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निर्भया को इंसाफ: एक 'डेमोक्रेटिक स्टेट' के तौर पर बुरी तरह से फेल हुए हैं हम!

हम भले ही देश के सबसे पुराने लोकतंत्र हैं पर सफल तो हर्गिज नहीं है

Swati Arjun

करीब पांच साल पहले दिसंबर महीने के तीसरे सप्ताह की सर्द सुबह मैं दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित अपने दफ्तर में काम कर रही थी, मॉर्निंग प्लानिंग मीटिंग के बाद हम सब अपनी-अपनी स्टोरी लीड पर काम करने में लगे थे.

राजधानी दिल्ली में एक ऐसी घटना घटी थी, जिसने हम सभी को परेशान कर दिया था पर फिर भी हम काम में लगे थे.


टीवी पर लगातार खबर फ्लैश हो रही थी. दिल्ली के मुनिरका इलाके में लड़की के साथ चलती बस में गैंगरेप. लड़की के साथ वहशियाना तरीके से दरिंदगी की गई, लड़की और उसके दोस्त को निर्वस्त्र करके आधी रात बीच सड़क में मरने के लिए फेंक दिया गया. लड़की की हालत गंभीर...एम्स में भर्ती...हालत खराब.....आदि..आदि.

कानों में पड़ते और आंखों के सामने दिखते ये शब्द मुझे जड़ कर गए थे, मेरी आंखों में बार-बार पानी भर रहा था,  हाथ कांप रहे थे, शरीर ठंडा पड़ रहा था और मन बुरी तरह से अशांत था. मुझे तुरंत लगा कि अगर उस लड़की की जगह मैं होती तो क्या होता…?

आखिर, मैं भी तो उसी दिल्ली जैसे महानगर में रहती हूं, रात-बेरात घर से बाहर निकलती हूं, दोस्तों के साथ घूमती-फिरती हूं, नौकरी करती हूं....रिपोर्टिंग के लिए जाती हूं. अनजान जगहों पर.....अनजान लोगों के बीच उन पर भरोसा करते हुए.

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आज पांच साल बाद जब निर्भया की मां और उसके पिता कहते हैं कि उनकी बेटी के साथ न्याय नहीं हुआ है तो मुझे अहसास होता है कि उस दिन मेरे मन में जो डर पैदा हुआ था जो बेचैनी छाई हुई थी वो बेवजह नहीं थी. उसके पीछे जहां एक महिला होने की तकलीफ थी तो वहीं परोक्ष रूप से उस हालात...उस बिगड़े सिस्टम की बेचारगी का एहसास था कि शायद आरोपी फिर बच निकलेंगे.

वो आशंका आज भी मन में बदस्तूर कायम है.

निर्भया मामले में आज फैसला आने वाला है

असल में मेरे मन का वो डर हमारी सिस्टम, हमारी राष्ट्रीयता, हमारे अंत:करण, हमारी सामाजिकता, विधायिका, न्यायपालिका और राजनीति का बोनसाई रूप था.

इस घटना के बाद तमाम लोग दिल्ली की सड़कों पर उतर आए, जुलूस निकाले गए, कैंडिल मार्च निकाला गया, धरना प्रदर्शन किया गया, अपराधियों को सजा देने और निर्भया को इंसाफ देने की मांग की गई.

जनता जब सड़क पर आती है तो देश की राजनीति भी पैदल चलने पर मजबूर हो जाती है, सभी दलों ने लोगों के साथ कदम-ताल किया और एक सुर में निर्भया के हत्यारों को सजा देने का वादा किया लेकिन आज पांच साल बाद भी निर्भया के अपराधियों को सजा नहीं मिल पायी है.

जुलूस और कैंडिल मार्च

पिछले पांच सालों में 18 से ज्यादा संसद सत्रों के बाद ये मुमकिन हो पाया है कि हम एक 18 साल से कम उम्र के अपराधी को घृणित और वहशियना अपराध के लिए जेल भेज सके. लेकिन इस कानून के अभाव में निर्भया का एक अपराधी आज हमारे बीच घूम रहा है.

निर्भया के माता-पिता कहते हैं कि अगर उनकी बेटी एक गरीब परिवार से न होती और ये हादसा किसी मंत्री की बेटी के साथ हुआ होता, तो ये कानून पहले पास हो जाता. शायद वो सही कह रहे हैं  निर्भया के साथ गैंगरेप तो एक बार हुआ मगर उसकी राजनैतिक और सिस्टेमैटिक हत्या पिछले पांच सालों में दर्जनों बार की जा चुकी है.

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इस मामले के एक आरोपी ने आत्महत्या कर ली और एक रिहा हो चुका है

हमारे नेता, सांसद, राजनैतिक दल सब इस कदर रोबोटिक हो गए हैं कि उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं कि अपनी राजनीति के लिए वो कैसे हमारी पूरी राजनैतिक समझ, व्यवहार और शुचिता को फेल कर रहे हैं.

कुत्ता-बिल्ली-डरपोक और पागल कहे जाने से लेकर हर छोटे और ओछे मुद्दों पर संसद आए दिन स्थगित होती रहती है. काश की स्थगन के इन घंटों के दौरान भी इन सांसदों को कभी इस बात का ख्याल हुआ होता कि वे संसद में जनता के लिए गए हैं, उन्हें बेहतर सामाजिक और न्यायिक व्यवस्था मुहैया कराने के लिए गए हैं न कि राजनीति के नाम पर रोटी सेंकने के लिए.

हम भले ही देश के सबसे पुराने लोकतंत्र हैं पर सफल तो हर्गिज नहीं हैं. लोकतंत्र सिर्फ चुनाव जीत कर संसद में आना नहीं होता बल्कि संसद के कामकाज के जरिए देश के लोगों को सुरक्षा, न्याय और अधिकार दिलाना होता है.

निर्भया यानि ज्योति सिंह पांडेय भी इसी देश की बेटी थी. आज जब अब से कुछ देर बाद न्याय के मंदिर में इस मामले पर फैसला आने वाला है तब भी इस देश की नागरिक होने के नाते मेरे मन में ये भावना बहुत ही मजबूत है कि एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के तौर पर हम बुरी तरह से फेल हुए हैं.