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3 राज्यों में हार नहीं बल्कि ये है वो असली वजह जो बीजेपी को साल 2018 कभी भूलने नहीं देगी

साल 2018 बीजेपी के लिए पाने के लिए कम और खोने के लिए ज्यादा याद किया जाएगा. इस साल बीजेपी ने पार्टी पितामह और देश के भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी को हमेशा के लिए खो दिया. ये क्षति अपूर्णीय रहेगी.

Kinshuk Praval

सियासत का रंग दिखाकर एक साल और गुज़र गया. साल 2018 जाते-जाते कहीं 'कमल' मुरझा गया तो कहीं 'हाथ' मजबूत कर बढ़ चला. राजनीति के हाहाकार में पार्टियों के भीतर की तकरार भी गूंज बनकर सुनाई पड़ी. किसी ने एनडीए का साथ छोड़ा तो किसी ने परिवार की पार्टी से अलग हो कर नई पार्टी बना डाली. लेकिन राजनीतिक उथल-पुथल पर गहरा असर छोड़ा विधानसभा चुनाव और उपचुनावों ने. जो चुनाव किसी को ‘चाणक्य’ तो किसी इलाके को ‘कांग्रेस-मुक्त’ बनाने का काम कर रहे थे वो ही चुनाव साल के जाते-जाते 2019 के महाचुनाव की टक्कर का ट्रेलर भी दिखा गए.

बीजेपी का विजयी अश्वमेध रथ उसी के कब्जे वाले इलाके में रोक दिया गया. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की जीत हुई. बीजेपी अपनी सरकारें नहीं बचा सकी. बस यही वजह रही कि साल की सबसे बड़ी राजनीतिक खबर तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव बन गए.


दरअसल, साल 2015 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से ही एक ट्रेंड चल पड़ा था. हर चुनाव का आकलन मोदी-लहर, मोदी मैजिक और साल 2019 के लोकसभा चुनाव से किया जाने लगा. एक परंपरा सी चल पड़ी. अगर उपचुनाव में बीजेपी की हार हुई तो कभी बहस के शोर में तो कभी दावों के ज़ोर में ये कहा जाने लगा कि मोदी-लहर कहीं नहीं है और जब चुनाव में बीजेपी को जीत मिली तो ईवीएम पर सवाल उठाए जाने लगे.

विरोध और ‘एडजस्टमेंट’ की अजीब विडंबना साल भर देखी जाती रही. चाहे कोई उपचुनाव हो या फिर विधानसभा चुनाव, बीजेपी के लिए हर चुनाव को सत्ता का सेमीफाइनल बताने की होड़ दिखती रही. उन्हीं उपचुनावों में कहीं और कभी-कभी मिली जीत विपक्षी खेमे में जान भी फूंकती रही.

साल 2018 में 22 साल बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी पुरानी अदावत भुलाकर साथ आए. बुआ-भतीजे की जोड़ी सिर्फ इसलिए बनी क्योंकि बीजेपी को हराना था. गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में मिली जीत के बाद ये दावा किया जाने लगा कि एसपी-बीएसपी गठबंधन ही यूपी में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग के साथ ध्रुवीकरण की राजनीति का तोड़ है. यहां तक कि कैराना-नूरपुर के उप-चुनाव के नतीजों को भी साल 2019 के लोकसभा चुनाव का ट्रेलर बताने की कोशिश की गई.

सवाल उठता है कि आखिर किसी राज्य के विधानसभा चुनाव या फिर लोकसभा के उपचुनाव के नतीजों से साल 2019 के लोकसभा चुनाव का रुख कैसे भांपा जा सकता है?

दरअसल, एक खास रणनीति के तहत इसे प्रोपेगेंडा वॉर भी कहा जा सकता है ताकि धीरे-धीरे ऐसा प्रचार कर केंद्र सरकार के खिलाफ आम जनमानस में एक धारणा तैयार की जाए और फिर जब थोड़ी सी भी कामयाबी मिले तो उसे केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ जनता का फैसला बता कर खुद का महिमा मंडन किया जाए.

तीन राज्यों के चुनाव में मिली जीत को कांग्रेस साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कमबैक की संभावना की तरह देख रही है. लेकिन सिर्फ छत्तीसगढ़ को छोड़कर दो राज्यों में कांग्रेस को सत्ताधारी बीजेपी से जो कड़ी टक्कर मिली है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. मध्यप्रदेश में 15 साल तो राजस्थान में 5 साल के बीजेपी शासन के बावजूद राज्यों में सत्ता विरोधी लहर मानने में संदेह होता है. अगर वाकई एंटी इंकबेंसी की जड़ें शहरों से ग्रामीण इलाकों में गहरी जमी होती तो नतीजे इतने नजदीकी नहीं होते. ऐसा होता तो कांग्रेस को इन दोनों ही राज्यों में छत्तीसगढ़ की तरह क्लीन-स्वीप करना चाहिए था.

तीन राज्यों में मिली जीत कांग्रेस के लिए संजीवनी है तो साथ ही इस जीत की कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को सख्त दरकार थी. दरअसल, उन पर लगातार ये आरोप लग रहे थे कि उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस लगातार चुनाव हार रही है. ऐसे में ये जीत कांग्रेस के लिए सिर्फ इस रूप में बड़े मायने रखती है कि उसने बीजेपी से बीजेपी की सत्ता वाले राज्यों को छीना है. लेकिन इन चुनावों के नतीजों से लोकसभा चुनाव की तस्वीर बनाना या फिर नया गणित समझाना जल्दबाजी ही होगा. ऐसे में साल 2019 को लेकर बीजेपी को बेचैन होने की उतनी जरूरत नहीं है जितना विपक्षी एकता के नाम पर एक महागठबंधन की तुरही बजाई जा रही है.

ये तय बात है कि साल 2019 का चुनाव ‘मोदी बनाम ऑल’ होगा जिसमें कांग्रेस समेत तमाम विरोधी दल शामिल हो सकते हैं. लेकिन ये कोई नया परिदृश्य नहीं होगा. साल 2014 में भी ऐसा हो चुका है और यही हुआ था. आज कांग्रेस राफेल डील के मुद्दे पर पीएम मोदी को निशाना बना रही है. इसी तरह साल 2014 में पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को पीएम बनने से रोकने के लिए साल 2002 के गुजरात दंगों से लेकर सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले समेत कई आरोपों से घेराबंदी की गई थी.

यहां तक कि तब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रेस से कहा था कि नरेंद्र मोदी के पीएम बनने से देश में खून की नदियां बह जाएंगी. एक पीएम की जन-नरसंहार को लेकर चिंता, जेडीयू जैसे सहयोगी का साथ छोड़ना और मोदी विरोध की राजनीति में अपना अस्तित्व बचाने वाली आम आदमी पार्टी जैसी तमाम राजनीतिक पार्टियां तब भी विरोध में ही खड़ी थीं जैसे कि आज हैं.

लेकिन इसके बावजूद जनता का मूड बदलने और समझने में कांग्रेस तब कामयाब नहीं हो सकी थी. आज भी सिर्फ तीन राज्यों में मिली जीत को लेकर लोकसभा चुनाव में एनडीए की हार से कांग्रेस और विरोधी दलों को गलतफहमी का शिकार होने से बचना चाहिए क्योंकि वो पांच साल में भी केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ एक ऐसा ठोस कारण नहीं जुटा सके हैं जिससे कोई क्रांति हो जाए और न ही मजबूत और संगठित विपक्ष की तस्वीर बना सके.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भले ही चुनाव प्रचार के वक्त राफेल डील, नोटबंदी, जीएसटी को मुद्दा बनाने की कोशिश की लेकिन कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में किसानों की कर्जमाफी को ही हथियार बनाया. अब RBI यानी भारतीय रिज़र्व बैंक तमाम राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों को कर्जमाफी को लेकर आगाह कर रही है कि इसी तरह किसानों की कर्जमाफी होती रही तो भविष्य में किसानों को बैंक लोन देना बंद कर देंगे. सवाल उठता है कि आखिर कर्जमाफी के नाम पर राजनीति देश को किस दिशा में ले जा रही है?

साल 2018 की शुरुआत भी बीजेपी के लिए चुनावी जीत के साथ हुई थी. त्रिपुरा में ‘लाल’ गढ़ को ध्वस्त कर बीजेपी ने पहली दफे पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई. लेकिन दक्षिण का दरवाजा कहलाने वाले कर्नाटक में करिश्मा नहीं कर सकी. कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी 104 सीटें जीतने के बावजूद सदन में बहुमत साबित करने के लिए जरूरी 8 विधायकों का समर्थन नहीं जुटा सकी. कांग्रेस ने जेडीएस की सरकार बना कर बीजेपी को साल का पहला झटका दिया.

राजनीतिक झटकों का सिलसिला अलग-अलग रूपों में अलग पार्टियों और देश के हिस्सों में दिखा. यूपी में समाजवादी पार्टी से अलग हो कर शिवपाल यादव ने अपनी अलग पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) बना ली तो बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने मध्यप्रदेश और छत्तसीगढ़ में कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन न कर झटका देने की कोशिश की.

वहीं टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडु जो कभी एनडीए के शुरुआती संयोजक रहे उन्होंने एनडीए से अलग होने का झटका दिया तो वहीं शिवसेना अपने बयानों से बीजेपी को झटका देने का काम कर रही है. शिवसेना को राफेल डील में सरकार ईमानदार नहीं दिखती तो उन्हें राहुल गांधी की तारीफ करना अच्छा लगने लगा है जो कि शिवसेना की राजनीतिक विचारधारा से एकदम विपरीत है. लेकिन साल 2018 ने इसी तरह के सियासी यू टर्न लगातार देखे हैं. साल 2018 ने आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल की माफी यात्रा भी देखी.

केजरीवाल ने वित्तमंत्री अरुण जेटली, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी कांग्रेस नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील  कपिल सिब्बल, पंजाब में शिरोमणी अकाली दल के नेता विक्रमजीत सिंह मजीठिया से माफी मांग कर अपनी आरोप-यात्रा की इतिश्री की.

सियासी उथल-पुथल संवैधानिक ढांचों में भी विवाद की शक्ल में दिखी. साल 2018 की शुरुआत ही सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस की वजह से गरमा गई. पहली बार किसी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश की गई जिसने पूरे देश को चौंका डाला. वहीं राजनीति जब अपने चरम पर पहुंची तो सीबीआई बनाम सीबीआई की जंग सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई. सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना की लड़ाई सियासी रूप ले चुकी थी. आरोप-प्रत्यारोप के बीच सरकार और विपक्ष के बीच तीखी जुबानी जंग हुई. विपक्ष को सरकार को घेरने का मौका मिला और राफेल डील के नाम पर हमले के लिए एक और हथियार भी मिला.

साल समय की गति से चलता रहा. राजनीति भी करवट बदलती रही. पार्टियां भी नीतिगत सुधार और रूप-रंग में निखार लाने में जुटी रहीं. कांग्रेस में गुजरात विधानसभा चुनाव से शुरू हुई धर्मांतरण की प्रक्रिया कर्नाटक से लेकर एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी दिखी. पीएम मोदी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति स्टैच्यू ऑफ यूनिटी राष्ट्र को समर्पित की तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सर्वहारा वर्ग के सर्वमान्य नेता के रूप में अपना कद बढ़ाने के लिए मंदिर-मठ-दरगाह की परिक्रमा करते दिखे वहीं योगी आदित्यनाथ संन्यासी सीएम होने की वजह से नामकरण करने में जुटे रहे और इलाहाबाद का नाम प्रयागराज हो गया.

प्रतीकात्मक तस्वीर

तीन तलाक जैसे मुद्दे पर संसद में हंगामा रहा. इस पर सियासत जारी है. हालांकि इसी साल 22 अगस्त 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को गैरकानूनी और असंवैधानिक करार दिया था. बावजूद इसको लेकर संसद में गतिरोध बाकी है क्योंकि ये चुनावी और सियासी मुद्दा भी है.

बहरहाल साल 2018 बीजेपी के लिए पाने के लिए कम और खोने के लिए ज्यादा याद किया जाएगा. इस साल बीजेपी ने पार्टी पितामह और देश के भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी को हमेशा के लिए खो दिया. ये क्षति अपूर्णीय रहेगी.