200 सालों की गुलामी के बाद हमने बेतहाशा तरक्की कर ली है. पिछले 70 सालों में हमारी अर्थव्यवस्था कई गुना बड़ी हो गई, हमने विज्ञान के क्षेत्र में अपना लोहा मनवा लिया, देश में शिक्षा का स्तर भी कई गुना सुधर चुका है. 21वीं सदी में हम विकास के नए पैमाने गढ़ने को बेकरार हैं.
पर ये तरक्की आखिर है किसके लिए? क्या सिर्फ चुनिंदा लोगों के लिए या सभी 135 करोड़ भारतीयों के लिए? जब रह-रह कर देश से किसी कोने से दलितों के खिलाफ हमले की खबर आ जाती हो तो यह सवाल तो उठाना बेहद जरूरी है. गुजरात में रविवार को तड़के 21 साल के एक दलित लड़के को पीट-पीटकर मार डाला गया.
उस लड़के का कसूर महज इतना था कि वह दुर्गा पूजा के दौरान गरबा देखने आया था. जयेश सोलंकी नाम का यह लड़का एक मंदिर के पास बैठा हुआ था जब पटेल जाति के कुछ लोगों ने वहां आ कर उसे जातिसूचक गालियां देते हुए कहा कि दलितों को गरबा देखने का हक नहीं है. इसके बाद वहां और लोग आ गए और उसे इतनी बेरहमी से पीटा कि उसकी मौत हो गई.
क्या सच में दलित गरबा नहीं देख सकते? आखिर ये कैसे हो सकता है कि तथाकथित निम्न जाति का व्यक्ति क्या देखेगा यह भी अगड़ी जाति का व्यक्ति ही तय करेगा?
यह बयान ऊंची जाति के किसी एक व्यक्ति का नहीं है. यह वो मानसिकता है जिसका विकास अब भी पेंडिंग है. अगर 21वीं सदी के 17 साल बाद भी देश में एक व्यक्ति की पहचान उसकी जाति है तो फिर उस एक व्यक्ति के लिए विकास की बात बेमानी है.
इज्जत की ठेकेदारी
दलितों पर हमले की यह कोई इकलौती घटना तो है नहीं. गुजरात में ही चंद दिनों पहले दो दलितों को मूंछें रखने के लिए बुरी तरह मारा गया. बताइए. हद है. उन हमलावरों ने उनसे कहा कि मूंछें रखने से तुम राजपूत नहीं बन जाओगे. मूंछें इज्जत की निशानी होती हैं. क्या सिर्फ ये ऊंची जाति वाले लोग ही इज्जत के ठेकेदार हैं? गायों की खाल निकालने पर दलितों की पिटाई को कौन भूल सकता है?
सड़क बना देने, स्कूल, कॉलेज खोल देने, और मंगल तक पहुंच जाने को विकास कहते हैं. पर अगर देश की बड़ी आबादी विकास का फल भोगने से महरूम है तो फिर नया भारत तो दूर की कौड़ी ही है.
दलित तो दलित, हम तो दिव्यांगों पर भी कहर बरपाने को तैयार रहते हैं. देश आगे बढ़ता है सबको साथ लेकर चलने से. पर हमें अपने से कमजोर व्यक्ति जहां दिखता है, उसे धक्का मार कर वहीं गिरा देने के लिए तैयार रहते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो देश के दूसरे कोने गुवाहाटी में एक दिव्यांग को पाकिस्तानी कह कर अपमानित नहीं किया गया होता. यह भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वह सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान के वक्त अपनी शारीरिक कमजोरी के कारण खड़ा नहीं पाया.
न्यू इंडिया में ओल्ड खयाल?
यह सामने वाले के प्रति उन लोगों की सहिष्णुता का स्तर ही नहीं दिखाता, उनकी बौद्धिक क्षमता को भी दर्शाता है. और यह कोई अकेला मामला तो नहीं. इससे पहले भी दिव्यंगों और बुजुर्गों को इस तरह जलील होना पड़ा है. महिलाओं की हालत तो जगजाहिर ही है. जब चंडीगढ़ की एक महिला अपने साथ दुर्व्यवहार की शिकायत करती है तो उल्टा उसपर ही चरित्रहीन होने के आरोप लग जाते हैं.
हमें अगर दुनिया के समृद्ध देशों की कतार में खड़े होना है तो वह देश की आधी आबादी को दलितों और दिव्यांगों को छोड़ कर नहीं हो सकता. दुनिया के जिस भी देश ने सही मायनों में तरक्की की है वहां की तरक्की में सभी ने अपना किरदार निभाया है. अब तो कट्टर इस्लामिक देश सऊदी अरब ने भी अपनी महिलाओं को ज्यादा अधिकार देने की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं.
न्यू इंडिया ऐसा होना चाहिए जिसमें विकास तो हो, साथ ही सबके लिए विकास के समान अवसर भी हों, सामाजिक, आर्थिक या शारीरिक किसी भी रूप में कमजोर व्यक्ति का शोषण न हो बल्कि उसे सहारा दिया जाए. लेकिन आम जनमानस अगर अपने को पुराने बंधनों से मुक्त करने में नाकाम रहा तो न्यू इंडिया में भी वही ओल्ड शोषण जारी रहेगा.