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कानून और संविधान का मजाक है राष्ट्रगान वाला फैसला

अपने निजी समय में लोगों को राष्ट्रगान के लिए खड़े होने को मजबूर करना बेतुका है

Alok Prasanna Kumar

राष्ट्रगान मामले में सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश पर सवाल ही सवाल उठ रहे हैं. अपने निजी समय में लोगों को राष्ट्रगान के लिए खड़े होने को मजबूर करना कितना बेतुका है, द वायर, द क्विवंट और फ़र्स्टपोस्ट में इस बात को उठाया गया है ( यहां तीन अलग-अलग खबरों से इस फैसले को समझें).

इस बात को छोड़िए कि ऐसा आदेश कानूनी रूप से ठीक है या नहीं,  बल्कि जो निर्देश दिए गए हैं, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं. उन्हें लागू करना मुश्किल होगा. इनके जरिए अदालत की समझ पर सवाल खड़े हो सकते हैं. ऐसा लगता है जैसे इसका कानून से सरोकार नहीं है. ये लेख इन निर्देशों को समझने की कोशिश करेगा कि उनका क्या मतलब है.


याद रखिए, इनमें से किसी निर्देश का कानूनी आधार नहीं है, कोई कानून नहीं है जो इनके जरिए लागू हो रहा है और न ही ऐसा कोई मौलिक अधिकार है, जिसकी रक्षा के लिए इस तरह का कानून बनाना पड़े.

फिर भी अदालत को कौन रोक सकता है, जिस पर आरोप है कि वह कभी-कभी एक साथ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिका में आ जाती है और अपने पास संविधान से भी इतर शक्तियां होने का दावा करती है. ऐसी ही शक्तियां पूर्ण तानाशाही की निशानी होती हैं.

सुपर सेंसर

पहला निर्देश है, 'इसे किसी ऐसे व्यावसायिक काम के लिए इस्तेमाल न किया जाए जिससे वित्तीय फायदा या किसी और तरह का लाभ होता हो.' अगर ये आपको नाकाफी (ये नाकाफी है?) लगता है तो अदालत ने यह भी कह दिया है कि 'राष्ट्रगान को इस तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए कि उससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा व्यक्ति व्यवासायिक या अन्य तरह कोई लाभ उठा पाए.'

इस 'स्पष्टीकरण' से और सवाल उठते हैं. क्या यह बात मानने लायक है कि राष्ट्रगान को गाने वाले या उस पर परफॉर्म करने वाले व्यक्ति को पैसा न दिया जाए? क्या राष्ट्रगान से जुड़ी परफॉर्मेंस पर किसी कलाकार का कॉपीराइट अपने आप खत्म हो गया?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब बात राष्ट्रगान की आती है तो बुनियादी अधिकारों और स्वतंत्रताओं की 'संवैधानिक रूप से अनुमति नहीं है'. क्या इसका यह मतलब है कि (अनुच्छेद 23 के तहत) बंधुआ मजदूरी पर रोक या फिर (अनुच्छेद 300-ए के तहत) संपत्ति के अधिकार अब लागू नहीं रहेंगे? हमें नहीं पता और राज्य सरकारें अपनी मर्जी से इसकी व्याख्या के लिए स्वतंत्र हैं. इसलिए अगर आपके कुछ बुनियादी अधिकार है और आप उन्हें लागू कर रहे हैं तो हमारी शुभकामनाएं हैं.

अगला निर्देश तो राष्ट्रीय सम्मान के अपमान का रोकथाम अधिनियम, 1971 से भी परे चला जाता है. राष्ट्रगान किसी फिल्म, नाटक या किसी तरह के शो का हिस्सा नहीं बन सकता. यह बिल्कुल स्पष्ट संकेत है कि जस्टिस दीपक मिश्रा इस बात से नाराज हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने 'कभी खुशी कभी गम' फिल्म पर बैन लगाने के अपने पहले के फैसले को पलटने का दुस्साहस किया था.

फिल्म पर बैन राष्ट्रगान इस्तेमाल करने के लिए लगा था. लेकिन अब उन्होंने पूरे देश के लिए इसे कानून बना दिया है. अधिकार और पुरानी मिसालें जाएं भाड़ में. सिनेमेटोग्राफ अधिनियम 1952 और केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को भूल जाइए, अब नया सुपर सेंसर आ गया है और इसके आदेशों पर कोई अपील नहीं होगी.

निजाम का फरमान

अगली बात, जस्टिस मिश्रा ने राष्ट्रगान के प्रति या उसके कुछ निश्चित शब्द प्रकाशित करने पर भी रोक लगा दी है. बेशक ये एक निर्देश का तार्किक निष्कर्ष है, जिसके अनुसार 'राष्ट्रगान या इसका कोई हिस्सा किसी भी वस्तु पर प्रिंट नहीं किया जा सकता और ना ही उसे ऐसी जगहों पर इस तरह प्रदर्शित किया जा सकता है जो इसकी प्रतिष्ठा के लिए असम्मानजक और अपमान के समान हों'.

अगली लाइन तो बिल्कुल ही समझ से परे है. मैंने इसे कई बार पढ़ा, लेकिन फिर भी इन शब्दों का मतलब नहीं समझ पाया, 'इसके साथ जो प्रोटोकॉल की अवधारणा जुड़ी है, उसकी जड़ें राष्ट्रीय पहचान, राष्ट्रीय एकता और संवैधानिक देशभक्ति में हैं.'

सबसे स्पष्ट निर्देश अगला वाला है. मानो इसमें निजाम की तरह फरमान जारी किया गया हो कि सभी सिनेमाघरों को फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाना होगा और बूढ़े, कमजोर, विकलांग या बस थके हुए, सभी लोगों को खड़ा होना पड़ेगा.

अदालत ने यह नहीं बताया है कि वह किस तरह इस निर्देश को लागू कराने की उम्मीद करती है. हो सकता है कि उसे भी न पता हो, या परवाह ही न हो. शायद यह बात वो 'देशभक्त' नागरिकों पर छोड़ना चाहती है कि जो भी तरीका हाथ लगे उसके जरिए वे अपने साथी बूढ़े, कमजोर, विकलांग या बस थके हुए नागरिकों में देशभक्ति का संचार करें.

अपने ही फैसले की अनदेखी

अगले निर्देश में मांग की गई है कि जब राष्ट्रगान चल रहा हो तो अंदर आने और बाहर जाने के रास्ते बंद कर दिए जाने चाहिए.

इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने उपहार अग्निकांड मामले में दिए गए अपने ही फैसले की अनदेखी की है. इस फैसले में सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि किसी भी स्थिति में सिनेमा के दरवाजों को बाहर से बंद नहीं किया जा सकता.

शायद इस बात पर भी विचार करना चाहिए. संस्थाओं के बनाए नियमों से विपरीत भौतिकी के नियमों को सिर्फ एक न्यायिक आदेश के जरिए रोका या खत्म नहीं किया जा सकता. अगर आग लगती है तो दुनिया की कोई भी देशभक्ति आपको बंद कमरे में जल कर मरने से नहीं बचा सकती.

इसके बाद, अदालत कानून बनाने वाले की भूमिका से निकल कर एक निर्देशक का हैट पहन लेती है और मांग करती है कि जब राष्ट्रगान बज रहा हो तो पर्दे पर राष्ट्रीय ध्वज की तस्वीर होनी चाहिए. अब यह साफ नहीं है कि झंडे की स्थिर तस्वीर चल जाएगी या फिर झंडा देशभक्तिपूर्ण तरीके से लहराना भी चाहिए.

आखिरी निर्देश है कि राष्ट्रगान को पूरा चलाना होगा, छोटा नहीं किया जा सकता है.

यह निर्देश गृह मंत्रालय के आदेश की अनदेखी करता है जिसमें वे अवसर बताए गए जब संक्षिप्त राष्ट्रगान गाया जा सकता है. लेकिन इस आदेश को बदलना तो कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि सरकार वैसे भी इस बात से बहुत खुश है कि अदालत ने बिल्कुल नए नियम बना दिए हैं.

भरोसे पर चोट

ऐसा कोई वैधानिक तर्क या कानून नहीं है जिसका हवाला इन निर्देशों को सही ठहराने के लिए दिया गया हो. ये पूरी तरह एक जज के निर्णय से बनाए गए हैं, केंद्र सरकार (के आग्रह पर नहीं तो) के साथ मिलकर. अगली बार अगर सरकार में से कोई 'न्यायपालिका के अपने दायरे से बाहर जाने' की शिकायत करे तो उन्हें शायद इन निर्देशों के बारे में बताया जाना चाहिए. यहां सरकार ने मर्जी से अपनी जिम्मेदारी और शक्तियों को त्याग दिया है.

किसी भी बिंदु पर अटॉर्नी जनरल ने अदालत की तरफ से इन आदेशों को पारित करने पर जरा सी भी आपत्ति नहीं की. किसी बिंदु पर अदालत से सवाल नहीं किया गया कि आप यह क्या करने जा रहे हैं. शायद केंद्र सरकार जानती थी कि उसके पास ऐसी कोई ताकत नही है कि वह लोगों से उनके निजी समय में जबरदस्ती राष्ट्रगान गवा सके और इस तरह उसने साठगांठ कर एक न्यायिक फरमान जारी करवा लिया. इस बात का हमें पक्के तौर पर कभी नहीं पता चल पाएगा लेकिन इस तरह की साठगांठ एक संस्थान के तौर पर अदालत के स्वतंत्र होने के भरोसे को हिलाती है.