राजस्थान देश का सबसे बड़ा राज्य जरूर है लेकिन क्राइम, कानून व्यवस्था और सांप्रदायिक वैमनस्यता के मामले में आमतौर पर ज्यादा चर्चा में नहीं रहता. राजधानी जयपुर में सौहार्द्रता का आलम ये है कि मुस्लिमों के सबसे बड़े रिहायशी पॉकेट का नाम ही रामगंज है. यहां मस्जिदों के बिल्कुल पास ही मंदिर आराम से देखे जा सकते हैं.
लेकिन इस वीकेंड यहां एक अप्रत्याशित घटना घट गई. शुक्रवार रात जब अधिकतर शहरवासी सो चुके थे तब अचानक रामगंज इलाका जल उठा. आग बुझाने वाली दमकल समेत कई सरकारी-निजी गाड़ियां जला दी गईं. पुलिस पर भयंकर पथराव किया गया. पुलिस ने भी गोली चलाई. एक दिव्यांग समेत 2 युवकों की मौत की खबर है. दर्जनों पुलिस वाले भी घायल हैं.
हालात काबू में न आता देख रामगंज, माणक चौक, गलता गेट और सुभाष चौक थाना इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया. पूरे शहर में 48 घंटे के लिए इंटरनेट बंद कर दिया गया.
पुलिस के अनुसार वजह सिर्फ इतनी थी कि रामगंज इलाके में ट्रैफिक व्यवस्था संभाल रहे कांस्टेबल का डंडा गलती से दोपहिया चालक को लग गया. ये युवक परिवार के साथ था और इस अफरातफरी में उसकी बच्ची गिर गई. पुलिस का कहना है कि इसके बाद तुरंत समुदाय विशेष की भीड़ इकठ्ठी हो गई और पुलिस पर पथराव और आगजनी शुरू कर दी गई.
हालांकि बच्ची की मां ने पुलिसकर्मी पर अभद्रता का आरोप लगाया है. सच जांच के बाद ही सामने आ पाएगा. लेकिन बहुत सी चिंताएं इस एपिसोड ने खड़ी कर दी हैं जिनका समाधान निकट भविष्य में जरूरी हैं.
क्या बारूद पर बैठा है समाज?
इस हिंसा की वजह जान कर बहुत हैरानी होती है. अगर पुलिस सच कह रही है तो शक होता है, कहीं हम वाकई बारूद के ढेर पर तो नहीं बैठे हैं कि चिंगारी जली और सब कुछ स्वाहा.
हालिया समय में भीड़तंत्र की हिंसा व्यापक रूप में देखी गई है. महज अफवाह के आधार पर सांप्रदायिक उन्माद या छोटे और निजी विवादों को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशें भी लगातार हो रही हैं और यही कारण है कि हिंसक झड़पें लगातार बढ़ रही हैं.
सोशल और मुख्यधारा की मीडिया में बुद्धिजीवी भी लगातार इस बात पर जोर देते देखे जाते हैं कि मुसलमानों पर हिंदू अत्याचार बढ़ रहा है. लग रहा है जैसे, पर्याप्त संवैधानिक अधिकारों और नागरिक सुरक्षा की निहित जिम्मेदारी वाले राज्य के बावजूद आम मुसलमान को ये उसी तरह सच लगने लगा है जैसे 1930-40 के दौरान 'इस्लाम खतरे में' है का नारा लगा था.
सख्ती को सांप्रदायिकता का रंग!
हालात ये हो गए हैं कि कानून के पालन की सख्ती को भी विशेष समूह सांप्रदायिक नजर से देखने लगे हैं. जयपुर में एमडी रोड, घाटगेट, चार दरवाजा, भट्टा बस्ती, हसनपुरा और ईदगाह कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां ट्रैफिक नियम ही नहीं बल्कि बिजली-पानी के नियमों को भी खुले आम तोड़ते देखा जा सकता है.
जयपुर कमिश्नरी में एक पुलिस अधिकारी के मुताबिक अधिकतर मुस्लिम बहुल इलाके संवेदनशील के रूप में चिह्नित किए गए हैं. इन इलाकों में तैनात पुलिसकर्मियों से भी अत्यधिक संयम बरतने को कहा जाता है क्योंकि जरा सी बात पर, मसलन हेलमेट न पहनने का चालान करने पर भी मिनटों में उन्मादी भीड़ इकठ्ठा हो जाना आम बात है. जयपुर में हिंसा की वर्तमान घटना भी इसी पैटर्न की बताई जा रही है.
बिजली-पानी और सैनिटेशन की सुविधा प्रदान करने वाले विभागों के कर्मचारी भी कबूल करते हैं कि मुस्लिम बहुल इलाकों में बहुत से लोग इन सुविधाओं के बदले भुगतान नहीं करते हैं. सुरक्षा की चिंता के कारण तंग गलियों में वसूली के लिए कोई जाना भी नहीं चाहता. और कभी पुलिस जत्थे के साथ पहुंचा भी जाता है तो असामाजिक तत्व इसे सांप्रदायिक रंग देने में कसर बाकी नहीं रखते. हाल ही में दिल्ली रोड पर ग्रीन बेल्ट में अतिक्रमण हटाने के दौरान इसे देखा जा चुका है.
लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है. ये पहलू उस सवाल का उत्तर भी है जिसमें पूछा जाता है कि अधिकतर मुस्लिम इलाके आखिर क्यों पिछड़े, गंदे-बदबूदार और तंगहाल होते हैं. जाहिर है, राजस्व न मिलता देख बहुधा इन इलाकों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता होगा.
भेदभाव का आरोप कितना सही?
कुछ असामाजिक तत्व ये स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि उनके इलाके पिछड़े सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि ये मुसलमानों के हैं. इसमें कोई शक नहीं कि ये निम्नवर्गीय मुस्लिम जब शहर के दूसरे सम्पन्न इलाकों को देखते हैं तो उन्हें भेदभाव की थ्योरी पर सहज ही विश्वास होने लगता है.
हालांकि सच ये है कि इन पिछड़े इलाकों में सम्पन्न मुस्लिम परिवार भी ठीक उसी तरह नहीं रहना चाहते जैसे कोई सम्पन्न हिंदू. सम्पन्न मुस्लिम जयपुर के वैशाली, मालवीय या गांधी नगर के पॉश इलाकों में सम्पन्न हिंदुओं के साथ आसानी से रहते हैं. किदवई नगर तो मुस्लिमों का ही इलाका है जहां पिछड़ेपन की एक भी निशानी नहीं है.
इसके उलट, चांदपोल, गंगापोल, बास बदनपुरा, रामगंज और हसनपुरा में निम्नवर्गीय हिंदू एक मुसलमान के साथ भी घर की दीवार उतने ही आराम से साझा करता है, जितने कि अपने सधर्मी से कर सकता है. जाहिर है, भेदभाव की थ्योरी में कोई दम नहीं है.
क्या पुलिस बचा रही अपना दामन?
फिर सवाल उठता है कि सांप्रदायिक सद्भाव वाले गुलाबी शहर में अचानक ये उन्माद कैसे? दरअसल, जानकार लोग, वर्तमान हिंसा के पीछे पुलिस और प्रशासन की गंभीर लापरवाही को ही मुख्य जिम्मेदार मानते हैं. जबकि पुलिस अपने बचाव में पूरे मामले को भीड़तंत्र की हिंसा का करार देने की कोशिश में है.
पुलिस ने समय रहते एहतियाती कदम उठाए होते तो शायद हालात न बिगड़ते. अगर ये इलाके संवेदनशील हैं तो जाहिर है यहां अतिरिक्त बल तैनात होना चाहिए था. लेकिन विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि रामगंज से कुछ समय पहले ही दंगा निरोधक बल को हटा दिया गया था. जाहिर तौर पर ये हिंसा इंटेलीजेंस का फेलियर भी है.
लापरवाही का आलम ये था कि घंटों तक कोई बड़ा अधिकारी मौके पर नहीं पहुंचा था. जयपुर के चीफ काजी खालिद उस्मानी का भी आरोप है कि पूरा मामला सिर्फ पुलिस की लापरवाही से ही बिगड़ा है.
प्रशासन की कार्यप्रणाली से भी ऐसा लगा जैसे वह ऐसे हालात के लिए तैयार ही नहीं था. हिंसा होते ही पूरे जयपुर में इंटरनेट बन्द कर दिया गया. लेकिन परेशानी होते देख ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्शन चालू कर दिए गए. ये प्रशासनिक अधिकारियों में क्राइसिस मैनेजमेंट स्किल्स की कमी भी दिखाता है.
मेरा मानना है कि हम तेजी से आधुनिक तरीके अपनाने के फेर में बेसिक बातों को छोड़ देते हैं. समस्याओं की जड़ यही है. हिंसा जैसे मसलों से निबटने के लिए बेसिक्स अभी भी फायदेमंद हो सकते हैं, जैसे बीट पुलिसिंग.
अब जबकि हालात तेजी से सुधार की ओर हैं तो ये सही समय है जब पुलिस और प्रशासन अपनी कमियों को दूर करने और जयपुर का सांप्रदायिक सौहार्द्र न बिगड़ने देने की कार्य योजना तैयार करे.