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#MeTooVSAkbar: इस अभियान को जिंदा रखना है सबसे बड़ी चुनौती

आरोप लगाने वाली सभी महिलाएं इरा त्रिवेदी की बात को मान लेती हैं तो इससे इस अभियान की न सिर्फ़ असामयिक मौत हो जाएगी, बल्कि महिलाओं के अधिकार में लड़ी जा रही लड़ाई को हम जाने-अंजाने सौ साल पीछे धकेल देंगे

Swati Arjun

विदेश राज्यमंत्री एमजे अक़बर के अफ्रीका से देश लौटने, घर आने के बाद पद से इस्तीफ़ा देने की अफ़वाह को हवा देने, प्रेस कॉन्फ्रेंस करने, फ़िर इस्तीफ़ा देने की गुंजाइश को ख़त्म करने, आरोप लगाने वाली महिलाओं के खिलाफ़ लीगल एक्शन लेने का निर्णय सुनाने तक के दौरान लगभग एक हफ़्ते से चल रहा 'मी-टू' अभियान का पहला पड़ाव आज पूरा हो गया है.

लेकिन, अब ये अभियान या आंदोलन, चाहे हम जिसे जो कहना चाहें, वो दूसरे दौर में पहुंच गया है और यहां से लड़ाई न सिर्फ़ पहले से ज़्यादा तेज़ बल्कि गंभीर भी होती जाएगी. उम्मीद के अनुसार ही, सब कुछ हो रहा है. अक़बर आए फ़िर इस्तीफ़ा देने न देने का संशय बनाया, आरोपों को मनगढ़ंत और साज़िश करार दिया, इसे चुनाव से जोड़ा और अपने वकीलों को काम पे लगा दिया. इन सब के बीच ये हुआ है कि पीएमओ को जो इस्तीफ़ा उनके सुबह दिल्ली पहुंचकर भेजने की अफ़वाह फैली थी, वो कोरी अफ़वाह ही रह गई और इसपर कोई स्पष्टता नज़र नहीं आई.


वैसे भी अक़बर सिर्फ़ इस्तीफ़ा भेज सकते थे, स्वीकार करना या न करना ये सरकार और प्रधानमंत्री का फ़ैसला होता. हो सकता है वो स्वीकार हो जाता या हो सकता है स्वीकार नहीं होता ! विदेश राज्यमंत्री ने जो भी दलीलें अपने पक्ष में और पीड़ित महिलाओं के दावों के खिलाफ़ दिया है, वो पूरी तरह से उचित है वो उनका अधिकार भी है और उनकी दिलेरी भी.

मानसिक यातना के डर से औरतों ने या तो आवाज नहीं उठाई या अपना कामकाजी ठिकाना ही बदल लिया

उनके जैसा शख़्स जिसने एक नहीं देश के तीन-तीन प्रमुख़ अख़बारों का नेतृत्व किया हो, जो अपनी विद्वता के लिए जाना जाता हो, जिसकी उदार छवि की मिसाल दी जाती हो, जो विदेश मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय का राज्यमंत्री हो उस व्यक्ति से हम इतना तो उम्मीद कर ही सकते हैं. अगर, अक़बर ऐसा नहीं करते, तो तब वो निराशाजनक होता. जैसा कि किसी ने कहा कि आरोप तो भगवान कृष्ण पर भी लगे थे; और ये सच भी है, आरोप तो आरोप ही हैं चाहे वो सोशल मीडिया के प्लैटफॉर्म्स पर हों या निजी ज़िंदगी में.

इसलिए, अक़बर का रवैया बिल्कुल भी अप्रत्याशित नहीं है. आगे बढ़ने से पहले ये ज़रूरी है कि हम कम से कम शब्दों में ये समझ लें कि ये अभियान शुरू क्यों हुआ, या फ़िर इसको शुरू करने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई?  इससे हमें क्या फ़ायदा होगा और आने वाले दिनों में ये कैसे दफ़्तरों में काम करने वाली महिलाओं की ज़िंदगी में फ़र्क लाएगा. मी-टू कैंपेन की ज़रूरत इसलिए थी, कि अगर कोई आदमी औरतों के साथ आपराधिक और आपत्तिजनक व्यवहार करने का आदि था, तो वो ये कई-कई सालों से कर रहा था.

जितने भी आरोपियों के नाम सामने आए हैं, उनके ऊपर एक से ज़्यादा महिलाओं ने आरोप लगाए हैं. जैसे एमजे अक़बर पर चौदह महिलाओं ने तो आलोक नाथ पर 7-8 अभिनेत्रियों ने. तो देखा जाए तो इन पुरुषों का ये व्यवहार आमतौर पर 15-20 सालों तक चलता रहा है. वे अपनी सफ़लता, ऊंची पोजिशन, रसूख़ और नेटवर्किंग के बूते ये सबकुछ सालों से करते आ रहे हैं, और उनकी शिकार एक नहीं कई-कई महिलाएं होती आ रहीं हैं. इन सभी पीड़ित महिलाओं ने सुरक्षा, इज्ज़त, बदनामी होने, नौकरी जाने और मानसिक यातना के डर से या तो आवाज़ नहीं उठाई या अपना कामकाजी ठिकाना बदल लिया.

मी-टू कैंपन ने दरिंदों की पहचान करने का बड़ा और असाध्य काम किया 

लड़कियां बदल गईं,नाम बदले गए,संस्थान बदल गए लेकिन, जो प्रिडेटर है वो नहीं बदला. क्योंकि, उसके खिलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठ रही थी. लोग उसके ओहदे,उसकी रसूख़ और उसके पैसे के सामने चुप थे. वो अपना शिकार कर के वापिस, अपनी चकाचौंध, पैसे और सामाजिक-राजनीतिक वैभव वाली दुनिया में लौट जा रहा था. जहां उसे कोई भी पहचान नहीं पा रहा था.

मी-टू कैंपन ने इन्हीं रेगुलर या आदतन प्रिडेटर्स या दरिंदों की पहचान करने का बड़ा और असाध्य काम किया है. उन्हें चिन्हित किया है.उनकी तरफ़ पत्थर फेंका है.दुनिया को बताया है कि देखो इसने मेरे साथ ऐसा किया है तो तुम्हारे साथ भी कर सकता है, इसलिए महिलाओं सावधान हो जाओ, अपनी बच्चियों को इनसे बचाकर रखो !

मी-टू कैंपेन ने इन यौन अपराधियों को संदेश दिया है कि देखो अब हम शर्म के कारण चुप नहीं रहेंगे,अब हम अपने साथ हुए ग़लत व्यवहार के लिए ख़ुद को दोषी नहीं समझेंगे,अब हम दफ़्तर नहीं बदलेंगे,अब हम अवसाद में नहीं जाएंगे. ‘मी-टू’ ने  ‘ब्रेक-द-आईस’ यानी पीड़ितों द्वारा पहल करने की प्रक्रिया की शुरुआत कर दी है.

हम अगले दौर की लड़ाई के लिए तैयार होना होगा

लेकिन, आगे हम महिलाओं को बहुत ही सावधानी से आगे बढ़ना होगा, हमें अपनी ऊर्जा,अपनी ताक़त,अपने उत्साह को बचाकर रखना होगा. हम अब तक जिन कमज़ोरियों के आगे हार जाते थे उससे बचना होगा. जैसा कि लेखिका इरा त्रिवेदी ने आज एक टीवी-शो में कहा कि वे चेतन भगत या सुहेल सेठ के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई नहीं करना चाहती हैं, वो नहीं चाहती हैं कि ये लोग जेल जाएं, वे बस ये चाहती हैं कि इन हाई-प्रोफाईल लोगों को लिटरेरी कार्यक्रमों या फेस्टिवल्स से अलग-थलग कर दिया जाए, उन्हें महत्वपूर्ण पोज़िशंस पर न रखा जाए आदि .

अगर, आरोप लगाने वाली सभी महिलाएं इरा त्रिवेदी की बात को मान लेती हैं तो इससे इस अभियान की न सिर्फ़ असामयिक मौत हो जाएगी, बल्कि महिलाओं के अधिकार में लड़ी जा रही लड़ाई को हम जाने-अंजाने सौ साल पीछे धकेल देंगे. हम मज़ाक के पात्र बनेंगे सो अलग. हम अपनी आवाज़ खो देंगे. इसके बजाए ये ज़रूरी है कि हम अगले दौर की लड़ाई के लिए तैयार रहें, जहां ज़रूरी हो वहां एफआईआर दर्ज कराएं (आख़िर अक़बर यही तो कह रहे हैं कि उनके ख़िलाफ़ कोई केस नहीं है), जहां पुलिस ‘सू-मॉटो कॉग्निज़ेंस’ के तहत केस दर्ज करती है वहां जाकर गवाही दें, इसके लिए जो थोड़ी-बहुत तकलीफ़ चाहे वो नौकरी में हो, कम अवसर मिलने के हों या कुछ और उसे झेलने के लिए ख़ुद को तैयार रखें लेकिन इस तरह से, इतनी कमज़ोर और क्षीण अप्रोच से इस अभियान को मरने न दें.

सभी महिलाओं को ये ध्यान रखने की ज़रूरत है कि इस लड़ाई में जो भी महिलाएं सामने आ रहीं हैं, जो लड़ रही हैं.जो बोल रहीं हैं वो असल में आने वाली पीढ़ी के रास्ते में दीया जलाने का काम कर रही है. ये लड़ाई बहुत ज़रूरी है, और इसे ज़िंदा रख़ना हम सबका फर्ज़, अगर हम आज कमज़ोर पड़ गए तो हो सकता है कि कल को अक़बर का इस्तीफ़ा तो बहुत दूर की बात है, वो वास्तव में इस देश के शहंशाह न बन जाएं.