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राजस्थान के तक्षशिला में ‘तांडव’ और मंत्री का ‘मौन’

कोटा में डेंगू की वजह से इस साल अब तक 100 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. जबकि हाड़ौती संभाग में 165 लोगों ने इससे अपनी जान गंवाई है

Mahendra Saini

कभी डेंगू दिल्ली को डराता था. 20 साल पहले डेंगू नाम की बीमारी और इसके मौत बनकर कहर बरपाने की परिघटना मैंने पहली बार देश की राजधानी दिल्ली में देखी-सुनी थी. डेंगू आज भी खतरनाक है. डेंगू आज भी जान ले रहा है. लेकिन अब खबरें बड़े पैमाने पर नहीं बन पाती तो सिर्फ इसलिए क्योंकि अब डेंगू का डंक उन इलाकों में ज्यादा मौत बांट रहा है जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की नजर में कम टीआरपी वाले हैं. मीडिया में खबर नहीं बन पाती तो न हंगामा होता है और न कोई बुद्धिजीवी इसे फिक्र जाहिर करने लायक समझता है.

राजस्थान के तक्षशिला कहे जाने वाले कोटा शहर में मेडिकल, इंजीनियरिंग जैसी परीक्षाओं के लिए देश भर से छात्र यहां कोचिंग लेने आते हैं. एक अनुमान के अनुसार कोटा में बाहर से आए लगभग 2 लाख बच्चे कोचिंग ले रहे हैं. माता-पिता बेहतर भविष्य के सपनों को पूरा करने के लिए बच्चों को कोटा भेजते हैं. लेकिन यहां डेंगू इन सपनों को पूरा होने से पहले ही खत्म कर रहा है.


कोटा, राजस्थान के हाड़ौती संभाग का मुख्यालय है. इस संभाग में कोटा जिले के अलावा मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनके सांसद बेटे दुष्यंत सिंह का क्षेत्र झालावाड़, बूंदी और बारां जिले आते हैं. इसके बावजूद हाड़ौती संभाग में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर सरकारी गैर-जिम्मेदार दिखती है.

लाडपुरा से विधायक और पूर्व मंत्री भवानी सिंह राजावात कहते हैं कि इस साल अब तक डेंगू कोटा में 100 लोगों की जान ले चुका है जबकि पूरे हाड़ौती की बात करें तो ये आंकड़ा 165 से भी ज्यादा बैठता है. इतने लोगों की जान अगर राजधानी शहरों मसलन, जयपुर या दिल्ली में जाती तो शायद हाहाकार मच चुका होता. कम से कम स्वास्थ्य महकमा संभाल रहे मंत्री जी को इस्तीफा तो देना ही पड़ जाता.

बीजेपी विधायक ने किया मंत्री का ‘बहिष्कार’

जैसा कि सत्ता पक्ष के विधायक बता रहे हैं, कोटा में डेंगू से उपजे हालात चिंताजनक हैं. डेंगू, चिकनगुनिया और स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियां अकेले इसी शहर के लिए खतरा नहीं हैं. कोटा कोचिंग नगरी है और दिल्ली-मुंबई जाने वाले रेल मार्ग का महत्वपूर्ण शहर भी. अगर कोई छात्र बीमार होकर अपने शहर जाएगा या बाहर का यात्री कोटा में आकर फ्लू से पीड़ित होगा तो सोच सकते हैं कि ये संक्रमण दूसरे शहरों में कितनी आसानी से कहर बरपा सकता है.

लेकिन हालात की गंभीरता को समझने के बजाय जिम्मेदार लोग या तो आपस में ही उलझ रहे हैं या फिर गैर जिम्मेदाराना रवैया अपना रहे हैं. आरोप-प्रत्यारोप का खेल सत्ता और विपक्ष में नहीं बल्कि सत्तारूढ़ बीजेपी के नेताओं में ही चल रहा है. चिकित्सा मंत्री आंकड़ों का हवाला देकर बेफिक्र हैं तो स्थानीय जनप्रतिनिधि उनके बायकॉट की सीमा तक चले गए हैं.

दरअसल, 2 नवंबर को चिकित्सा मंत्री कालीचरण सराफ कोटा दौरे पर आए थे. यहां उन्हें डेंगू, स्वाइन फ्लू और दूसरी मौसमी बीमारियों के प्रकोप पर चर्चा करनी थी. इस दौरान जनप्रतिनिधियों के साथ बैठक में मंत्री जी को लेने के देने पड़ गए. लगभग सारे जनप्रतिनिधियों ने उन्हें आड़े हाथों लेना शुरू कर दिया. हालात यह हो गए कि लाडपुरा के विधायक भवानी सिंह राजावत तो गुस्से में बैठक छोड़कर ही चले गए.

तस्वीर: कालीचरण सराफ के फेसबुक से

मामला इसलिए बिगड़ा क्योंकि हाड़ौती में डेंगू-स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों के बेकाबू होने के बावजूद सरकार ने जो रिपोर्ट पेश की, उसमें हालात काबू में बताए गए. बैठक में सीएमएचओ ने सिर्फ 4 मौत होने का आंकड़ा रखा. स्थानीय जनप्रतिनिधियों का आरोप था कि हाड़ौती संभाग में 165 मौतें हो चुकी हैं. विधायक राजावत का कहना था कि अफसरों के तैयार किए आंकड़े मरने वालों के परिजनों के साथ भद्दा मजाक हैं. इन ‘सरकारी’ आंकड़ों ने जनप्रतिनिधियों का जनता के बीच जाना मुहाल कर दिया है.

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मीडिया रिपोर्ट के अनुसार डेंगू से मौत का मामला इतना गरमाया कि चिकित्सा मंत्री कालीचरण सराफ ने हाईकमान से विधायक भवानी सिंह राजावत की शिकायत कर दी. इस पर राजावत ने सराफ पर ही अनुशासनहीनता का आरोप लगाया. राजावत के मुताबिक मंत्री जी ने गलत आंकड़े पेश कर सरकार की छवि खराब की है, जिसे अनुशासनहीनता माना जाना चाहिए.

कोटा में ‘विकट’ हैं हालात

सरकार माने या न माने, लेकिन डेंगू, स्वाइन फ्लू, चिकनगुनिया जैसी बीमारियां अब मौसमी नहीं रह गई हैं. इनका प्रकोप अब लगभग पूरे साल देखा जा सकता है. राजस्थान में सबसे ज्यादा नदियों वाले संभाग यानी हाड़ौती में इस बार मच्छरजनित रोगों ने कहर बरपा रखा है. यही वजह है कि हंगामेदार बैठक के बाद चिकित्सा मंत्री ने मौतों के वास्तविक आंकड़ों के लिए एक कमेटी बना दी है. सभी डॉक्टरों के डेपुटेशन और छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं. डॉक्टरों को पोस्टिंग स्थल पर रात में भी मौजूद रहने को कहा गया है.

ऐसा नहीं है कि सरकार को बीमारियों के आपदा बनने तक के हालात की जानकारी ही नहीं हुई. जनप्रतिनिधि और संबंधित अफसरों ने हर मौके पर कोटा के विकट हालात की बातें रखी हैं. अभी 25 अक्टूबर को ही कोटा के विधायकों ने विधानसभा में अपनी चिंता जाहिर की. लेकिन चिकित्सा मंत्री कालीचरण सराफ हर मौके पर बेफिक्री ही दिखाते रहे. विधानसभा में भी उन्होंने जाने किस विश्वास से कह दिया कि घबराने की बात नहीं है, अभी सिर्फ 3 मौतें हुई हैं. शायद इसीलिए कोटा आने पर लोगों ने उनका भारी विरोध किया.

पूर्व मंत्री और कांग्रेस नेता शांति धारीवाल ने आरोप लगाया है कि कोटा में ध्यान न देने की वजह से ही डेंगू का प्रकोप फैला है. अब मंत्री और विधायक एक बार फिर आपस में झगड़ा कर हालात संभालने के बजाय ध्यान भटकाने का काम रहे हैं. धारीवाल ने इसे आपदा घोषित कर मरने वालों के परिजनों को मुआवजा देने की मांग की है.

पोपाबाई का राज न बनाएं, कुछ करें

रियासती काल में जोधपुर शासन की पोल खोलने के लिए स्वतंत्रता सेनानी और बाद में मुख्यमंत्री बने जय नारायण व्यास ने ‘पोपा बाई का राज’ नाम की पत्रिका निकाली थी. आज भी राज के संबंध में व्यवस्था इससे अलग नजर नहीं आती. राजस्थान में हालात उस कहानी से भी अलग नहीं दिखते जिसमें राजा के पूछने पर मंत्री, सियारों के रोने का कारण ठंड को बताता है. राजा कंबल बांटने का आदेश देता है लेकिन अगली रात जंगल से फिर सियारों के रोने की आवाज आने पर मंत्री को बुलाया जाता है तो मंत्री जी कहते हैं कि अब सियार रो नहीं रहे बल्कि राजा का धन्यवाद दे रहे हैं. इस उत्तर से राजा भी संतुष्ट होकर सो जाता है.

बहरहाल, मौतों पर सियासी हंगामा करने के बजाय सरकार को फौरन वो उपाय करने चाहिए, जिनसे इस महामारी से कोटा को निजात मिल सके. आरोप-प्रत्यारोप और दावे-प्रतिदावे अपनी जगह है लेकिन एक बात तो साफ है कि म्युनिसिपलिटी के स्तर से चिकित्सा विभाग तक गंभीर लापरवाही और गैर-जिम्मेदाराना रवैया अपनाया गया है. नहीं तो कोई कारण नहीं था कि डेंगू और दूसरी मौसमी बीमारियां महामारी बन पाती.

सरकार के काम करने का ढंग तो इसी से साफ हो जाता है कि अगस्त में बीजेपी की मांडलगढ़ विधायक कीर्ति कुमारी की स्वाइन फ्लू से मौत हो चुकी है. उन्हें भी पहले कोटा के अस्पताल में ही भर्ती कराया गया था. कोटा की तो क्या कहें, राजस्थान के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल यानी जयपुर के एसएमएस अस्पताल तक में उनके लिए एक्मो मशीन का बंदोबस्त नहीं हो पाया था. जब सत्ता पक्ष के विधायक को उचित चिकित्सा सुविधा न मिल पाने के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी तो फिर आम आदमी की क्या बिसात.