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मां सॉरी तुम डरती रही, लड़ती रही और हम समझे ही नहीं

एक बेटे की जुबानी सीजोफ्रेनिया से ग्रस्त मां की कहानी

Pradeep Awasthi

शीर्षक में मां शब्द के साथ आये दूसरे शब्द से पहचान बहुत बाद में हुई. उसका अर्थ भी बहुत बाद में समझ आया. पहले डॉक्टर ने बताया, फिर मैं कई बार बहुत ढूंढ ढूंढकर पढ़ता रहा. पढ़ने के समझ आने लगा. पीछे मुड़कर देखने पर डॉट्स जुड़ने लगे. जो सारी बातें हमें समझ नहीं आती थीं, जो असामान्य व्यवहार हमारी समझ से परे था वो सब परत दर परत खुलने लगा.

मानसिक बीमारियों को लेकर जागरूक होने पर मां के व्यवहार की बारीकियां मेरे मस्तिष्क में खुलने लगीं. इसके साथ आया गहरा पश्चाताप जिसे मैं अपनी कम उम्र का वास्ता देकर दूर करता रहा. 14-15 साल का रहा होऊंगा मैं जब उसने बड़बड़ाना शुरू किया. ये सिलसिला तब तक चला जब तक एक ठीक डॉक्टर नहीं मिला या डॉक्टर ढूंढने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई. इस बीच इतनी सारी ऐसी चीजे घटीं जो जीवन भर के लिए मेरे दिमाग पर छाप छोड़ चुकी हैं.


जब सच और झूठ का फर्क खत्म हो गया

क्या सच है और क्या महज कल्पनाएं, इसका अंतर अस्पष्ट हो जाता है. वो खुद से बातें करने लगी थी. दिन-दिन भर कुछ बोलते रहना. उसके व्यवहार में गुस्सा भर गया जो धीरे-धीरे चिल्लाहट में बदल गया.

वो बहुत सारी ऐसी बातें करती थी जैसे कई लोग उसके खिलाफ साजिश रच रहे हों. उसने अपने दुश्मन तय कर लिए थे और लगभग हर जान-पहचान वाले पर उसे शक था कि वो कुछ नुकसान पहुंचाएगा.

हम सभी अपने दिमाग में कहानियां बुनते हैं लेकिन सीजोफ्रेनिया से जूझता व्यक्ति उन कहानियों को सच मानता है और दूसरों से भी उनपर विश्वास करने को कहता है. हम भी उन लोगों के दायरे में आये जिनपर उसे शक रहता था और जो उसे सही बातें नहीं बताते थे.

डर और शर्म के घेरे में थे हम

कई बार दूसरों को उल्टा सीधा कहने में उसका गुस्सा और चिल्लाना इस कदर बढ़ जाता कि लगता दिमाग की नस ही फटेगी. हम रोकते थे, चुप कराने की कोशिश करते थे. हमारे डर थे, शर्म थी कि पड़ोसी सुन लेंगे.

आज लिखते हुए जब इतनी पुरानी घटनाओं को सोच रहा हूं तो लगता है कि यकीनन वो लंबे समय तक होशो-हवास में ही नहीं थी. कैसे जाल में जकड़ गया होगा दिमाग.

उसको लगभग हर किसी से नफरत थी. लोगों का घर में आना जाना इसीलिए कम हो गया. उसने खुद भी कहीं आना जाना बंद कर दिया. उसकी बातों में देश के प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक थे, जो उसकी मदद नहीं करते थे.

जब वो कैमरों से डरने लगी

पिता के जाने के बाद वो कई सालों तक कहती रही कि वे हैं बस तुम बता नहीं रहे हो मुझे. एक बार टीवी पर फिल्म आ रही थी गरम मसाला  जिसमें जॉन अब्राहम फोटो खींचता है.

मां को लगा कि उसकी फोटो खींची गयी है. तबसे उसे लगने लगा कि उसके घर में उसपर नजर रखी जा रही है और वो भी टीवी के जरिए. उसने टीवी लंबे समय के लिए देखना ही छोड़ दिया. जब थोड़ी ठीक होती तो फिर देखने लगती.

मैं जब दिल्ली में था तो वो फोन पर मुझसे कहा करती कि तुझे कोई कुछ नहीं कर पायेगा. तू घर आजा. मैं जानती हूं इन लोगों ने तुझे पकड़कर रखा है वहां. उसको घरवालों पर ही शक रहता था कि कब कोई चाय या खाने में कुछ मिला दे और उसे बस में करके क्या कुछ करा ले. अपने जान-पहचान वाले लोगों से मिलती जुलती शक्ल के इंसान उसे टीवी में नजर आते थे.

सफाई जब बनी बीमारी

वो घर साफ करती थी और दोबारा साफ करती थी. दिन भर अपने शरीर को रगड़ती रहती थी जिससे चमड़ी और काली पड़ती जाती थी. चमड़ी काली होती देख कर वो उसे और रगड़ती जाती थी. ये एक गोल घेरा था जिससे बाहर नहीं निकला जा सकता था और कालापन बढ़ता जाता था.

धीरे धीरे उसने इतना भी काम करना छोड़ दिया कि हाथ पांव ही चलते रहें ठीक से. वो रोटियां बनाती थी तो कोई चुपचाप रोटियां ले जाता था. रात में सोते में चुपके से कोई काला रंग चेहरे पर लगा जाता था. वो चाकू रखकर सोती थी अपने सिरहाने कि कभी तो कोई पकड़ में आएगा. ये सारी दुनिया इस साजिश में लगी थी कि उससे उसके बच्चे छीन लिए जाएं. वो चाहती थी कि उसके सच पर भरोसा किया जाए. ये सब कई साल चला.

क्या होता है सीजोफ्रेनिया?

सीजोफ्रेनिया कैसे होता है इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. यदि किसी का भी व्यवहार जरा भी ऐसा असामन्य लगे तो एक ही तरीका है-इलाज.

हमने इस बात को समझने में भी बहुत देर कर दी कि ये एक बीमारी है जो इलाज मांगती है. न ही अपने व्यवहार से हम उसका कुछ साथ दे पाए. इन बीमारियों के प्रति इतनी घोर निरक्षरता है कि हमने पहली बार दिखाया भी तो न्यूरोलोजिस्ट को, जिसने खूब ठगा.

जिसकी भारी दवाइयों ने बहुत उल्टा असर किया. सुबह चाय का कप हाथ में पकड़ते हुए हाथ कांपते थे. शरीर में कमजोरी रहती थी और दिन भर सिर्फ नींद. आखिरकार एक सायकायट्रिस्ट मिला. ये रामपुर में रहने वाले एक परिवार की बात है. यकीन मानिए कि अनभिज्ञता का स्तर यही है हमारे देश में.

एक शख्स का जिक्र करना बहुत जरूरी है जिसने मां की तबियत से लेकर दवाई हर बात का ख्याल रखा. मेरा बड़ा भाई. मां अब ठीक हैं. हर दूसरे दिन रात में आधी गोली खानी पड़ती है. यदि दवाई छोड़ दी जाये तो 2-3 महीनों में फिर लक्षण दिखाई देने लगते हैं.