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हज़रत सैलानी बाबा दरगाह: दिमागी बीमारी पर हमारी सोच का आईना है बुलढाणा

हमारे यहां दिमागी रूप से बीमार लोग गलियों में आवारा की तरह टहलने को मजबूर होते हैं.

FP Staff

महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले का सैलानी गांव देखने में एक आम गांव ही लगता है. कुछ दुकानें खाने-पीने की हैं, कुछ दवाखाने और दवा की दुकानें हैं. कैसेट की दुकानें हैं. बस और ऑटो स्टैंड हैं. इस गांव और गांव की ज्यादातर दुकानों का नाम सैलानी है, जो एक मुस्लिम संत सैलानी बाबा के नाम पर पड़ा है.

गांव के बीच में सैलानी बाबा की दरगाह है. इसकी शोहरत इस बात के लिए है कि यहां आने वालों को दिमागी बीमारियों से निजात मिल जाती है. बाबा की इस ताकत पर लोगों को इतना भरोसा है कि वो दिमागी बीमारियों का इलाज डॉक्टरों से कराने नहीं जाते. गांव के लोगों के लिए, मानसिक रूप से बीमार लोगों के जंजीरों से बंधे होने का मंजर बेहद आम बात है.


भारत में ऐसी कई दरगाहें हैं. जैसे कि इलाहाबाद में हजरत मुन्नवर अली शाह की दरगाह. या, तमिलनाडु के एरवादी में हजरत सुल्तान सैयद इब्राहिम शहीद की दरगाह. इन दरगाहों पर दिमागी रूप से बीमार लोगों को इलाज के लिए ले जाया जाता है. फिर वहां उन्हें जंजीरों से बांधकर रखा जाता है, मारा-पीटा जाता है. दिमागी बीमारी को बुरी आत्माओं के साए का असर माना जाता है.

यहां हर धर्म को मानने वाले लोग आते हैं

महाराष्ट्र के सैलानी गांव में बरसों से ऐसा होता आ रहा है. गांव के सरपंच शंकर तारमाडे बताते हैं कि देशभर से हर धर्म को मानने वाले सैलानी बाबा की दरगाह पर आते हैं. स्थानीय लोग उन्हें दरगाह की खूबियों और ताकत के बारे में बढ़-चढ़कर बताते हैं.

दरगाह की कमाई को स्थानीय लोगों और बाबा के अनुयायियों की भलाई के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता. जो लोग होटल में किराए के कमरों में रहने की कीमत नहीं चुका सकते, वो दरगाह के पास लगे तंबुओं में रहने को मजबूर होते हैं. दरगाह के आस-पास शौचालय की सुविधा की भी भारी कमी है. यहां आने वाले ज्यादातर लोग खुले में शौच करते हैं.

पुणे के एक कारोबारी ने बाबा के अनुयायियों के लिए खाने की व्यवस्था की हुई है. ये कारोबारी एक दवाखाना भी चलाते हैं, जहां लोगों का इलाज मुफ्त में होता है. हालांकि दवाखाने के डॉक्टर का कहना है कि लोग क्लिनिक में बमुश्किल ही आते हैं. उन्हें बाबा की दरगाह की शक्तियों पर ज्यादा भरोसा होता है.

हालांकि सरकार, दरगाह ट्रस्ट से यहां की कमाई के खर्च के तरीके को लेकर लड़ाई लड़ रही है. फिर भी सरकार ने दरगाह और आस-पास की हालत सुधारने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है. न ही यहां आने वालों के इलाज का कोई इंतजाम किया गया है.

दरगाह पर मानवाधिकार की सभी धाराओं का उल्लंघन

मानवाधिकार के लिए काम करने वाली वकील दिया चटर्जी कहती हैं कि दरगाह में इंसानों को जंजीर से बांधना संविधान की धारा 21 के खिलाफ है. इस धारा के तहत हर नागरिक को सम्मान से जीने का हक मिला हुआ है.

भारत में टॉर्चर को लेकर अलग से कोई कानून नहीं है. इसलिए टॉर्चर के अपराध की सजा भी संविधान की धारा 21 के तहत ही दी जाती है. साथ 6 से 14 साल तक की उम्र के बच्चों को मिले शिक्षा के अधिकार का भी यहां खुला उल्लंघन होता है. शिक्षा का ये अधिकार संविधान की धारा 21A के तहत आता है.

संविधान की धारा 24 के मुताबिक, 14 साल की उम्र तक के बच्चों को खतरनाक काम में नहीं लगाया जा सकता. उनसे बाल मजदूरी कराकर उनका शोषण नहीं किया जा सकता. धारा 39e के मुताबिक 14 साल के कम उम्र के बच्चों से आर्थिक मजबूरी के नाम पर जबरदस्ती काम नहीं लिया जा सकता.

धारा 39f के तहत बच्चों को बराबरी के मौके के अधिकार के तहत बच्चों को शोषण से बचाने और सम्मान से जीने की गारंटी की व्यवस्था दी गई है. धारा 45 के तहत सभी बच्चों को छह साल की उम्र तक अच्छी देखभाल और शिक्षा की व्यवस्था का हक दिया गया है.

दिया भट्टाचार्य कहती हैं कि दरगाह पर जो बर्ताव होता है, वो संविधान की धारा 14 के तहत मिले बराबरी के अधिकार के भी खिलाफ है. संविधान की धारा 15 के तहत भेदभाव से बचाव का अधिकार मिलता है. दरगाह पर उसका भी उल्लंघन होता है. साथ ही धारा 21 के तहत निजी स्वतंत्रता और कानूनी अधिकार भी मिलते हैं, लेकिन दरगाह में इनमें से किसी का पालन नहीं होता.

संविधान की धारा 23 के तहत बंधुआ मजदूरी से मुक्ति का अधिकार मिलता है. धारा 29 के तहत अल्पसंख्यकों को संरक्षण का हक मिलता है. धारा 46 के तहत कमजोर तबके के लोगों को सामाजिक नाइंसाफी से बचाव का अधिकार मिलता है. वहीं धारा 47 के तहत पोषण, अच्छे रहन-सहन और बेहतर सेहत का अधिकार मिलता है. भट्टाचार्य कहती हैं कि दरगाह में जिस तरह लोगों को जंजीरों में कैद करके रखा जाता है, वो आईपीसी की धारा 322 के भी खिलाफ है.

इलाज के नाम पर क्रूरता

संविधान विशेषज्ञ और वकील अजय कुमार कहते हैं कि अगर कोई दिमागी रूप से बीमार है तो इसका ये मतलब नहीं कि उसे बुनियादी अधिकार नहीं दिए जा सकते. किसी को जंजीर से बांधकर रखना और उन्हें पीटना कानून के खिलाफ है. जो लोग ऐसा कर रहे हैं उनके खिलाफ आईपीसी की कई धाराओं के तहत केस चलाए जा सकते हैं. चूंकि वो बिना रजिस्ट्रेशन और सरकारी मंजूरी के मानसिक बीमारी के इलाज का केंद्र चला रहे हैं, इसलिए वो 2017 के मेंटल हेल्थकेयर एक्ट का भी उल्लंघन कर रहे हैं. उन्हें इसकी भी सजा मिल सकती है.

मानवाधिकार आयोग के 2001 के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, राज्यों और केंद्र शासित इलाकों को ये प्रमाणित करना होगा कि उनके इलाके में दिमागी रूप से बीमार किसी भी शख्स को जंजीरों में कैद करके नहीं रखा गया है.

मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट कहती है कि अकेले महाराष्ट्र में करीब अस्सी लाख लोग दिमागी बीमारी से पीड़ित हैं. जबकि राज्य में ऐसे लोगों के लिए अस्पताल में केवल 8170 बिस्तरों का ही इंतजाम है. हालांकि ये देश के किसी भी राज्य में दिमागी रूप से बीमार लोगों के लिए उपलब्ध सबसे ज्यादा बेड हैं.

ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओ की बुरी हालत की वजह से ही ऐसा होता आ रहा है. दिमागी रूप से बीमार लोगों को अक्सर सही इलाज नहीं मिल पाता. इसे लेकर लोगों में जागरूकता की भी कमी है. सामाजिक-आर्थिक हालात भी लोगों को ऐसी दरगाहों पर जाने को मजबूर कर देते हैं.

कई बार तो दिमागी रूप से बीमार लोग गलियों में आवारा की तरह टहलने को मजबूर होते हैं. और कई बार वो दरगाहों में जंजीरों से बांध कर रखे जाते हैं.