view all

गोरक्षकों का बवाल: भीड़ के मन में कानून का डर होना जरूरी

उत्तर प्रदेश सरकार को कासिम का इंसाफ करना चाहिए. अगर इंसाफ होता है तो नजर भी आना चाहिए ताकि सजा न पाने का जो विश्वास भीड़ के मन में घर कर गया है वो टूटे

Naghma Sahar

सावधान! गाय के पास न जाएं. गाय के आस पास नज़र आना भी इन दिनों खतरनाक हो सकता है. क्या पता किसी गोरक्षक को ये शक हो जाए कि गाय की जान को खतरा है और इसी शक के बिना पर आप अपनी जान गंवा बैठें. इसलिए ज़रा संभल कर.

आज के इस दौर की आहट पहले से ही थी तभी हिंदी के प्रख्यात व्यंग्यकार हरि शंकर परसाई ने गो रक्षा पर एक व्यंग्य लिखा था, 'एक गो भक्त से भेंट.' उसके कुछ हिस्से आज के समय में मुझे याद आ रहे हैं. एक रेलवे स्टेशन पर एक स्वामीजी से मुलाकात का ज़िक्र है. स्वामीजी पूछने पर बताते हैं कि वो संसद के सामने सत्याग्रह करने जा रहे हैं क्योंकि गो रक्षा को लेकर धर्मयुद्ध छिड़ गया है.


आगे बाचीत में स्वामीजी से पूछा जाता है कि हर चुनाव से पहले गोभक्ति क्यूं जोर पकड़ती है, इस मौसम में कोई ख़ास बात है क्या? स्वामीजी कहते हैं जब चुनाव आता है तो नेताओं को गोमाता सपने में दर्शन देती हैं और कहती हैं 'बेटा चुनाव आ रहा है अब मेरी रक्षा का आंदोलन करो.'

स्वयंभू गोरक्षक

इत्तेफाक है कि चुनाव फिर नज़दीक है और गोरक्षा के नाम पर उत्तेजित भीड़ का लोगों को सरेआम मार देने के मामले भी कई सामने आए हैं. गाय के बेचने और गोवध पर रोक के बहाने स्वयं नियुक्त किए गए ये गोरक्षक दल काफी सक्रिय हैं. बिना किसी खौफ के दिलेरी से काम करने वाले ये दल गोरक्षा के नाम पर लोगों को मवेशी की खरीद फरोख्त करने पर भी मार डाल रहे हैं.

फोटो रॉयटर से

एक भीड़ तैयार हो गई है जो कभी भी कहीं पर भी ऐसे किसी भी शख्स को घेर सकती है जो किसी गाय के आस पास भी नज़र आ गया या न भी आए तो क्या! बीफ का शक भर भी जान लेने के लिए काफी है. पहलु खान को भी इसी तरह पीटा गया था, जब वो अलवर जिले में हाइवे पर ट्रक में गाय ले कर जा रहा था.  जबकि उसके पास उस गाय के खरीद के दस्तावेज़ भी थे. उसे गोतस्कर बताया गया और इतना पीटा गया कि उसकी मौत हो गई. लिस्ट में कई और हैं. दादरी का अखलाक, ट्रेन में मारा गया जुनैद, उना के वो 4 दलित जो मरी हुई गाय की खाल उतर रहे थे, अब हापुड़ के समीउद्दीन और कासिम.

क्या करें, क्या ना करें?

ज़ख़्मी समीउद्दीन के भाई मेहरुद्दीन ने मुझे बताया कि उनके भाई मवेशी के लिए चारा लेने गए थे. जब उन्होंने कासिम को पिटते हुए देखा, वहां से भागने लगे तभी भीड़ ने उन्हें घेर लिया. आगे जो सुलूक 65 साल के बुज़ुर्ग के साथ हुआ वो व्हाट्स ऐप की मेहरबानी से हम सबके सामने है.

नौजवान लड़के सफ़ेद दाढ़ी नोचते हुए बेहूदा गालियां देते हुए बुज़ुर्ग समीउद्दीन से ये कबूल करवाने की कोशिश में हैं कि वो गाय को मारने ले जा रहे थे. जबकि परिवार के मुताबिक वो इत्तेफाक से भीड़ के सामने पड़ गए. वह सिर्फ जानवरों के लिए चारा लाने गए थे. इसके बाद 6 घंटे तक पुलिस ने परिवार को जानकारी नहीं दी कि समीउद्दीन को किस अस्पताल में रखा गया है और न ही ज़ख़्मी हालत में उन्हें घंटों कोई इलाज मिला. जब पुलिस के लिखे FIR पर परिवार ने दबाव में दस्तखत किया तब भाई का पता बताया गया.

क्या है असलियत?

इस थ्योरी को ख़ारिज करने वाले ये कहते हैं कि अगर पुलिस ने ग़लत या ज़बरदस्ती FIR करवाई तो ऐसे में परिवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना चाहिए. यानी परिवार झूठी हमदर्दी के लिए मीडिया में बयान दे रहा है.

खैर कासिम तो मारा ही गया. प्यास से तड़प तड़प कर या फिर पिटाई की वजह से... हालत यहां तक पहुंचने के पहले वो क्या घटनाएं थीं जिसकी वजह से गांव वाले कासिम की जान लेने पर उतारू हो गए ये साफ़ नहीं है. उम्मीद है तफ्तीश और कानून अपना काम करेंगे. पुलिस का दावा है कि मामला रोड रेज का है लेकिन गिरफ्तार हुए आरोपी राकेश सिसोदिया की पत्नी संतोष ने खुद ये बात मानी है कि बात गोरक्षा की थी और इसके लिए वो अपनी जान भी दे देंगी.

हापुड़ में भीड़ की हिंसा और भीड़ के हाथों सिर्फ शक के आधार पर एक इंसान की मौत हमारे समाज और मौजूदा वक़्त पर बड़े सवाल खड़ा करती है. क्या हिंदुस्तान एक भीड़ तंत्र में बदलता जा रहा है. ये मानसिकता कहां से पैदा हो रही है जहां एक भीड़ हिंसा के लिए तैयार है. समाज में इस ज़हर के नशे के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

क्यों होते हैं ऐसे हादसे?

दिल्ली विश्विविद्यालय में प्रोफेसर अपूर्वानंद के मुताबिक पूरे देश में एक ऐसा माहौल बनाया गया है जिससे अल्पसंख्यकों पर हमला करने पर दंड का भय ख़त्म हो गया है. सवाल ये है कि क्या ये हिम्मत सर्वोच्च पद से मिल रही है.

पूरे देश में मनोवैज्ञानिक तौर पर भीड़ तैयार की जा रही है. ये भीड़ कभी भी इकठ्ठा हो सकती है-हिंसा के लिए और कई बार मज़े के लिए. नौजवान और 13-14 साल के बच्चे इसमें शामिल होते हैं और इस हिंसा की वीडियोग्राफी होती है.

इसे सोशल मीडिया पर वायरल किया जाता है, ये मज़े के लिए ही हो रहा है. मानसिकता ऐसी बन रही है जहां हिंसा का नशा फैल रहा है. हालांकि ये भी सही है कि भीड़ किसी भी बात के लिए इकठ्ठा होकर हिंसक हो जाती है. लेकिन यूनाइटेड अगेंस्ट हेट के नदीम खान बताते हैं कि 2014 से अब तक 86 ऐसे मामले हुए हैं जिसमें गाय के नाम पर हत्याएं हुई हैं.

एक हिंसक भीड़ के हाथों किसी इंसान का मारा जाना-जो इंसाफ और कानून अपने हाथों में ले लेता है, किसी ख्याली गुनाह के आधार पर, इसका समाज की सामाजिकता पर भारी असर हो रहा है. जहां पड़ोसी एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएं तो समाज फिर समाज नहीं रह जाता. पुलिस, प्रशासन और सर्वोच्च पद से ये साफ़ होना ज़रूरी है कि शब्दों से या कार्यवाई से इस तरह की हिंसा पर लगाम लगाई जाएगी.

कानून सख्त लेकिन पर्याप्त नहीं 

ये सही है कि उत्तर प्रदेश में गोहत्या के खिलाफ 50 के दशक से काफी सख्त कानून हैं. भारत के करीब 20 राज्यों में गोकशी के खिलाफ कानून हैं. ये कानून ही तो इस हिंसक भीड़ को रोकने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था. अगर कानून है तो गोकशी करने वाले या गोतस्करी करने वालों को कानून के तहत सजा होनी चाहिए. ये गोरक्षक कहां से खड़े हो गए हैं जो कानून के दायरे के बाहर इंसाफ को अपने हाथों में ले रहे हैं.

क्या इन गोरक्षकों को या इनके समर्थकों को हिंदुस्तान के कानून या न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है. इसलिए ऐसा लगता है कि ये हिंसा एक तमाशे के लिए भी की जा रही है. इस तमाशे को सोशल मीडिया के ज़रिए दूर दराज़ तक पहुंचाया जा रहा है ताकि लोग अल्पसंख्यकों के खिलाफ ऐसी हिंसा करने से खौफ ना खाएं. ऐसे ज़्यादातर मामलों में पीड़ित मुस्लिम या दलित हैं .

तो सवाल यह है कि क्या हिंदुस्तान एक भीड़ तंत्र में बदलता जा रहा है. सबसे डरावना है इस पर सरकार की ख़ामोशी.

इंसाफ की दरकार

उत्तर प्रदेश सरकार को कासिम का इंसाफ करना ही चाहिए. अगर इंसाफ होता है तो नजर भी आना चाहिए ताकि सजा न पाने का जो विश्वास भीड़ के मन में घर कर गया है वो टूटे. हापुड़ के ज़ख्मों के दाग़ सरकार के दामन पर होंगे और फिर 'साफ़ नीयत' पर सवाल भी उठेंगे .

बात जुनैद की हो, अफराजुल की, कासिम की या अंकित सक्सेना की. ऐसा लगता है कि समाज में हर दूसरा व्यक्ति एक भीड़ में बदलता जा रहा है और समाज टुकड़े-टुकड़े होता जा रहा है जिसकी परवाह बेहद कम लोगों को है.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं)