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ना एटमी करार, ना ही एयरक्राफ्ट का सौदा, भारतीय विदेश नीति को हुआ क्या?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की विदेश नीति के एजेंडे में जापान को शीर्ष स्थान पर रखा है

Sreemoy Talukdar

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न्यू इंडिया (नया भारत) के नेता के रुप में अमिट छाप छोड़ने की जितनी कोशिश करेंगे, उतना ही उन्हें आजाद हिंदुस्तान के पहले प्रधानमंत्री की विरासत के विपरीत खड़ा होना पड़ेगा. भारत-जापान 13वें शिखर सम्मेलन की बैठक के निष्कर्षों से एक बार फिर साबित हुआ है कि भारत की विदेश-नीति नेहरूवादी व्याकरण के भीतर ही परिभाषित हो रही है.

अभी चलन रणनीतिक स्वायत्तता के मुहावरे का है लेकिन यह मुहावरा अपने अर्थ के हिसाब से गुट-निरपेक्षता की नीति की झलक देता है. सिद्धांत की मांग है कि भारत चाहे तो किसी एक धुरी की तरफ झुक सकता है और दूसरी धुरी से अलग खिसक सकता है. लेकिन यह झुकाव कभी भी इतना ज्यादा नहीं होना चाहिए कि वह किसी देश के साथ गठबंधन जान पड़े.


दोनों देशों के नेताओं का मन-मिजाज भी मेल खा रहा है

भारत और जापान के बीच हो रहा तकरीबन सारा कुछ आपसी हितों के एक अनोखे जुड़ाव के संकेत कर रहा है— कुछ रणनीतिक अनिवार्यताएं हैं, सुरक्षा से जुड़े एक से जोखिम और चुनौतियां हैं, आगे के समय को लेकर एक सा नजरिया है और दोनों देशों के नेताओं का मन-मिजाज भी मेल खा रहा है. लेकिन जब बात इस रिश्ते में किसी किस्म का वादा करने की आन पड़ती है तो ऐसा जान पड़ता है कि भारत अपने अतीत के बोझ तले वह वादा करने से हिचकिचा रहा हो.

गुरुवार के दिन प्रतिनिधिमंडल स्तर की बैठक के बाद जो संयुक्त बयान सामने आया वह दोस्ती के बनाए गए माहौल से मेल खाता नहीं जान पड़ता—कम से कम नतीजों के लिहाज से. आगे की राह खुलती हुई जान पड़ती है, उसमें साथ-साथ आगे चलने को लेकर उत्साह भी है लेकिन कोई ठोस बात उभरकर सामने नहीं आ रही है. जापान हाईस्पीड रेल-परियोजना के लिए कम सूद पर कर्जा दे रहा है. इस एक चीज के अलावा कोई और ठोस बात सामने नहीं आई है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे (फोटो: पीटीआई)

शिखर सम्मेलन से पहले उद्घाटन-समारोह में नरेंद्र मोदी ने जापान से मिल रहे कर्जे के बारे में कहा कि वह तकरीबन मुफ्त मिल रहा है और उनकी इस बात से असहमत होना मुश्किल है. रेल-परियोजना 1.08 लाख करोड़ की है और इसके लिए कर्ज 88 हजार करोड़ रुपए का लिया जा रहा है जिसे अगले 50 साल में चुकाया जाना है. कर्जे की अदायगी की शुरुआत 15 साल बाद करनी होगी और तब 0.1 फीसदी के नाम-मात्र के सूद पर यह पैसा लौटाना होगा. अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो फिर कर्ज की अदायगी की राशि सचमुच शून्य जान पड़ती है.

सौदे को अमली जामा पहनाने के लिए आपसी रिश्तों की पूंजी लगाई 

सार्वजनिक परिवहन के मामले में ‘बुलेट ट्रेन’ भारत में बहुत कुछ ‘मारुति कार’ सरीखी परिघटना में तब्दील होती है या नहीं, यह तो आगे का वक्त ही बताएगा. लेकिन यह बात बेखटके कही जा सकती है कि मोदी और आबे ने इस सौदे को अमली जामा पहनाने के लिए अपने आपसी रिश्तों की पूंजी भी लगाई है. लेकिन क्या भारत और जापान नाम के दो स्वाभाविक मित्र देश इस लम्हे की अहमियत को अपने हितों के अनुकूल भुनाने में कामयाब हो पाये हैं ? यह सवाल इसलिए भी मौजूं है क्योंकि फिलहाल भारत और जापान दोनों ही देश में सत्ता जिन दो नेताओं ने संभाल रखी है उनके आपसी रिश्ते कामकाजी भर नहीं रह गए हैं, बल्कि औपचारिकता के दायरे को पार कर इन रिश्तों में निजी अपनापन का रंग भी घुल गया है.

लेखक और कार्नेगी इंडिया के निदेशक सी राजा मोहन ने इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने लेख में ध्यान दिलाया है कि भारत-जापान द्विपक्षीय संबंधों में भारत के एटमी परीक्षण के बाद खटास आई थी लेकिन अब अगर ये संबंध फिर गठबंधन की ओर जाते प्रतीत होते हैं तो इसमें बड़ा योगदान आबे और मोदी के निजी रिश्तों की मिठास का भी है.

'प्रधानमंत्री के रुप में अपने पहले छोटे से कार्यकाल 2006-07 के दौरान आबे ने भारत के साथ मजबूत साझेदारी की व्यापक रुपरेखा बनायी. उन्होंने तकरीबन असंभव सा जान पड़ता एक काम तो यह कर दिखाया कि भारत से एटमी ऊर्जा के मसले पर करार करने के लिए जापानी नौकरशाही को तैयार किया और इस करार पर सियासी तबके की सहमति भी हासिल की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस एवज में अपनी भूमिका निभाते हुए भारत की विदेश नीति के एजेंडे में जापान को शीर्ष स्थान पर रखा.'

लेकिन जो संयुक्त बयान जारी हुआ है उससे दोस्तदिली के इस रिश्ते की झलक नहीं मिलती जबकि संयुक्त बयान ही दोनों देशों के रिश्तों की कामकाजी कुंडली है. शायद 12 जापानी यूएस-2आई एंफीबियस एयरक्राफ्ट की खरीदारी इस दिशा में अच्छी शुरुआत साबित हो सकती थी. इस सौदे पर दोनों देशों के बीच 2011 से बातचीत चल रही है लेकिन मोदी सरकार के भरपूर जोर लगाने के बावजूद कीमत और तकनीक के ट्रांसफर को लेकर मतभेद बने रहे और सौदा पूरा नहीं हो सका.

12 विमानों में से प्रत्येक पर कीमत में 10-12 फीसदी की कमी की जाएगी

इस आशय की खबरें आई थी कि पूर्व रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने अपने हाल के टोक्यो दौरे के क्रम में इस सौदे को अंतिम रुप दिया और एयरक्राफ्ट निर्माता कंपनी शिनमेवा कीमत कम करने पर राजी हो गई. हिंदू बिजनेस लाइन में छपी खबर के मुताबिक इस बात पर सहमति बनी थी कि भारत एयरक्राफ्ट की ऑफ द शेल्फ खरीदारी करता है तो 12 विमानों में से प्रत्येक पर कीमत में 10-12 प्रतिशत (100 मिलियन डॉलर के मूल्य पर) की कमी की जाएगी. भारत हिंद महासागर में अपनी नौसेना को खोज और बचाव की बेहतर क्षमता वाले उपकरणों से लैस करना चाहता है. इस नाते भारत के मन में था कि तकनीक का ट्रांसफर होता है तो वह 18 और एयरक्राफ्ट तैयार कर लेगा. इस सौदे पर आबे के भारत दौरे के समय मंजूरी की मुहर लगने की उम्मीद थी.

लेकिन संयुक्त बयान में इस सौदे के बारे में चर्चा नाम मात्र की है. बस इतना भर लिखा है कि 'जापान अपना अत्याधुनिक यूएस-2 एम्फीबियन एयरक्राफ्ट देने को उत्सुक है. जो कि दोनों देशों के बीच गहरे आपसी विश्वास का प्रतीक है और दोनों देश इस मुद्दे पर बातचीत जारी रखने के लिए राजी हो गए हैं.'

यह बात 2016 में जारी संयुक्त बयान से ज्यादा अलग नहीं है. तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जापान दौरे पर गए थे. उस समय संयुक्त बयान में कहा गया कि: 'प्रधानमंत्री ने अत्याधुनिक रक्षा प्रणाली यूएस-2 एंफीबियन एयरक्राफ्ट देने की जापान की उत्सुकता की सराहना की. यह दोनों देशों के गहरे आपसी विश्वास और रक्षा मामलों में आपसी लेन-देन को लेकर दोनों देशों के बीच कम होती दूरी का प्रतीक है.'

बाद में, एक प्रेस सम्मेलन में विदेश सचिव एस जयशंकर ने इस मुद्दे पर तफ्सील से ना बताते हुए मात्र इतना कहा कि मसले पर: 'गंभीर बातचीत जारी है. मैं इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता क्योंकि बातचीत करने वालों में मैं शामिल नहीं हूं.'

अहमदाबाद-मुंबई रूट पर जापान की मदद से बुलेट ट्रेन का निर्माण हो रहा है

भारत-जापान में नौकरशाही का अड़ियलपना बहुत व्यापक है

हालांकि जापान में नौकरशाही के भीतर अड़ियलपना बहुत व्यापक है लेकिन भारत में भी यह समस्या बहुत गहरी है. अगर एयरक्राफ्ट का सौदा हो गया रहता तो जापान के साथ रक्षा मामलों में साझेदारी के रिश्ते की औपचारिक शुरुआत हो जाती. जापान ने तकरीबन एक दशक से भारत को होने वाले रक्षा उपकरणों के निर्यात पर रोक लगा रखा है. वह चाहता है कि यह रोक जितनी जल्दी हो सके, हट जाय. इसके अतिरिक्त, सौदा पट जाता तो उससे द्विपक्षीय रणनीतिक और वैश्विक साझेदारी के रिश्ते को भी ताकत मिलती, भारत अमेरिका की अगुवाई वाले राष्ट्रों की धुरी के ज्यादा नजदीक आता. इससे भारत के अमेरिका से रिश्ते और ज्यादा मजबूत होते. लेकिन अपने को अलग-थलग रखने की नीति भारत में सांस्थानिक रुप ले चुकी है. रणनीतिक और सैन्य मामले में भारत को गठबंधन बनाने में संकोच होता है. भारत को लगता है कि ऐसा कोई गठबंधन बनाने से रणनीतिक स्वायत्तता का दायरा सीमित हो जाएगा.

सिविल एटमी सौदे के मामले में भी ऐसा ही संकोच कायम है, इस दिशा में नाम-मात्र की प्रगति हुई है. खबरों के मुताबिक भारत जापानी कंपनियों के साथ एटमी ऊर्जा के मामले में सहयोग को तैयार था. संयुक्त बयान में कहा गया है : 'दोनों प्रधानमंत्रियों ने भारत और जापान के बीच शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए एटमी ऊर्जा के इस्तेमाल के मामले में सहयोग के करार पर होने वाली प्रगति पर संतोष जताया. दोनों प्रधानमंत्रियों को उम्मीद है कि एक कार्यसमूह इस क्षेत्र में द्विपक्षीय सहयोग को मजबूत बनाएगा और दोनों ने इस बात पर सहमति जताई कि यह करार स्वच्छ ऊर्जा, आर्थिक विकास तथा सुरक्षित विश्व के लिहाज से आपसी विश्वास और रणनीतिक साझेदारी के एक नए स्तर की सूचना देता है.'

नरेंद्र मोदी ने अपनी विदेश नीति के एजेंडे में जापान को टॉप पर रखा है

एटमी ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल से संबंधित करार का स्वागत 

पिछले साल मोदी और आबे ने 'भारत और जापान के बीच एटमी ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल से संबंधित करार का स्वागत किया. इससे स्वच्छ ऊर्जा, आर्थिक विकास तथा सुरक्षित विश्व के लिहाज से आपसी विश्वास और रणनीतिक साझेदारी के एक नए स्तर की झलक मिली थी.'

आबे ने कानून बनाने वालों को यह समझाने में अपनी बड़ी ऊर्जा लगाई है कि वो एटमी ऊर्जा के मामले में भारत के प्रति शंका-संदेह की अपनी मानसिकता को छोड़ दें. नौकरशाही का अड़ियल रुख ज्यादातर भारत की तरफ से है. भारतीय नौकरशाही किसी मामले में देर करने, उसे लटकाए रखने को बहुत उपयोगी मानकर चलती है.

अगर नरेंद्र मोदी अपने को एक श्रेष्ठ राजनेता के रुप में देखते हैं—और यह बड़ा जाहिर है कि वे अपने को श्रेष्ठ राजनेता समझते हैं—तो उन्हें नौकरशाही को उसकी कुंडली मारकर मसले पर बैठे रहने की आदत से उबारना होगा. यह तभी होगा जब साऊथ ब्लॉक में बैठे बाबू लोग मौजूदा भू-राजनीतिक परिवेश को नेहरूवादी चश्मे से देखना बंद करेंगे. एशिया का माहौल ज्यादा साहस और संकल्प के साथ कदम उठाने की मांग कर रहा है.