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जैसलमेर: सिंगर अहमद खान की हत्या में नहीं है हिंदू-मुस्लिम का एंगल

मिरासी परिवारों का कहना है कि उनकी रोजी-रोटी का आधार संगीत से जुड़ा है. अब गांव का माहौल ऐसा हो चुका है कि उन्हें कोई भी काम नहीं देगा. ऐसे में खाने के लाले पड़ सकते हैं

Mahendra Saini

सोशल मीडिया पर फेक न्यूज को लेकर इन दिनों खासी चर्चा हो रही है. खुद फेसबुक भी एक बटन का ऑप्शन तैयार कर रहा है जिससे असली और नकली खबर का पता चल जाएगा. हालांकि भारत में ये कितना कारगर होगा, अभी कहना मुश्किल है.

फिलहाल तो हमारे देश में किसी भी खबर को सनसनीखेज बनाने का धंधा जोरों पर है. अभी जैसलमेर में मिरासी जाति के मांगणियार लोकगायक अहमद खान की हत्या के मामले की गहराई में ही जाएं तो हम पाएंगे कि मामला उससे अलग है जैसा कि सोशल मीडिया पर वायरल किया जा रहा है. मैं ये इसलिए कह पा रहा हूं क्योंकि मैंने खुद स्थानीय लोगों से बात की है. जैसलमेर के पत्रकारों से जानकारी ली है और पुलिस-प्रशासन से भी पूरा पक्ष जाना है. हत्यारों का पक्ष लेना मेरा उद्देश्य कतई नहीं है. लेकिन पत्रकारिता के आदर्श यानी निष्पक्षता और सच को सामने लाना भी एक पत्रकार का पहला कर्तव्य होता है.


लोक कलाकार का कत्ल क्यों ?

घटना 27 सितंबर की है. जैसलमेर के दांतल गांव में मांगणियार कलाकार अहमद खान को मंदिर में भजन गाने के लिए बुलाया गया था. मंदिर का भोपा रमेश सुथार था. राजस्थान में देवी की पूजा के दौरान ‘जोत’ जलाई जाती है. गाय के गोबर से बने ऊपले (इसे जागता बोला जाता है) को सुलगा कर उस पर घी की आहुति दी जाती है. देवी मां का आह्वान किया जाता है और थोड़ी देर में जब सुलगते ‘जागते’ पर ज्वाला आ जाती है तो उसे देवी का आगमन माना जाता है.

भोपे रमेश सुथार ने देवी की स्तुति शुरू की और अहमद खान ने देवी का भजन गाना शुरू किया. लेकिन काफी देर तक भजन गाने के बाद भी भोपे पर देवी का 'भाव' नहीं आया. इस पर भोपे ने अहमद खान पर सही तरीके से भजन न गाने का आरोप लगाया. भोपे का कहना था कि सही सुर-संगीत में देवी की स्तुति न कर पाने से देवी नाराज हो गई हैं.

अहमद खान के परिवार का आरोप है कि भोपे के साथ उसके दो भाई, श्याम और तारा राम भी मौके पर मौजूद थे. तीनों ने शराब पी रखी थी. तीनों ने अहमद खान के साथ मारपीट की. नाराज अहमद वहां से चला गया. इसपर तीनों गुस्सा हो गए और रात में उसे घर से उठा ले गए. इसके बाद अहमद खान जिंदा नहीं लौट सका.

ये गांव जैसलमेर के दूरदराज के इलाके में है. आमतौर पर ऐसे गांवों में मामले पुलिस या अदालत नहीं बल्कि गांव-समाज की पंचायतें सुलझाती हैं. दांतल गांव में भी ऐसा ही हुआ. अहमद खान की मौत के तीन-चार दिन तक गांव में पंचायत बैठने का सिलसिला चलता रहा. एक स्थानीय पत्रकार के मुताबिक, पंचायत में आरोपी रमेश सुथार ने कबूल कर लिया कि शराब के नशे में उससे ‘गलती’ हो गई और अब वो पंचायत का हर फैसला मानने को तैयार है. तय किया गया कि पीड़ित परिवार को एक रकम मुआवजे (Blood Money) के तौर पर दी जाए.

इसके बाद अहमद को सुपुर्दे खाक कर दिया गया. जैसलमेर एसपी गौरव यादव ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि पुलिस को गांव में भेजा गया. लेकिन पीड़ित परिवार ने अहमद की मौत को प्राकृतिक बताकर मामला दर्ज कराने से इनकार कर दिया.

पंचायत के फैसला सुनाने के बाद तीन-चार दिन और निकल गए. लेकिन सुथार की तरफ से मुआवजा देने की कोई पहल नहीं की गई. पीड़ित परिवार ने और कोई चारा न देखकर पुलिस थाने में अहमद खान के कत्ल की रिपोर्ट दर्ज कराई. पोस्टमॉर्टम के लिए अहमद के शव को कब्र से निकलवाया गया.

पुलिस का कहना है कि शव के चार दिन तक कब्र में रहने के कारण पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में कुछ साफ नहीं हो सका. हालांकि रिपोर्ट में अंदरुनी चोट से मौत होने की आशंका जरूर जताई गई. इसके बाद पुलिस ने दफा 302 के तहत मामला दर्ज कर रमेश सुथार को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन बाकी दोनों आरोपियों को 15 दिन बाद भी पकड़ा नहीं जा सका है.

पुलिस आते ही बदले आरोपियों के सुर

इस मिरासी परिवार ने न्याय की उम्मीद की थी. लेकिन पुलिस में मामला दर्ज होते ही गांव का माहौल ही बदल गया. अभी तक भोपा रमेश सुथार अपना आरोप कबूल कर रहा था. गांव वालों की सहानुभूति भी अहमद खान के परिवार के साथ थी. लेकिन मामले में पुलिस के शामिल होते ही लगभग पूरा गांव पीड़ित परिवार के खिलाफ हो गया.

गांववालों का कहना था कि जब पंचायत फैसला करवा रही थी तो पुलिस के पास जाने की क्या जरूरत थी. आरोपी भोपे के परिवार ने भी ब्लड मनी देने से इनकार कर दिया. साथ ही गांववालों को खान परिवार के खिलाफ भड़काया जाने लगा. माहौल इतना खराब हो गया कि गांव में रह रहे मिरासियों के सभी 20 परिवारों को रातोंरात भागना पड़ा.

पहले ये लोग अपने रिश्तेदारों के पास बलाड़ गांव पहुंचे और उसके बाद जैसलमेर में जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक के पास फरियाद की. इन्होंने सुरक्षा की मांग की. जैसलमेर एसपी गौरव यादव ने बताया कि उन्होंने इन परिवारों की सुरक्षा के लिए गांव के सरपंच को पाबंद किया और कुछ पुलिसकर्मी भी तैनात कर दिए. लेकिन इन परिवारों ने गांव लौटने से इनकार कर दिया. इसके बाद जैसलमेर जिला मुख्यालय पर ही रैन बसेरे में तात्कालिक बंदोबस्त किए गए.

गांव मांगे माफी, पीड़ित मांगें मकान

12 अक्टूबर को भी प्रशासन ने इन परिवारों और दांतल गांव के लोगों के साथ दोबारा वार्ता की है और गांव में ही इन्हें पूरी सुरक्षा देने की पेशकश की है. जिला कलेक्टर के सी मीणा के मुताबिक खुद गांववालों ने पीड़ितों से माफी मांगते हुए उन्हें किसी से न डरने और गांव लौटने की अपील की है.

मिरासी परिवारों का कहना है कि उनकी रोजी-रोटी का आधार संगीत से जुड़ा है. अब गांव का माहौल ऐसा हो चुका है कि उन्हें कोई भी काम नहीं देगा. ऐसे में खाने के लाले पड़ सकते हैं. इसलिए उन्हें जैसलमेर जिला मुख्यालय पर ही रहने के लिए जमीन अलॉट की जाए. ऑल इंडिया डी-नोटिफाइड ट्राइब्स फेडरेशन और राज्य मुस्लिम मिरासी संस्थान ने राजस्व मंत्री अमराराम को इस संबंध में ज्ञापन सौंपा है.

पीड़ित परिवारों ने दो आरोपियों की अब तक गिरफ्तारी न हो पाने पर भी सवाल उठाए हैं. पीड़ितों का कहना है कि जब पंचायत के सामने आरोपियों ने अपना अपराध कबूल कर लिया तो फिर जांच के नाम पर क्यों देरी की जा रही है. उधर, एसपी गौरव यादव का कहना है कि एफआईआर के आधार पर एक आरोपी को गिरफ्तार किया जा चुका है. चूंकि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से कुछ साफ नहीं हो पाया है इसलिए अब विसरा रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा है.

मर्डर की सही रिपोर्टिंग नहीं!

इस मामले में एक और पहलू है जिसकी राजस्थान में ज्यादा चर्चा हो रही है. वो है मीडिया, विशेषकर सोशल मीडिया में इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश. मेनस्ट्रीम मीडिया में भी इस तरह की खबरें देखी गई हैं कि अहमद खान को सिर्फ मुसलमान होने और भजन गाने से इनकार कर दिए जाने के कारण मार दिया.

हालांकि ये सच नहीं है. लेकिन झूठ ये भी नहीं है कि एक गरीब को अपनी जान सिर्फ सही राग न बजा पाने की वजह से गंवानी पड़ी. पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) की राजस्थान प्रेसीडेंट कविता श्रीवास्तव का आरोप है कि राजे सरकार के राज में संप्रदाय विशेष के खिलाफ भीड़तंत्र की हिंसा लगातार बढ़ रही है. इसी साल अलवर के बहरोड़ में पहलू खान को जान गंवानी पड़ी और अब जैसलमेर में अहमद खान को भी पीट-पीट कर मार डाला गया.

ये भी आरोप है कि मामले में ढीली कार्रवाई इसलिए की जा रही है, क्योंकि मरने वाला शख्स वोटबैंक के आधार पर लगभग 'अप्रभावी जाति' मांगणियार (मिरासी) से था. अभी तक पक्ष-विपक्ष के किसी नेता या गैर सरकारी संगठन ने पीड़ितों की सुध नहीं ली है.

कौन हैं लंगा-मांगणियार ?

लंगा-मांगणियार मुस्लिम धर्म का एक समुदाय है जो पाकिस्तान के सिंध और पश्चिमी राजस्थान में बहुतायत में है. ये हिंदू धर्म से परिवर्तित माने जाते हैं. आज भी इनके गोत्र, कई संस्कार, रीति-रिवाज सनातन धर्म से जुड़े हुए हैं. जैसे, इंडियन आइडल फेम गायक स्वरूप खान का नाम ले लीजिए या मंदिरों में भजन गाने की इनकी परंपरा. इन जातियों का मूल पेशा लोक संगीत ही है. लंगा-मांगणियारों ने संगीत में अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनाई है. उस्ताद साकर खान जैसी दिग्गज हस्तियां इसी समुदाय से हैं. शायद यही कारण है कि पश्चिमी राजस्थान में सांप्रदायिक सोच या कट्टरता इतनी जड़ें भी नहीं जमा पाई है.

पाकिस्तान सीमा पर बसे इन गांवों में हिंदू-मुस्लिम परिवार अपने घर-खेत ही नहीं बल्कि दिल भी साझा करते हैं. यहां हिंदू और मुस्लिम घरों, रहन-सहन या पहनावे में कोई अंतर नहीं है. कोई बाहरी शख्स तो ये पता भी नहीं कर पाएगा कि कौन सा घर हिंदू का है और कौन सा मुसलमान का. यही वजह है कि अहमद खान की हत्या के बाद अब पूरा गांव पीड़ितों से माफी मांगकर उन्हें वापस गांव ले जाना चाह रहा है.

हालांकि एक माफी हत्या कर दिए गए किसी शख्स की कमी को पूरा नहीं कर सकती. न ही शराब के नशे में ‘गलती’ हो जाने को किसी भी तरह तार्किक ठहराया जा सकता है. लेकिन ये कोशिश तो की ही जा सकती है कि उस गंगा-जमुनी तहजीब को न बिगड़ने दिया जाए जो रेगिस्तान और पाकिस्तान सीमा के इस छोर पर आज भी बुलंद है, सिर्फ दिखावे में नहीं बल्कि व्यवहार में.