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हाफिज सईद की रिहाई पाकिस्तान के नेताओं के लिए भी खतरा है

26/11 की बरसी से पहले सईद कि रिहाई बता रही है कि अमेरिका की ताकत पहले जैसी नहीं रही

Sreemoy Talukdar

हाफिज सईद की नजरबंदी से रिहाई को हम ऐसा नाटक कह सकते हैं जो हमने बार-बार देखा हो. जिसके किरदार बार-बार अपने रोल दोहराते रहते हैं. लश्करे तैयबा का संस्थापक हाफ़िज़ सईद कई बार गिरफ्तार और रिहा हो चुका है. उसकी गिरफ्तारी और रिहाई इस बात से तय होती है कि पाकिस्तान कितने दबाव में है.

लेकिन, इस बार हाफिज सईद की रिहाई को वही दोहराव मानना गलती भी हो सकती है. हाफिज सईद की गिरफ्तारी, फिर उसकी रिहाई और इस दौरान बड़े देशों का बर्ताव बदलाव की तरफ इशारा कर रहा है. ऐसा लग रहा है कि दक्षिण एशिया में सियासी समीकरण बदल रहे हैं. भारत को ऐसे बदलाव को गंभीरता से लेना चाहिए.


हाफिज सईद की रिहाई से साफ है कि पाकिस्तान पर अमेरिका का दबाव घटता जा रहा है. पूरी दुनिया में ही अमेरिका की ताकत घट रही है. वहीं चीन एक बड़ी ताकत बनकर उभर रहा है. ऐसे में पाकिस्तान, चीन से दोस्ती गांठ कर अमरीका की हुकुम-उदूली करने का दुस्साहस कर रहा है. ये हकीकत भारत के लिए घरेलू और विदेशी मोर्चे पर नई चुनौती बनकर खड़ी हो रही है. भारत के लिए बेहतर यही है कि अमेरिका की दादागीरी दुनिया पर चलती रहे. अगर इलाके में चीन ताकतवर होता है, तो ये भारत के हित में नहीं है.

भारत को इस बदली हुई सच्चाई के हिसाब से अपनी विदेश नीति में जरूरी बदलाव करना चाहिए. हमें कश्मीर के मोर्चे पर और मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा. इसका संकेत खुद हाफिज सईद ने अपनी रिहाई के बाद के पहले भाषण में दे दिया. उसने कहा कि वो कश्मीर में जिहाद चलाता रहेगा.

26/11 के हमले की नौवीं बरसी से ठीक पहले हाफिज सईद की रिहाई पर अमरीका ने कड़ी नाराजगी जताई है. उसने कहा कि पाकिस्तान, हाफिज सईद को गिरफ्तार करके उसके खिलाफ केस चलाए. लेकिन हकीकत ये है कि आतंकवाद का आका पाकिस्तान में आजाद घूम रहा है.

अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी करके हाफिज सईद की रिहाई पर चिंता जाहिर की है. अमेरिका, लश्करे तैयबा को विदेशी आतंकवादी संगठन घोषित कर चुका है. अमेरिका, हाफिज सईद के संगठन को सैकड़ों बेगुनाह लोगों की हत्या का मुजरिम मानता है. मुंबई हमले में भी कई अमेरिकी नागरिक मारे गए थे. अमेरिकी विदेश विभाग ने हाफिज सईद की फिर से गिरफ्तारी की मांग पाकिस्तान से की है.

कमजोर पड़ रहा है अमेरिका?

एक दौर था जब अमेरिका दूसरे देशों से अपनी बात आसानी से मनवा लेता था. लेकिन हाफिज सईद को लेकर अमेरिकी विदेश विभाग का बयान अमेरिका की कमजोरी को उजागर करने वाला है. अमेरिका का दबाव पाकिस्तान पर काम नहीं कर रहा है. अमेरिका ने सिर्फ दिखावे के लिए हाफिज सईद की रिहाई पर नाराजगी जताकर भारत को खुश करने की कोशिश की है. आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के रुख और हाफिज पर उसके बयान में फर्क साफ नजर आता है.

अमेरिका ने पाकिस्तान को कोएलिशन सपोर्ट फंड से मदद ये कहते हुए रोकी थी कि वो हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ ठोस कदम उठाए. अमेरिका, यही शर्त लश्करे तैयबा के बारे में भी लगा सकता था. हालांकि बाद में सीनेट में पेश किए गए बिल में पाकिस्तान से दोनों आतंकवादी संगठनों पर कार्रवाई की मांग की गई थी. भविष्य में मिलने वाली अमेरिकी मदद पाकिस्तान के एक्शन पर निर्भर करती है.

अमेरिका के डिफेंस ऑदराइजेशन बिल की धारा 1212 कहती है कि पाकिस्तान को हक्कानी नेटवर्क और लश्करे तैयबा के खिलाफ कार्रवाई के ठोस सबूत देने होंगे. उसे अपनी जमीन आतंकवादी संगठनों के इस्तेमाल करने पर रोक लगानी होगी, ताकि ये संगठन अपने लिए पाकिस्तान में पैसे और आदमी न जुटा सकें. इन संगठनों के नेताओ के खिलाफ भी पाकिस्तान को कार्रवाई करने को कहा गया था.

लेकिन अमेरिका के रक्षा मंत्रालय के दबाव में अमेरिकी कांग्रेस ने इस धारा में से लश्करे तैयबा का नाम हटा दिया. अब पाकिस्तान को सिर्फ अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकवादी संगठनों पर लगाम लगाने को कहा गया. लश्करे तैयबा का नाम हटाने से साफ था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका की नीयत में खोट है. वो सिर्फ अपने फायदे के लिए सोचता है.

सख्त नहीं रहा ट्रंप का रवैया

ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद पाकिस्तान को आतंकवादियों के लिए जन्नत बताते हुए उसकी कड़ी निंदा की थी. लेकिन, बाद में ट्रंप प्रशासन का रवैया पाकिस्तान के प्रति वैसा सख्त नहीं रहा. पहले उसे दुनिया की शांति के लिए खतरा बताने वाले ट्रंप ने कहा था कि वो इंसानियत के प्रति अपनी जिम्मेदारी साबित करे. दुनिया की शांति के लिए काम करे.

अमेरिका के इसी रवैये से उसका दोहरा चरित्र उजागर होता है. टाइम्स ऑफ इंडिया के चिदानंद राजघट्टा ने लिखा कि जब भी अफगानिस्तान का मामला होता है, तो अमेरिका का दूसरा रुख होता है. वहीं बाकी देशों में आतंकवाद को लेकर उसके सिद्धांत बदल जाते हैं. वो सिर्फ अपना हित देखता है.

हालांकि सच्चाई इतनी सीधी-सपाट नहीं है. ऐसा लगता है कि अमेरिका अपने हित साधने के लिए इलाकाई ताकतों पर ज्यादा निर्भर हो गया है. इससे अमेरिका के दूसरे देशों से संबंधों में तनातनी बढ़ रही है. यही वजह है कि एक तरफ तो अमेरिका, भारत से संबंध बेहतर करने पर जोर देता है, ताकि चीन की बढ़ती चुनौती से निपट सके. वहीं उत्तर कोरिया के खतरे से निपटने के लिए अमेरिका को चीन की जरूरत है. वो चीन को नाराज करने का जोखिम मोल नहीं ले सकता.

इसीलिए अमेरिका, कश्मीर पर तो भारत का समर्थन करता है. लेकिन वो पाकिस्तान को भी पैसे की मदद का लॉलीपॉप देकर नाराज होने से रोकता है, ताकि अफगानिस्तान में अपने हित साध सके. दुनिया में अमेरिका की ताकत जैसे-जैसे घटेगी, वैसे-वैसे वो चीन और भारत जैसी क्षेत्रीय ताकतों पर निर्भर होता जाएगा. अमेरिका के मुकाबले चीन, खामोशी से अपनी ताकत बढ़ाता जा रहा है.

ऐसे में भारत का पाकिस्तान से नाराज होना उचित नहीं लगता. पाकिस्तान के लिए आतंकवाद विदेश नीति का एक बड़ा जरिया है. वो उसे बढ़ावा देना बंद नहीं कर सकता. हमें ये भी नहीं सोचना चाहिए कि अमेरिका ने हमें धोखा दिया है. हमें ये समझना होगा कि दुनिया में ताकत के समीकरण बदल रहे हैं. ऐसे में हर देश सब से पहले अपने भले की सोचता है. हाफिज सईद की रिहाई को भी हमें इसी नजरिए से देखना चाहिए. पाकिस्तान की फौज हमेशा ही अपनी सरकार को नीचा दिखाने में लगी रहती है. हाफिज सईद की रिहाई भी इसी दिशा में एक कदम है. पाकिस्तान की विदेश नीति में वहां की सरकार का कोई दखल नहीं है. हाफिज सईद ने नवाज शरीफ पर मोदी से दोस्ती गांठने का आरोप लगाकर इस तरफ इशारा किया ही है.

पाकिस्तान को भी है खतरा

जैसा कि कुंवर खुलदुने शाहिद ने द डिप्लोमैट में लिखा भी कि हाफिज सईद की रिहाई पाकिस्तान के सियासी दलों के लिए संकेत भी है और खतरे की घंटी भी. 2018 के चुनाव में उनके लिए सईद बड़ी चुनौती होगा. पाकिस्तान की फौज ने सभी दलों को साफ संकेत दिया है कि भारत से दोस्ती गांठने की कोशिश उन्हें महंगी पड़ेगी. अगर वो कश्मीर मसले को छोड़ते हैं, तो फौज उन्हें ऐसा नहीं करने देगी.

अब तो हाफिज सईद भी 2018 के पाकिस्तान के चुनाव में शामिल हो सकता है. वो आराम से जिहाद समर्थक पार्टियों के लिए प्रचार करेगा. उसकी मदद से कई जिहादी नेता पाकिस्तान की संसद में भी पहुंच जाएंगे. पाकिस्तान के हालात वहां के सियासी दलों के लिए सबक हैं.

पाकिस्तान में जैसे-जैसे चुनाव करीब आएंगे, कश्मीर में हिंसा बढ़ेगी. ऐसे में भारत के लिए क्या विकल्प रह जाते हैं? हमें अमेरिका के साथ उन मोर्चों पर काम करना होगा जहां हमारे हित एक-दूसरे से मिलते हैं. जैसे कि अफगानिस्तान और प्रशांत महासागर क्षेत्र. हमें पाकिस्तान से बातचीत को आतंकवाद के मसले से अलग करना होगा. हमें वहां की सरकार से बातचीत करके उसका हौसला बढ़ाना चाहिए. उनके हाथ मजबूत करने चाहिए. हम ऐसा करके ही पाकिस्तानी फौज का दखल कम कर सकते हैं.

जाहिर है इस राह में चुनौतियां तो कई हैं. लेकिन पाकिस्तान के मोर्चे पर किसी नीति के न होने से मुश्किल राह पर चलना बेहतर होगा.