यह टिप्पणी फर्स्टपोस्ट पर 24 नवंबर को प्रकाशित तारिक फतेह के उस लेख पर प्रतिक्रिया है जिसमें शरिया बैंकिंग लागू करने संबंधी भारतीय रिजर्व बैंक के प्रस्ताव को गड़बड़ बताया गया था. मैंने फतह के लेख को दोबारा पढ़ा और समझने की कोशिश की कि वे कहना क्या चाह रहे हैं. ऐसा लगा कि तारिक पूरी तरह भ्रमित हैं.
मुझे निराशा हुई क्योंकि मैंने उनका नाम देखकर एक विश्लेषणात्मक टिप्पणी की उम्मीद की थी, जबकि वह कुछ छिटपुट नुस्खों का एक जोड़ निकला जिसका समग्रता में कोई मतलब नहीं था. यह लेख ऐसा था जैसे कि हवा में कई तीर एक साथ छोड़ दिए गए हों.
तारिक को इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि रिजर्व बैंक इतने बरस से दुनिया भर में जारी इस्लामिक बैंकिंग की कार्यशैली को समग्रता से समझने की कोशिश में कैसे जुटा हुआ है. इस्लामिक बैंकिंग को मंजूरी देने के लिए किए जाने वाले जरूरी कानूनी संशोधनों के बारे में आरबीआइ ने जो विस्तृत अध्ययन किया है, वह बहुत वृहद है. इसके अलावा इसे लागू करने का हालिया नजरिया भी काफी परिपक्व जान पड़ता है.
सूद बनाम ब्याज
तारिक ने अपने लेख में इस्लामिक बैंकिंग के दो आलोचकों को जमकर उद्धृत किया है और ऐसा लगता है कि वे माने बैठे हैं कि इस्लामिक बैंकिंग के विषय पर केवल यही दोनों सच्ची आवाजें हैं. वह इन आलोचकों के तीन निष्कर्ष गिनवाते हैं. पहला यह कि बैंकों में ब्याज का मौजूदा चलन इस्लाम में वर्जित नहीं है बल्कि सूदखोरी वर्जित है.
सूद और ब्याज में इतना सा अंतर है कि सूद अत्यधिक होता है जबकि ब्याज मामूली. विडबंना यह है कि क्रेडिट कार्ड और लघुवित्त के मामले में भारी ब्याज दरों को फिर वे कैसे समझाएंगे? आप इसे ब्याज की श्रेणी में रखेंगे या सूद की श्रेणी में? बहरहाल, क्या तारिक को पता है कि इतिहास में किस शख्स ने इन दोनों के बीच अंतर को स्थापित किया था? ब्याज और सूद का अंतर इंग्लैंड के राजा हेनरी आठवें की देन है जिसे स्थापित करने के लिए उन्होंने 1545 में 'सूदखोरी के खिलाफ एक कानून' बनाया था.
इस्लामिक शरिया का कोई भी प्रतिष्ठित विद्वान ब्याज और सूद के इस अतार्किक अंतर में विश्वास नहीं करता है. तारिक जो दलील दे रहे हैं, वह ऐसे ही है जैसे कम शराब पीना अच्छी बात है लेकिन ज्यादा शराबखोरी वर्जित है.
शरिया के मुताबिक उधार दिए गए पैसे के बदले लिया गया कोई भी अतिरिक्त धन स्वीकार्य नहीं है. ऐसा इसलिए है क्योंकि इस्लामिक न्याय-विचार में मुद्रा महज लेनदेन की एक इकाई है, अपने आप में कोई परिसंपत्ति नहीं है. उसके मुताबिक मुद्रा अपने आप अतिरिक्त मुद्रा को पैदा नहीं कर सकती. मुद्रा से तरक्की हासिल करने के लिए परिसंपत्तियों में उसका निवेश करना होता है.
ब्याज का दूसरा नाम गुलामी
मैं यहां महान ग्रीक दार्शनिक अरस्तू को उद्धृत करना चाहूंगा जिन्होंने 350 ईसा पूर्व लिखे अपने प्रबंध पॉलिटिक्स की पहली पुस्तक के दसवें अध्याय में लिखा है कि ब्याज पर पैसा उधार दिया जाना ही सूदखोरी है. वे लिखते हैं, 'सूदखोरी सबसे ज्यादा नफरत वाली चीज है और उसके वाजिब कारण भी मौजूद हैं क्योंकि उसमें पैसे से ही मुनाफा कमाया जाता है, उससे जुड़े स्वाभाविक उद्देश्य से नहीं. पैसे का इस्तेमाल तो विनिमय के लिए होना था, न कि ब्याज से उसे बढ़ाने के लिए. यह शब्द ब्याज, जिसका मतलब है पैसे से पैसे की पैदाइश, वह पैसे के प्रजनन के लिए लागू होता है क्योंकि बच्चे अपने माता-पिता की शक्ल से मेल खाते हैं. धन प्राप्ति के तमाम माध्यमों में यह सर्वाधिक अप्राकृतिक है.'
भारतीय साहित्य और सिनेमा में एक प्रच्छन्न विषय के तौर पर 'ब्याज' का इस्तेमाल काफी सशक्त तरीके से हुआ है. मुंशी प्रेमचंद की लघुकथा 'सवा सेर गेहूं' को ही ले लीजिए. इसमें बड़ी खूबसूरती से दर्शाया गया है कि ब्याज चाहे कितना ही छोटा और किसी भी स्वरूप में क्यों न हो, वह कैसे एक व्यक्ति को गुलाम बना लेता है. मुझे 'मदर इंडिया' फिल्म का एक दृश्य यहां याद आता है जिसमें सूदखोर सुखी लाला एक गरीब परिवार का 'ब्याज' के माध्यम से शोषण करता है.
ब्याजरहित बैंकिंग
संक्षेप में देखें तो ब्याजरहित बैंकिंग का आकार परिसंपत्तियों के संदर्भ में 2 ट्रिलियन डॉलर का है. करीब 100 देशों में 1000 से ज्यादा ऐसे संस्थान हैं जिनमें बैंक, असेट मैनेजर, निजी इक्विटी फंड और बीमा कंपनियां तक शामिल हैं. ये परिसंपत्तियां सबसे ज्यादा मध्य-पूर्व में केंद्रित हैं, करीब 46 फीसदी, जबकि दक्षिण-पूर्व एशिया में ये 16 फीसदी हैं और बाकी हिस्सा अन्य देशों में स्थित है. इस कारोबार के लिए जो शब्द इस्तेमाल किया जाता है, उसे इस्लामिक बैंकिंग से लेकर ब्याजरहित बैंकिंग और पार्टिसिपेटरी बैंकिंग (सहभागिता बैंकिंग) तक का नाम देते हैं. आज ब्याजरहित वित्तपोषण एक अवधारणा ही नहीं रह गई है बल्कि हकीकत बन चुकी है जिसका चलन पश्चिम में युनाइटेड किंगडम, पूरब में सिंगापुर और दक्षिण एशिया में ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में है.
भारत में भी भागीदारीयुक्त मॉडल पर ब्याजरहित बैंकिंग को काम करने की मंजूरी दी जानी चाहिए ताकि जनता ऐसे वाणिज्यिक लेनदेन का हिस्सा बन सके जो अपनी प्रकृति में सहभागितापूर्ण हो. एक गतिशील आर्थिक वातावरण वह होता है जहां लोगों को विभिन्न वित्तीय माध्यमों के साथ प्रयोग करने के विकल्प दिए जाते हैं. हम उम्मीद करते हैं कि भारत भी ब्याजरहित बैंकिंग के लिए अपने दरवाजे खोलेगा.
आधुनिक गुलाम
आइए, अब कर्ज के मॉडल को भी एक बार देख लें. कर्ज के बुखार को एक नाम दे देते हैं, मसलन कर्जखोरी. इस बुखार के सामान्य लक्षण ये होते हैं कि जब पहली बार कर्ज मिलता है तो व्यक्ति काफी उत्साहित रहता है. उसके दिमाग में इच्छाएं उमड़ने लगती हैं. इसका एक साइड इफेक्ट यह होता है कि वह जमकर खर्च करने लग जाता है. उसका अहं मजबूत होता है और चाल में ठसक आ जाती है. यह बुखार व्यक्ति, कॉरपोरेट या शासक तक किसी को भी लग सकता है.
जब कर्ज चुकाने की तारीख पास आती है और यदि भुगतान में कोई कमी रह गई हो और जिन मामलों में कर्ज चुकाने की स्थिति ही न होती हो, वहां इसका मुख्य साइड इफेक्ट यह होता है कि कर्जखोर का आत्मसम्मान चला जाता है और शर्मिंदगी का अहसास उसके भीतर गहराता जाता है (क्या यह सब सदियों पुरानी गुलामी का ही संकेत नहीं है जो आज हमें आधुनिक आर्थिक गुलामों में देखने को मिलती है?) फिर व्यक्ति छुपने की जगहें खोजने लगता है. अमीर आदमी तो बचकर भाग जाता है लेकिन गरीब आदमी के पास खुदकुशी या मौत को चुनने के सिवाय कोई चारा नहीं रह जाता (इसे समझने के लिए कर्ज से दबे किसानों की बढ़ती खुदकुशी से ज्यादा उपयुक्त कोई उदाहरण नहीं हो सकता).
दलील की दिक्कत
दूसरी आलोचना यह है कि इस्लामिक बैंकिंग और वित्त का मौजूदा चलन विशुद्ध इस्लामिक नहीं है. वास्तव में वह ब्याजयुक्त लेनदेन के ही समान है, बस नामों का फर्क है.
यदि वास्तव में ऐसा ही होता, तो युनाइटेड किंगडम और सिंगापुर जैसे देशों को इस्लामिक बैंकिंग के नए नियम क्यों गढ़ने पड़ते? एक बार को आइए इस पर सहमत हो जाते हैं कि इस्लामिक बैंकिंग परंपरागत बैंकिंग का ही एक प्रतिरूप है. ऐसे में तारिक के उत्तेजित होने की क्या वजह हो सकती है? उन्हें चैन से रहना चाहिए चूंकि जिस इस्लामिक बैंकिंग को मंजूरी देने की बात चल रही है, उसमें कुछ भी नया या अलग नहीं है.
तीसरी आलोचना यह है कि इस्लामिक बैंकिंग ने गरीबी को दूर करने में कोई योगदान नहीं दिया है बल्कि इसके लाभार्थी केवल बैंकर और शरिया के विद्वान रहे हैं. यह तो ऐसे कहना हुआ जैसे कि रेस्त्रां से भूख दूर नहीं होती बल्कि उसके मुख्य लाभार्थी रेस्त्रां मालिक और मैनेजर होते हैं.
किसी भी आलोचना के समर्थन में तर्क, शोध से निकला डेटा और एक तर्कपद्धति होनी चाहिए. तारिक के लेख में मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला. मैं उन्हें मित्रवत सलाह देना चाहूंगा कि हमारे बीच चाहे कितने ही मतभेद क्यों न हों, हमें यह समझना होगा कि भारत के नियामकों ने कई मौकों पर अपने नजरिए में दूरदर्शी समावेश का परिचय दिया है. साथ ही मैं विनम्रतापूर्वक यह भी सुझाना चाहूंगा कि भारत के मुसलमानों को अगर अपने हमदर्दों की तलाश होगी, तो तारिक के नाम पर वे सबसे आखिर में पहुंचेंगे.
(लेखक बहरीन में CITI इस्लामिक के वरिष्ठ अधिकारी हैं)
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