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डीएसपी अयूब की हत्या: फिर दोहराया जा रहा है कश्मीर का खूनी इतिहास!

यह हत्या घाटी में पिछले 50 हफ्ते से जारी तबाही और रक्तपात के बावजूद चौंका देने वाली है

David Devadas

डीएसपी अयूब पंडित की गुरुवार रात श्रीनगर में पीट-पीटकर की गई हत्या ने बहुत से कश्मीरियों को भयभीत कर दिया है. यह हत्या घाटी में पिछले 50 हफ्ते से जारी तबाही और रक्तपात के बावजूद चौंका देने वाली है.

पंडित श्रीनगर के एक कश्मीरी मुस्लिम थे. वे श्रीनगर शहर के पुराने इलाके में ऐतिहासिक जामिया मस्जिद के गेट पर तैनात थे. लोगों के साथ हुई झड़प के दौरान पंडित ने हवा में फायरिंग की ताकि वे अपने हमलावरों को दूर कर सकें.


इसके बाद भीड़ उन पर टूट पड़ी और उन्हें पीट-पीटकर कर मार डाला.

विडंबना यह है कि गुरुवार की रात रमजान के आखिरी हफ्ते में आने वाली शब-ए-कद्र की रात थी. इस दौरान मुसलमान दुआ करते हैं कि उनके सभी पाप माफ हो जाएं. यह गहन प्रार्थना की रात होती है.

यह भी कम विडंबना की बात नहीं है कि भीड़ पंडित के शरीर को खनयार चौक से आगे उस जगह तक खींच कर ले गई, जहां से एक गली मखदूम साहिब की दरगाह की ओर जाती है. सदियों से बहुत से कश्मीरी सूफी संत मखदूम साहिब को कश्मीर के असली राजा के तौर पर मानते हैं.

सूफी परंपरा खारिज

यह वीभत्स हत्या उस सूफी परंपरा के बिल्कुल उलट है जो कश्मीरियों की पारंपरिक पहचान रही है. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी मखदूम साहिब की दरगाह पर आया करती थीं. इस बर्बर हत्या ने कश्मीर के इतिहास की तीन बड़ी घटनाओं से इसकी समानता और विरोधाभास को जेहन में ताजा कर दिया है.

सबसे पहले जनवरी 1990 की वह घटना याद आती है जब अपने पुलिस थाने के बाहर सड़क पर मैसुमा के एसएचओ की हत्या कर दी गई थी. पुलिस में इस कदर आतंक छाया हुआ था कि कुछ समय तक एसएचओ का शव सड़क पर ही पड़ा रहा. आखिरकार, एक गैर-पुलिस कर्मचारी ने शव को वहां से हटाया.

उस वाकिये और मौजूदा घटना के बीच अंतर यह है कि आतंकियों ने मैसुमा के एसएचओ को मारने के लिए बंदूक का इस्तेमाल किया था. उनका मकसद पुलिस बल का मनोबल तोड़ना था.

इसकी तुलना हाल की उस घटना से की जा सकती है जिसमें आतंकवादियों ने घात लगाकर अचाबल थाने के एसएचओ और पांच अन्य पुलिसकर्मियों को मार डाला. दूसरी तरफ, अयूब पंडित को बदले की भावना से भरी गुस्साई भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला.

यह घटना भी पुलिस के मनोबल पर असर डाल सकती है. यह अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों में निर्ममता और बदले की भावना न भी पैदा करे तो भी उनमें क्रोध और असंवेदनशीलता जरूर पैदा कर सकती है. यह उन लोगों को काफी रास आएगी जो टकराव, हत्या और युद्ध के दौरान होने वाली क्रूरता देखना चाहते हैं. घाटी में ऐसे बहुत से लोग हैं.

इतिहास की गूंज

इस हत्या में 1998 में गंदरबल के पास वंधामा में 23 पंडितों की वीभत्स हत्या की गूंज सुनाई देती है. वह भी शब-ए-कदर की रात थी. उस वक्त बहुत से कश्मीरियों के लिए यकीन कर पाना मुश्किल था कि खुदा से डरने वाला कोई मुसलमान शब-ए-कदर जैसी पवित्र रात में इस तरह का नृशंस कृत्य कैसे कर सकता है. लेकिन गुरुवार की रात अयूब पंडित की हत्या उन लोगों ने की जो खास तौर से अपने पापों के लिए क्षमा मांगने ऐतिहासिक मस्जिद गए थे.

विडंबना यहीं खत्म नहीं होती. भीड़ ने जिस सड़क पर अयूब के शरीर को घसीटा, वह श्रीनगर की केंद्रीय जेल की ओर जाती है. छियासी साल पहले 13 जुलाई 1931 को एक भीड़ ने 21 शवों को जेल से जामा मस्जिद लाई थी और उसके बाद पंडित के रूप में संबोधित होने वाले कश्मीरी हिंदुओं की दुकानों में तोड़फोड़ के लिए महराजगंज कूच कर गई थी.

समानताएं और विरोधाभास

मौजूदा हालात की तुलना 1931 और 1990 से करना प्रासंगिक होगा. 1931 में अब्दुल कांदिर नाम के आगंतुक के कट्टरपंथी भाषण को भारी समर्थन मिला और विद्रोह की शुरुआत हुई. इस विद्रोह ने शेख अब्दुल्ला को अगस्त तक कश्मीरी आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में बदल दिया था. वे विद्रोह को अगले कुछ दशकों में उदारता, सामाजिक समावेश और आर्थिक समानता की दिशा में ले गए. लेकिन अब यह एक दूर का सपना -कमोबेश एक मृगतृष्णा- की तरह लगता है.

जुलाई 1988 का उग्रवादी विद्रोह दो तरह के निहितार्थ वाली ‘आजादी’ के लिए शुरू हुआ था. इसका आगाज जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के तहत हुआ था. मुजफ्फराबाद में इसके संस्थापक आमतौर पर वामपंथी धर्मनिरपेक्ष लोग थे. लेकिन संगठन ने घाटी में जिन उग्रवादी कमांडरों की भर्ती की, उन्हें संकीर्ण इस्लामवाद ने पाला-पोसा था.

बहरहाल, पाकिस्तान ने उनकी बजाय स्पष्ट रूप से इस्लामवादी और पाकिस्तान समर्थक हिजबुल मुजाहिदीन को चुना– ठीक उसी महीने जब मैसूमा के एसएचओ की हत्या की गई थी.

इस गर्मी में जैसे ही हत्याओं का दौर चला, ऐसे किशोर इसके नेतृत्व पर काबिज हो गए जो किसी तरह के राष्ट्रवाद या लोकतंत्र को खारिज करते हैं. हिजबुल मुजाहिदीन का पूर्व कमांडर जाकिर मुसा इस प्रवृत्ति को मूर्त रूप देता है और इसमें कट्टरपंथी इस्लामवादी तत्व भी जोड़ता है. उसने खुद को अलकायदा और अब तक अनसुने ‘कश्मीरी तालिबान’ के साथ संबद्ध किया है.

पिछले कुछ महीनों में दक्षिणी कश्मीर में इस तरह के कट्टरवाद को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. श्रीनगर शहर के बीचों-बीच पंडित को मारने वाले नफरत भरे हमले से एक और संकेत मिलता है जो कम परेशान करने वाला नहीं है.