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व्यंग्य: 'सरकारी क्रिएटिविटी' के मारे एड्स पीड़ित मंत्रीजी और नाचता गुप्त रोगी

जब भक्ति का सरकारी क्रिएटिविटी से मिलन होता है तो अक्सर विचित्र नतीजे सामने आते हैं.

Rakesh Kayasth

आज के जमाने में आदमी घर में बैठा टीवी चैनल तभी सर्फ करता है, जब उसके पास बहुत सा खाली वक्त हो. वो वैसा ही एक खाली वक्त था. बीवी-बच्चे शहर से बाहर गए थे.

रविवार की सुबह तमाम जरूरी ई-मेल के जवाब देने, डस्टबिन घर के बाहर निकालने और आधा घंटा फेसबुक खंगालने के बाद आखिरकार मैंने टीवी का रिमोट उठाया. मेरा वक्त कितना खाली होगा आप इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि मैं कहीं और नहीं सीधे डीडी नेशनल चैनल पर जाकर रूका.


और गुप्त रोगी नाच उठा

अचानक मुझे टीवी पर एक पुराना विज्ञापन नजर आया जो एक दौर में क्रिकेट मैच के दौरान भी चलता था लेकिन पिछले कुछ समय से लापता था. विज्ञापन की कहानी कुछ इस तरह थी-

शक्ल से लुटा-पिटा दिखने वाले एक शख्स से उसकी बीवी कहती है, कोई और बहानेबाजी नहीं चलेगी, आज मैं तुम्हें सीधे डॉक्टर के यहां ले चलूंगी. टाल-मटोल के बाद आदमी अपनी बीवी के साथ डॉक्टर के यहां पहुंचता है और दर्शकों को पता चलता है कि वो बेचारा काम का मारा दरअसल गुप्त रोग से पीड़ित है.

वही गुप्त रोग जिसका इलाज डॉक्टर लोग गुप्त तरीके से करते हैं. डॉक्टर साहब ने कहा- इतना शर्माते क्यों हो, यौन संक्रमण ही तो है. उसके बाद अगले सीन में गुप्त रोग का भुक्तभोगी एक महफिल में रुमाल हिला-हिलाकर नाचने लगता है, जो इस बात का एलान था कि अब वह ठीक हो चुका है.

कहां से लाते हैं ऐसे आइडिया?

विज्ञापन का नेक संदेश यह था कि अगर आपको गुप्त रोग हो तो बिना शर्माए उसे डॉक्टर के सामने प्रकट कर दीजिए. इस संदेश से भला किसे एतराज होगा. लेकिन ठीक होने के बाद गुप्त रोगी का नाच देखकर दिमाग में ऐसे कई नए-पुराने शाहकार घूम गए.

सबसे पहला चेहरा कौंधा राजपाल यादव का जिन्होंने किसी जुलाब के विज्ञापन में राह खुलने का इजहार ऐसे ही एक हाई एनर्जी वाले डांस फरफॉरमेंस के साथ किया था. मैं सोच में पड़ गया कि आखिर ऐसे धांसू आइडिया कहां से लाते हैं, लोग?

विज्ञापन इसलिए एक रचनात्मक माध्यम माना जाता है क्योंकि इसके जरिये बहुत सी मुश्किल बातें आसान ढंग से समझाई जाती हैं. अनकही बातें कुछ इस तरह कही जाती हैं कि बुरी ना लगें और मतलब भी पूरी तरह साफ हो जाए.

कम्युनिकेशन के साथ एस्थेटिक यानी सौंदर्यबोध भी एडवर्टाइजिंग का एक बेहद जरूरी तत्व है. लेकिन ज्यादातर सरकारी विज्ञापनों में इस सौंदर्य बोध की ऐसी-तैसी होती नजर आती है. स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत आनेवाले नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन यानी नाको के विज्ञापनों ने फूहड़ता के सबसे ज्यादा रिकॉर्ड तोड़े हैं और कई विवाद भी खड़े किए हैं.

कंडोम वाला रिंगटोन

कई साल पहले नाको ने कंडोम वाले रिंगटोन का नायाब आइडिया ढूंढा. स्वास्थ्य मंत्रालय के बाबुओं को लगा कि अगर फिजां में चारो तरफ कंडोम-कंडोम गूंजेगा तो लोगों में सेफ सेक्स को लेकर ज्यादा जागरूकता आएगी.

लिहाजा कंडोम-कंडोम जिंगल वाले रिंगटोन तैयार किए गए. रिंगटोन प्रमोट करने के लिए कई विज्ञापन जारी किए गए जिनके जरिए ये बताया गया कि `कंडोम-कंडोम’ रिंगटोन कहां से डाउनलोड किये जा सकते हैं. माना कि सेफ सेक्स बहुत जरूरी है, लेकिन दिनभर कंडोम-कंडोम का जाप? ये दलील कुछ इसी तरह की है, जैसे सुबह पेट साफ होने के महत्व को लेकर आप घर से लेकर दफ्तर तक सोते-जागते बात करें.

गनीमत है किसी ऑफिस में कंडोम-कंडोम नहीं बजा

मुझे मालूम नहीं कि इस देश में कितने लोगों ने कंडोम-कंडोम रिंगटोन डाउन लोड किया. फर्ज कीजिए सरकार की नेक मंशा का सम्मान करते हुए कोई भला आदमी ये रिंगटोन डाउनलोड करे तो उसके संभावित नतीजे क्या हो सकते हैं.

सेक्रेटरी बॉस के केबिन में उनका डिक्टेशन नोट कर रही है. तभी बॉस का फोन बजा.. कंडोम-कंडोम.. कंडोम. सेक्रेटरी ने नजरें झुका लीं और बॉस ने फोन उठा लिया. थोड़ी देर बाद फिर से वही.. कंडोम-कंडोम-कंडोम.

इस बार सेक्रेटरी पैर पटकती हुई केबिन से बाहर चली गई और उसने सेक्सुअल हैरेसमेंट की लिखित शिकायत दर्ज करा दी. किसी महिला को अश्लील सामग्री दिखाना या सुनाना सेक्सुअल हैरेसमेंट के दायरे मे आते हैं.

शुक्र है, ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया. कंडोम वाले रिंगटोन का आइडिया पिट गया क्योंकि इस देश के लोग समझदार हैं. सेक्स एजुकेशन और इंटरकोर्स को पब्लिक डिसकोर्स बनाने का फर्क वे समझते हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर

बलवीर पाशा याद होंगे

एड्स अवेयरनेस का एक और कैंपेन भी कई साल पहले जबरदस्त ढंग से चर्चा में आया था. कैंपेन एक एनजीओ का था, जिसके केंद्र में एक काल्पनिक किरदार बलवीर पाशा थे. पूरी मुंबई में बड़े-बड़े होर्डिंग लगे थे- क्या बलवीर पाशा को एड्स होगा?

हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर सोनम गुप्ता की बेवफाई के जितने चर्चे थे, उससे कई गुना ज्यादा चर्चा बलवीर पाशा ने बिना सोशल मीडिया के बटोर ली थी. बलवीर पाशा कैंपेन ने कई ऑरिजनल बलवीर पाशाओं का जीना दूभर कर दिया. इनमें से एक बलवीर पाशा तो अदालत तक पहुंच गए थे.

उनका कहना था कि इस कैंपेन की वजह से लोग उनकी बेइज्जती कर रहे हैं. कुछ लोगों ने इस कैंपेन को समुदाय विशेष के खिलाफ और सेक्सिस्ट भी करार दिया था. लेकिन इतना सब होने के बावजूद एक कैंपेन के तौर पर बलवीर पाशा अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब रहा था.

जब मंत्रीजी को एड्स हुआ

बलवीर पाशा को एड्स हुआ या नहीं हुआ ये किसी को पता नहीं, लेकिन मुझे याद है बाबुओं और विज्ञापन एजेंसी की क्रिएटिविटी की वजह से एक राज्य के मंत्री और मुख्यमंत्री को एड्स जरूर हो गया था. राज्य का नाम नहीं बताउंगा वर्ना बेवजह नेताओं का मजाक उड़ेगा. राजधानी में जगह-जगह होडिंग लगे थे जिनपर लिखा था- कुछ लोग एड्स से पीड़ित होते हैं और कुछ लोग अज्ञानता से.

इस स्लोगन के दायें और बायें राज्य के मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री की बड़ी तस्वीरें छपी थीं. तय करना मुश्किल था कि दोनों में कौन एड्स से पीड़ित है और कौन अज्ञानता से.

होर्डिंग ठीक से देखने पर नीचे छोटे अक्षरो में लिखा संदेश नजर आता था- एड्स पीड़ितों के साथ भेदभाव ना करें. सरकारी पैसे से इमेज चमकाने की लालच ऐसी कि मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री एड्स वाले विज्ञापन की होर्डिंग तक पर आ बैठे. ये पता करना आसान नहीं कि इन नेताओं ने खुद फरमाइश की थी या फिर चमचागीरी में एड एजेंसी ने उनकी तस्वीरें होर्डिंग पर चिपका दी थी.

मोदीजी तक पड़ी सरकारी क्रिएटिविटी की मार

सरकारी `क्रिएटिविटी’ की मार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक पर पड़ चुकी है. सेंसर बोर्ड के संस्कारी चेयरमैन पहलाज निहलानी ने मोदीजी के सम्मान में `मेरा देश है महान’ नाम का एक वीडियो बनाया था. प्रोडक्शन के लिहाज ये काम सी ग्रेड था, यह अलग बात है. इस वीडियो के जरिए `चाचा नेहरू’ के तर्ज पर `मोदी काका’ को स्थापित करने की कोशिश की गई है, इस बात में भी ज्यादा कुछ एतराज करने लायक नहीं है.

लेकिन मोदी के भारत का गुणगान करने वाले में वीडियो में मास्को और दुबई के विजुअल इस्तेमाल किए गए. सोशल मीडिया पर इसका भरपूर मजाक उड़ा. जब वीडियो वायरल हो गया तब पता चला कि पीएमओ से इसे अपलोड करने को लेकर कोई मंजूरी नहीं ली गई है और जिसे लेकर निहलानी साहब को फटकार भी लगाई है.

कुछ ऐसा ही मामला खादी भंडार के कैलेंडर का था. खादी भंडार ने अपने कैलेंडर से गांधी को हटा दिया और उनकी जगह चरखा कातते मोदी ने ले ली. इसे लेकर देशभर में खूब हंगामा हुआ. बाद में खबर आई कि ये फैसला भी पीएमओ की जानकारी के बिना हुआ है. भक्ति से जब सरकारी क्रिएटिविटी मिलती है तो अक्सर विचित्र नतीजे सामने आते हैं और बिना वजह शर्मिंदगी बड़े नेताओं को उठानी पड़ती है.