने को एक्शन नहीं होते. केवल उन इलाकों को मुक्त कराने का काम हो रहा है जहां खनिज संपदा हैं.

बीते अगस्त माह में खूंटी जिले में एसपी सहित 150 पुलिसकर्मियों को गांववालों ने रातभर बंधक बनाए रखा. उनका कहना था कि गांव में गांव का शासन चलेगा. सरकार का नहीं. काफी मशक्कत के बाद इन अधिकारियों को ग्रामीणों से मुक्त किया था.

वामपंथी कवि और इस विचारधारा के समर्थक वरवरा राव कहते हैं कि 'एक तरफ 40 हजार से अधिक सीआरपीएफ जवानों को झारखंड में तैनात किया गया है. दूसरी तरफ सरकार खुद को शाबाशी दे रही है कि उसने  इस पर नियंत्रण पा लिया है. यह अपने आप में विरोधाभास है. यह साफ तौर पर ग्रीनहंट का छद्म रूप है. हाल ही में मैं गिरिडीह गया था, जहां सरकार के अनुमति नहीं दिए जाने के बावजूद 2 हजार से अधिक लोग जुटे. दंडकारण्य के बाद अगर माओवादी कहीं एक्टिव हैं, तो वह झारखंड ही है. सरकार जिसे सरेंडर बता रही है, वह महज दोनों के बीच महज परस्पर समझौता है. मजबूरी कर सरेंडर नहीं'.

मदद करनेवाले ग्रामीण भी पूरी तरह खामोश हो चुके हैं 

मानवाधिकार कार्यकर्ता और ऑपरेशन ग्रीन हंट के मुखर विरोधी रहे लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग का मानना है कि खूंटी जिला को छोड़कर किसी भी जिले में हलचल तक नहीं है. वह पूरी तरह से साइलेंट हो चुके हैं. सारंडा के लेकर गिरिडीह तक के गांवों में  ग्रामीण चर्चा तक नहीं कर रहे हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह चुप होकर खुद को संगठित कर रहे हों. यही वजह है कि खूंटी में सरकार के खिलाफ जो सामाजिक आंदोलन चल रहे हैं, उसमें माओवादी शामिल होने की जुगत में लगे हैं. लेकिन ग्रामीण यह समझ रहे हैं कि अगर इसमें माओवादियों को शामिल किया तो पुलिस के लिए इसे खत्म करना आसान हो जाएगा.

जहां तक झारखंड सरकार की बात है, उसे रणनीतिक सफलता कुछ हद तक मिली है. उन्हें आपस में लड़ाकर कुछ जोड़ तोड़ कर लिया है. ग्लैडसन यह भी बताते हैं कि माओवादी जब चाहें हमला कर सकते हैं. इसके बाद ही पुलिस या सीआरपीएफ उस जगह तक पहुंच सकती है.

आम आदिवासियों के लिए है राहत और आशंका भरा समय 

इस सब के बीच एक बात तो साफ है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट के समय पुलिस और माओवादी दोनों की गोली का शिकार आम आदिवासी हो रहे थे. ऑपरेशन ग्रीन हंट और इसके नाम पर बाद तक चलाए गए तथाकथित पुलिसिया क्रॉस फायरिंग में हजारों लोग मारे गए. कम से कम उन्हें राहत जरूर मिली है. गोली से भले ही वह फिलहाल बच रहे हैं. लेकिन इस आशंका से खुद को अलग नहीं कर पा रहे हैं कि आज नहीं तो कल एक बार फिर यह शुरू होना ही है.

अगर माओवादियों के कब्जे से इन इलाकों को मुक्त करा भी दिया जाता है तो इससे आदिवासियों को लाभ तो कतई नहीं मिलने जा रहा. जैसे जैसे खनिज वाले इलाके में खनन शुरू होगा तो पलायन और विस्थापन इनकी नियती बन जाएगी.