पूर्वी उत्तर प्रदेश में कहर बनकर टूट रहा इंसेफेलाइटिस का दूसरा नाम जापानी बुखार है. करीब 90 साल पुरानी इस जानलेवा बीमारी के लिए कोई एंटी वायरल ड्रग भी उपलब्ध नहीं है. डब्ल्यूएचओ की साउथ ईस्ट एशिया जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि यह बुखार जापान से शुरू हुआ था.
साल 1924 जापान में एक अलग किस्म के वायरल बुखार का पहला मामला सामने आया. जो धीरे-धीरे चीन तक पहुंच गया. यह एक प्रकार का वायरल बुखार है. जो मच्छरों के काटने से फैलता है. चूंकि यह पहली बार जापान में डायग्नोस हुआ था तो इसका नाम जापानी बुखार पड़ गया.
रिपोर्ट के मुताबिक कई सालों तक जापान और चीन में कहर बरपाने के बाद 1960 के आते-आते दोनों देशों ने इस बुखार पर काबू पाने की पुष्टि की. लेकिन इसके ठीक नौ साल बाद, 1969 से दक्षिण पूर्वी एशिया में इस बुखार ने तेजी से पैर फैलाना शुरू कर दिया.
1955 में आया था पहला मामला
भारत में तमिलनाडू के उत्तरी आर्कोट जिले में 1955 में ही पहला मामला आ चुका था लेकिन इस बुखार की जानकारी न होने के चलते इसे संदिग्ध माना गया. इसके बाद 1973 में पश्चिम बंगाल के बर्दवान और बांकुरा जिलों में जापानी बुखार के कुछ मरीज मिलने शुरू हुए.
इसके बाद 1978 में एकाएक बच्चे जापानी बुखार की जद में आने लगे. इसकी भयावहता का अंदाजा तब हुआ जब भारत के 18 राज्य इसकी चपेट में आ गए. देखते-ही देखते यह बीमारी सरकार के लिए भी चिंता का विषय बन गई.
इस दौरान उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में यह बीमारी एक कहर की तरह आई और फिर राज्य में स्थाई होती चली गई. साल-दर-साल पूर्वी उत्तर प्रदेश इस बीमारी से जूझने लगा. मरीजों की संख्या बढ़ती गई.
यूपी के बाढ़ग्रस्त पांच जिले खासतौर पर गोरखपुर, कुशीनगर, महाराजगंज, संत कबीर नगर और सिद्धार्थनगर इस बीमारी के गढ़ बनते चले गए. इसी को देखते हुए 2006 में यहां नेशनल वैक्टर बॉर्न डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम भी चलाया गया.
1978 से शुरू हुई यह बीमारी अन्य राज्यों के मुकाबले उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा तेजी से फैली. यहां तक कि 2005 में मरीजों का आंकड़ा 90 फीसदी पहुंच गया. यह सबसे बड़ा आउटब्रेक था. इसके बाद 2006 में 80.8 फीसदी, 2007 में 73.6 फीसदी, 2008 में 78.5 फीसदी जबकि 2009 में 77 फीसदी लोग जापानी बुखार की चपेट में आ गए.
हालांकि प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की कोशिशों, जागरुकता और वैक्सीनेशन के चलते इंसेफेलाइटिस से मरने वालों की संख्या में कुछ कमी हुई. जहां 1987 तक मरने वालों का प्रतिशत 48 फीसदी था, जो 1997 में 39.9 फीसदी और 2007 में 24.9 फीसदी हो गया.
जुलाई से अक्टूबर तक होता है प्रकोप
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि इंसेफेलाइटिस के ज्यादातर केस जुलाई से अक्तूबर तक आते हैं. जबकि इसकी शुरूआत जून से ही हो जाती है. वहीं सर्दियां आते-आते जापानी बुखार खत्म होने लगता है.
हर साल इंसेफेलाइटिस गोरखपुर और देवरिया जिलों को अपना निशाना बनाता है. अभी तक आजमगढ़, बस्ती, बलरामपुर, श्रावस्ती, बहराइच, गोड़ा, गाजीपुर, लखीमपुर, भी जापानी बुखार की गिरफ्त में अधिक रहे हैं.
रिपोर्ट बताती है कि बच्चों पर जापानी बुखार का वायरस तेजी से हमला करता है. 0-10 साल के 1985 में जहां 47 फीसदी, 1998 में 60 फीसदी, 2004 में 88 फीसदी और 2006 में 94 फीसदी बच्चे 0-10 साल के थे.
ये हैं कारण
डब्ल्यूएचओ की ये रिपोर्ट बताती है कि जिन इलाकों में जापानी बुखार का प्रकोप है. वहां पानी जमा होने की समस्या है. इसके चलते पशुओं के चरने के लिए जमीन में भी पानी भर जाता है.
इन इलाकों में लोग पशुपालन भी करते हैं और इसी जमीन में चराते हैं. इसके साथ ही लोग सुअर भी रखते हैं जो कि जापानी बुखार के वायरस के होस्ट की तरह काम करता है. जिनसे ये बीमारी इंसानों में फैलती है.
साभार: न्यूज़18 हिंदी