view all

स्कूली बच्चों पर जुल्म होता है तो चुप क्यों हो जाते हैं लोग?

इंटरनेशनल और ग्लोबल ब्रांड के रूप उभरे ये निजी स्कूल हमारे देश में सबसे बड़े घोटाले की मिसाल हैं

Debobrat Ghose

8 सितंबर: गुड़गांव के रायन इंटरनेशनल स्कूल के क्लास- 2 के सात साल के छात्र प्रद्युम्न की हत्या स्कूल के वॉशरूम में हो जाती है.

9 सितंबर: टैगोर पब्लिक स्कूल, नई दिल्ली में पढ़ रही पांच साल की एक लड़की का क्लासरूम में एक चपरासी बलात्कार करता है.


9 सितंबर: गाजियाबाद के सिल्वर साइन स्कूल के किंडरगार्टन में पढ़ रही एक छह साल की छात्रा अपने स्कूल बस से उतर रही थी जब बेकाबू बस ने उसे कुचल दिया, बच्ची की मौत हो जाती है.

11 सितंबर: हैदराबाद के प्राइवेट हाईस्कूल की पांचवीं क्लास में पढ़ने वाली 11 साल की छात्रा को लड़कों के वॉशरूम में खड़ा होने के लिए मजबूर किया जाता है क्योंकि वह स्कूल की यूनिफॉर्म पहनकर नहीं आई थी. स्कूल टीचर ने उसे इस बात पर दंड दिया था.

यह सारी घटनाएं किसी तिनके की तरह हैं जिनके पीछे एक बड़ा पहाड़ छुपा हुआ है. जरूर कहीं कुछ ना कुछ बहुत ज्यादा गड़बड़ है. स्कूलों के बारे में माना जाता है कि वो बच्चों की रक्षा करेंगे लेकिन बच्चों की हिफाजत में हमारे स्कूल नाकाम साबित हो रहे हैं. देश भर में ये घटनाएं इतनी ज्यादा हो रही हैं कि पूरा का पूरा रूझान आपराधिक जान पड़ता है. लेकिन इन घटनाओं को लेकर अवाम में आक्रोश कहां है ?

बेंगलुरू की पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद देश में जगह-जगह कई मंचों से विरोध और प्रदर्शन हुए, इन प्रदर्शनों की सुर्खियां बनीं. मंगलवार के दिन ‘आई ऐम गौरी’ हैशटैग से हुआ प्रदर्शन इसी कड़ी में शामिल है. लेकिन स्कूली बच्चों पर हो रहे अत्याचार के मामले में हमलोग ऐसा विरोध-प्रदर्शन होता नहीं देखते. बच्चों के मां-बाप जरूर अपने गुस्से का इजहार करते हैं लेकिन इस गुस्से को समाज का व्यापक समर्थन नहीं मिलता.

ऐसा जान पड़ता है मानो नाकाबलियत के शिकार स्कूल प्रशासन के खिलाफ नाराजगी के इजहार का जिम्मा बच्चों के दुखी मां-बाप और अभिभावक (गार्जियन) पर छोड़ दिया गया हो. लेकिन बाकी मामलों में ऐसा नहीं होता. बाकी मामलों में नागरिक संगठन के कार्यकर्ता, कलाकार और बुद्धिजीवी अपने गुस्से का झंडा बुलंद करते हुए सड़कों पर निकल आते हैं.

ये समूह और सियासत तथा विचारधारा के जोर से काम करने वाले ऐसे संगठन आखिर इन बदकिस्मत बच्चों की तरफदारी में क्यों खड़े नहीं होते? क्या इसकी वजह यह है कि बच्चे दक्षिण-वाम या मध्य की किसी विचारधारा के नहीं होते? क्या ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बच्चों में जंतर-मंतर पर धरना करने और हल्ला मचाने की सलाहियत नहीं होती?

बच्चे किसी पार्टी का वोट बैंक नहीं इसलिए उनके मुद्दों का समर्थन नहीं होता

आखिर इन बच्चों के लिए वैसा कोई प्रदर्शन का बहस क्यों नहीं होता जैसा कि ‘नॉट इन माय नेम’ के जुमले से हुआ था. ‘नाट इन द नेम ऑफ चिल्ड्रेन’ के जुमले और झंडे क्यों नहीं उछाले जाते? ये बच्चे जो किसी विचारधारा या पार्टी के नहीं, आखिर उनके लिए ‘वेयर आर यू’ के नाम से नारे क्यों नहीं बुलंद होते? क्या ऐसा इसलिए कि बच्चे किसी पार्टी के वोट बैंक नहीं हैं?

आपको याद होगा, कलाकारों और बुद्धिजीवियों की एक जमात ने 28 जून को जंतर-मंतर पर जुनैद और उस जैसे अन्य पीड़ितों का सवाल उठाते हुए विरोध-प्रदर्शन किया था. इसके कुछ ही दिन बाद दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों, विद्वानों, कलाकारों और छात्रों का एक धरना और चर्चा जंतर-मंतर पर 10 अगस्त को ‘वेयर आर यू’ के जुमले से आयोजित हुआ जिसमें केरल में आरएसएस-बीजेपी के कार्यकर्ताओं की हत्या का सवाल उठाया गया.

मृतक छात्र प्रद्युम्न ठाकुर की रोती-बिलखती मां ज्योति ठाकुर

राजनीतिक वर्ग और सरकार की तरफ से कुछ आधिकारिक बयान और जांच के आदेश के अलावे ज्यादा कुछ होता नजर नहीं आ रहा. बुद्धिजीवियों, कलाकारों, म्युजिकल बैंडस् और नौकरशाह से कार्यकर्ता बने लोगों और सामाजिक कार्यकर्ताओं और बच्चों के अधिकार पर काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों की मजबूत आवाज सिरे से गायब है. जबकि गौरी लंकेश, जुनैद और आरएसएस कार्यकर्ताओं के मामले में ऐसा नहीं हुआ था.

हां, एक अपवाद जरूर है, अभिनेत्री रेणुका शहाणे ने फेसबुक पर रायन स्कूल में हुए क्रूर अपराध पर तीखी प्रतिक्रिया जताई है. रेणुका शहाणे ने सदमे और निराशा का इजहार किया है कि स्कूल जैसी संस्थाएं बच्चों की हिफाजत के लिए होती हैं लेकिन वहां उन्हें यौन दुराचार का शिकार बनाया जा रहा है. यौन दुराचार करने वाले अपराधी स्कूलों में निडर होकर घूम रहे हैं.

आखिर ऐसा क्यों है?

बच्चों के अधिकार के सवाल को मुखर करने वाले वकील अशोक अग्रवाल का कहना है- 'समाज की चेतना और विवेक में गिरावट आई है, खासकर शहरी भारत में. और, यह बड़े दुर्भाग्य की स्थिति है. चंद स्वयंसेवी संस्थाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को छोड़ दें तो ज्यादातर बहुत ज्यादा आत्मकेंद्रित हैं और सिर्फ अपने मतलब के मुद्दे ही उठाते हैं. विवेक में कमी के कारण वो ऐसी सामाजिक बुराइयों की खास चिंता नहीं करते. भारत में हर 600 लोगों पर एक स्वयंसेवी संस्था है. ये लोग बहुधा बेरोजगार होते हैं और इनका रिश्ता निचले मध्यवर्गीय तबके से होता है. ये सब सरकारी सुविधाओं पर पलने वाले परजीवी की तरह बर्ताव करते हैं.'

स्कूलों के खिलाफ बच्चों के माता-पिता या अभिभावक की आवाज ज्यादा दमदार नहीं है क्योंकि बच्चों के मामले में चोट हमेशा इसी तबके को लगती है. मां-बाप बच्चे के आगे का भविष्य सोचकर अक्सर चुप लगा जाते हैं और स्कूलों का अधिकारी वर्ग बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करते जाता है.

गुड़गांव के रायन इंटरनेशन स्कूल में प्रद्युम्न मर्डर केस मामले में हरियाणा पुलिस ने स्कूल बस के कंडक्टर अशोक को गिरफ्तार किया है.

निजी स्कूल हमारे देश में सबसे बड़े घोटाले की मिसाल

अग्रवाल अपनी बात को विस्तार देते हुए कहते हैं 'इंटरनेशनल और ग्लोबल ब्रांड के रूप उभरे ये निजी स्कूल हमारे देश में सबसे बड़े घोटाले की मिसाल हैं. इन स्कूलों के खिलाफ संगठित होकर विरोध का मोर्चा नहीं खोलने के लिए बच्चों के मां-बाप या अभिभावक को दोषी करार नहीं दिया जा सकता. उनका तो बहुत ज्यादा शोषण होता है और चोट हमेशा उन्हीं पर पड़ती है. विडंबना यह है कि उनकी तरफदारी में कोई खड़ा नहीं होगा.'

अशोक अग्रवाल वकीलों के एक समूह सोशल ज्यूरिस्ट के संस्थापक हैं. इस समूह ने प्राइवेट स्कूलों में समाज के आर्थिक रूप से कमजोर तबके के बच्चों को आरक्षण दिलाने की कानूनी लड़ाई लड़ी थी.

विरोध की दमदार आवाज ना होने के कारण स्कूल और भी ज्यादा असंवेदनशील होते जा रहे हैं.

स्कूलों के खिलाफ लगातार चलने वाली मुहिम का अभाव है, उनके खिलाफ दमदार आवाज नहीं उठती. इस वजह से देश भर में स्कूल बच्चों को लेकर ज्यादा से ज्यादा असंवेदनशील होते जा रहे हैं. हैदराबाद के स्कूल में एक छात्रा को लड़कों के वॉशरूम में खड़ा होने पर मजबूर किया गया, इसी बात की मिसाल है.

पीड़ित छात्रा के पिता के मुताबिक इस घटना का बच्ची के मन पर इतना बुरा असर पड़ा है कि उसने स्कूल जाने से इनकार कर दिया है.

प्रद्युम्न के साथ हुई घटना के बाद देश भर के स्कूली अभिभावकों के मन में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई है

बच्चे के अकेडमिक और सामाजिक जीवन पर बुरा असर पड़ता है

दिल्ली स्थित मनोविज्ञानी श्रेया सिंघल का कहना है कि 'ऐसी घटना किसी भी बच्चे के लिए बड़ी दुखदायी होती हैं, आगे इनका बुरा असर बच्चे के अकेडमिक और सामाजिक जीवन पर पड़ता है, उनके आत्मबल पर चोट लगती है. ऐसी घटनाओं से पता चलता है कि स्कूल का अधिकारी वर्ग छात्रों के प्रति संवेदनशील नहीं है. बच्चों के मनोजगत पर पड़ने वाले असर की उसे जरा भी फिक्र नहीं है. स्कूल के प्रबंधन-तंत्र का स्कूल परिसर में चौकस रहना, बच्चों के मां-बाप से लगातार संवाद बनाये रखना और सबसे अंतिम उपाय के तौर पर ही दंड का तरीका अपनाना बहुत जरूरी है.'