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जलियांवाला बाग कांड: बूचर जनरल डायर और जनता की हिंसा पर गांधी का साहसिक फैसला 

जलियांवाल बाग हिंसा को गांधी जी ने 'भयंकर भूल' घोषित किया. क्या आज किसी नेता के पास ऐसा नैतिक साहस है, जो कहे कि मैं अपने ही लोगों के गलत कदमों की खुली भर्त्सना करता हूं?

Mridul Vaibhav

जलियांवाला बाग कांड में 13 अप्रैल की शाम साढ़े चार बजे अमृतसर की धरती जिस तरह खून से रंगी गई, वह भारतीय आजादी को इतिहास में बहुत उल्लेखनीय घटना है.

आज से ठीक 98 साल पहले 6000 लोग अमृतसर शहर के जलियांवाला बाग में मौजूद थे और उस दिन बैसाखी का पवित्र पर्व था.


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यह वह समय था जब देश में मोंटागू-चेम्सफोर्ड सुधारों पर बातचीत चल रही थी और रौलेट ऐक्ट लागू करके स्वतंत्रता आंदोलनकारियों को कुचलने के असीमित अधिकार अंगरेज अधिकारियों को सौंपे जा रहे थे.

भारतीयों पर कड़े कानूनों की बंदिशें

जलियांवाला बाग में एकत्र भारतीय लोगों में इस बात को लेकर कड़ी नाराजगी थी कि पुलिस के अफसर नए कानूनों के अनुसार कभी भी किसी भी भारतीय नागरिक के घर की तलाशी ले सकें.

किसी के भी निवास पर प्रतिबंध लगा सकें, किसी की भी स्वतंत्र गतिविधियों को रोक सकें और संदेह हो तो किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकें.

इन कानूनों के अनुसार पुलिस कभी भी किसी को भी हिरासत में ले सकती थी और बिना मुकदमे चलाए जेल में डाल सकती थी.

क्यों कहा गया न वकील और न दलील?

यह वही दौर था जब न वकील और न दलील का एक नया मुहावरा भारतीय राजनीति में सरकार और प्रशासन की अलोकतांत्रिकता पर प्रहार की तरह सामने आया.

गिरफ्तार लोगों को न तो न तो किसी वकील के माध्यम से किसी समिति के सामने उपस्थित होने का अधिकार था. और न ही अपील करते समय किसी तरह की क़ानूनी सलाह का अधिकार था.

इस मामले ने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे तेज गुस्से की लहर पूरे देश में ही जगा दी थी. और इसके बावजूद दमनकारी कानून 21 मार्च 1919 को लागू कर दिया गया.

दिल्ली में भी चली थी गोलियां 

बहुत कम लोगों को यह जानकारी है कि जलियांवाला से पहले दिल्ली में 30 मार्च को आंदोलन हुआ और उसमें गोलियां चलीं.

इसमें कई लोग पुलिस की गोलियों से मारे गए और बहुतेरे लोग घायल हो गए. लेकिन जलती में घी काम किया पुलिस अस्पताल की नर्सो के एक फैसले ने.

इन नर्सों ने कहा कि वे दंगाइयों का इलाज नहीं करेंगी. यह एक अलग तरह की बर्बरता थी.

उसे पूरे देश ने नाकाबिले बर्दाश्त माना और इस पर भारी गुस्सा जताया. प्रदर्शन बढ़ते गए और देश उबलता गया.

एक घटना जिसने बदल दी इतिहास की धारा

भारतीय इतिहासकार और राजनेता ईएमएस नंबूदिरूपाद ने लिखा है, 'पंजाब में एक ऐसी घटना हुई, जिसने इतिहास की धारा ही मोड़ दी. इसे हम जलियांवाला बाग कांड के नाम से जानते हैं.'

अमृतसर में 13 अप्रैल को घटित हुई पाशविक दमन की इस घटना ने देश में एक जनविद्रोह को जन्म दे दिया.

जलियांवाला  बाग में उस समय 6000 लोग थे. जनरल डायर ने न तो चेतावनी दी और न ही यह कहा कि इन लोगों का एकत्र होना प्रशासन ने गैरकानूनी माना है.

लोग आते गए और आखिर में अचानक बाग के पांचों रास्ते बंद कर लोगों से आप्लावित बाग में गोलियां चला दी गईं.

इस नरसंहार में एक हजार लोग मारे गए, लेकिन अंग्रेज प्रशासन ने इसे महज 288 ही माना.

जनरल डायर को पूरी दुनिया के सभ्य लोगों ने अमृतसर का कसाई कहा और उसकी निंदा की. लेकिन तब भी ब्रिटिश उसकी तारीफें करते रहे.

जारी रही बर्बरता?

यह बर्बरता रुकी नहीं और 51 भारतीयों को मृत्युदंड दिया गया और 46 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई.

जलियांवाला बाग में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन आए तो उन्होंने शहीदों को श्रद्धांजलि तो दी लेकिन आज तक किसी ब्रिटिश प्रतिनिधि ने माफी मांगने की जहमत नहीं की.

लेकिन जलियांवाला कांड एक और वजह से हमारे लिए आज काबिले-गौर है. क्योंकि आज भी हालात कमोबेश वैसे ही हैं.

आजादी के दिनों में इस अमानुषिक नरसंहार के बाद देश में हिंसक आंदोलन होने लगे थे.

जनता हुई विकराल

जगह-जगह लोग कानून हाथ में लेने लगे और हालात बेकाबू हो गए. जनता के अंदर बदला लेने भावना विकराल होती गई. यह आज के स्वयंभू कार्यकर्ताओं के ज़ुल्मोसितम से भी बदतर था.

ऐसे कठिन दौर में महात्मा गांधी ने राजनीतिक पटल पर प्रवेश किया और एक अलग राह गही.

लेकिन 14 अप्रैल 1919 को गांधी जी ने गुजरात के अहमदाबाद में खुले तौर पर कहा, जनता ने जो हिंसा की है, मैं उसकी जबरदस्त भर्त्सना करता हूं.

लोगों की हिंसा को गांधी जी ने 'भयंकर भूल' घोषित किया. क्या आज किसी नेता के पास ऐसा नैतिक साहस है, जो कहे कि मैं अपने ही लोगों के गलत कदमों की खुली भर्त्सना करता हूं?

उन्होंने 18 अप्रैल 1919 को तो यह कहकर आज़ादी का अपना आंदोलन तक स्थगित कर दिया कि 'जनता द्वारा की गई हिंसा' नाकाबिले बर्दाश्त है.