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'आजादी' से ज्यादा हमें 'स्वराज' की जरूरत है

स्वराज को अगर एक मंजिल माना जाए तो, हमें सोचना होगा कि हम अपने लक्ष्य से अभी कितना दूर हैं.

Rajni Bakshi

देश को आजादी मिले और एक लोकतंत्र बने हुए 70 साल हो गए, लेकिन विडंबना है कि आजादी का आह्वान कड़वे संघर्षों से भरा रहा है. वो चाहे विश्वविद्यालयों के कैंपस हों या कश्मीर घाटी में जारी संघर्ष, सभी जगह आजादी की आवाज बुलंद है. लेकिन आजादी की मांग करते इन सुरों को कड़ी चुनौती भी मिल रही है, और उन्हें राष्ट्र विरोधी करार दिया जा रहा है.

कहना गलत न होगा कि स्वराज को सार्वजनिक परिप्रेक्ष्य में शायद ही कभी लागू किया जाता है. ये एक ऐतिहासिक कलाकृति की तरह लगने लगा है, या फिर स्वतंत्रता संग्राम की धुंधली होती जा रही तस्वीर जैसा. आजादी की तरह स्वराज हमारे जुनून और जज्बे को सही ढंग से पेश नहीं करता है, फिर भी, स्वराज का विचार और उसकी अवधारणा हमारे वर्तमान और भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है.


आजादी और स्वराज में फर्क

पहली बात तो ये कि आजादी के लिए ये जरूरी नहीं है कि वो स्वराज को सुनिश्चित करें. और दूसरी बात ये कि 70 साल का हो चुका स्वराज हमें एक राष्ट्र या वैश्विक अर्थव्यवस्था के बजाए एक मजबूत समाज के रूप में बेहतर तरीके से दिखाता है.

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अपनी तमाम चमक-दमक के बावजूद आजादी का महत्व स्वराज से ज्यादा नहीं, आजादी शब्द अक्सर किसी व्यक्ति, व्यवस्था या विचार से आजादी की मांग करता है, जबकि स्वराज का अर्थ है, अपने भविष्य पर नियंत्रण के लिए व्यक्तिगत या किसी संस्था की सामूहिक चेतना की आजादी.

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान की तस्वीर

आजादी, वो चाहे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में हो या प्रक्रिया के रुप में, आसानी से एक व्यक्ति या समूह की संकीर्ण कामनाओं या शिकायतों तक सीमित हो सकती है. लेकिन स्वराज में निहित आजादी हमें अपने जुनून पर नियंत्रण रखना सिखाती है. और इस तरह ये समग्र दृष्टिकोण हमें अपने कर्तव्यों और अधिकारों प्रति मुकाबले को प्रेरित करता है.

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इसलिए स्वराज के विरोधी न सिर्फ अपनी आजादी का नुकसान करते हैं, बल्कि दूसरों पर नियंत्रण की इच्छा भी रखते हैं. लोगों की जिंदगी और उनके व्यवहार पर नियंत्रण के लिए उनपर नजर रखना इस सोच की पराकाष्ठा है.

बापू का स्वराज

बेहतर सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध कराने के नाम पर आर्थिक शक्ति पर ध्यान केंद्रित करना भी इसका एक अतिवादी रूप है, जो आम लोगों को किसी पहल से रोकने या उनकी सामूहिक चेतना की क्षमताओं को सीमित करने का काम करती है. इसी वजह से महात्मा गांधी का स्वराज का विचार लोगों के नागरिक के तौर पर उनके कर्तव्यों पर केंद्रित था. गांधी जी का मानना था कि, अपने कर्तव्यों का पालन किसी भी व्यक्ति की सबसे बड़ी पहल होती है, इससे अपने साथ-साथ दूसरों के अधिकारों की भी रक्षा होती है.

बेशक, गांधीजी के स्वराज की भौतिक अवधारणा एक स्वप्नलोक जैसी थी. उनकी तमन्ना थी कि, कोई किसी का दुश्मन न रहे, सब लोग एक साझा उद्देश्य के लिए अपना योगदान दें, हर कोई पढ़-लिख सके, सभी रोगियों को इलाज मिले और बीमारियां कम से कम हो जाएं, कोई भी गरीब न रहे, मजदूरों को हमेशा रोजगार मिले, और अमीर लोग अपनी दौलत को दिखावे की बजाए समझदारी से खर्च करें.

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स्वराज को अगर एक मंजिल माना जाए तो, हमें न्यायसंगत तरीके से सोचना होगा कि हम अपने लक्ष्य से अभी कितना दूर हैं. और अगर हम स्वराज को एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं, तो हमें इसके गुण-दोषों की छानबीन की जरूरत है, ताकि सभी अड़चनें दूर हों और विकास का रास्ता साफ हो सके.

कैसे लागू होगा लक्ष्य?

स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भारत की समीक्षा इस बात पर केंद्रित हो सकती है कि उपरोक्त सभी और बाकी के लक्ष्य, संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल करके किस तरह से हासिल किए जा सकते हैं, हमें इस बात की चिंता नहीं करनी है कि आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां इस प्रक्रिया को लेकर कितना गंभीर हैं.

इसके विपरीत, 70 साल के स्वराज की समीक्षा फिलहाल वितरण योग्य वस्तुओं और सेवाओं पर नहीं बल्कि लोगों की अपनी भावनाओं की वृद्धि और शक्ति के अतिरेक की रोकथाम पर केंद्रित है.

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इस तरह से, बातचीत का ये सिलसिला जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में लोगों तक पहुंच गया है. हर चर्चा इस बात से शुरू होती है कि, स्वराज का विचार आखिर है क्या, और फिर ये चर्चा स्वराज की स्थिति का पता लगाने के लिए वित्त, राजनीति, कृषि, मानवाधिकार, खाद्य संप्रभुता, संस्कृति, संघर्ष के समाधान जैसे मुद्दों तक पहुंच जाती है.

स्वराज की प्रक्रिया भारतीय समाज में रोजगार और नौकरियों में व्यापक प्रतिनिधित्व से परे है. इसके बावजूद, स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अगले कुछ दिनों में जो भी चर्चाएं होंगी, वो स्वराज के निर्माण की विभिन्न प्रक्रियाओं और अलग-अलग दृष्टिकोणों को उजागर करेंगी. साथ ही हमें दर्द और उम्मीदों की झलक भी देंगी.