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गोरखपुर त्रासदी: राजनीति के बीच डॉक्टरों की नैतिकता पर भी सवाल

चिकित्सा के पेशे की तुलना किसी सामान्य कॉरपोरेट या बिजनेस करियर से नहीं की जा सकती

Prakash Nanda

क्या गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज में 7 अगस्त के बाद से 60 से ज्यादा बच्चों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत के राजनीतिकरण से वास्तव में ऐसी त्रासदी से बचने का रास्ता खोजने में कोई मदद मिलेगी?

भारतीय जनता पार्टी की ओर से मौत को हादसा माने जाने की बाबत स्पष्टीकरण देना कि यह भारत जैसे विशाल देश में स्वाभाविक है, क्या इसे इतनी आसानी से माफ किया जा सकता है?


क्या चिकित्सा से जुड़ी बिरादरी और खासकर जो लोग राघव दास मेडिकल कॉलेज के साथ विशेष रूप से जुड़े हुए हैं, उनकी भूमिका को हादसे के साथ घुला-मिला दिया जाए? और क्या ऐसा करना नैतिकता और क्षमता दोनों नजरिए से उनके लिए ठीक होगा? दुर्भाग्य से इन तीनों में से किसी भी प्रश्न का उत्तर जोरदार तरीके से 'नहीं' है.

क्या कटक के बच्चे गोरखपुर के बच्चों से कम अहमियत रखते हैं?

राजनीतिज्ञों के मामले को लेते हैं. किसी हादसे का राजनीतिकरण आम तौर पर विपक्षी पार्टियों के द्वारा किया जाता है ताकि सत्ताधारी दल को बुरा दिखाया जा सके. ऐसा शायद ही होता है कि समस्या का हल निकालने की कोशिश की जाती हो. और, चूंकि राजनीतिकरण की पूरी प्रक्रिया बेहद पक्षपातपूर्ण होती है जिसका मूल मकसद अपने लिए अधिकतम लोकप्रियता हासिल करना होता है, इसलिए इसके प्रभाव को आंकने का कोई सामान्य तरीका या मापदंड नहीं है. अक्सर पूरा मामला ही एकतरफा होता है.

वर्तमान मामले को लें. विपक्ष के नेता गोरखपुर पहुंच रहे हैं चूकि यह घटना मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शहर में हुई. सत्ताधारी दल बीजेपी है, इसलिए हादसे ने विपक्ष को बड़ा अवसर दिया है कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सुशासन के ब्रांड पर हमला बोलें. लेकिन, क्या यही विपक्ष के लोग ओडिशा के कटक पहुंचे थे जब अगस्त-सितंबर 2015 में शिशु भवन या बच्चों के अस्पताल में दो हफ्ते के भीतर 61 बच्चों की मौत हो गई थी?

इनमें से किसी नेता ने नवीन पटनायक सरकार को तब सामूहिक हत्या का जिम्मेदार नहीं बताया था. सिर्फ इतना ही नहीं, यह राष्ट्रीय मीडिया और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए भी बड़ा सवाल था. क्या कटक के बच्चे गोरखपुर के बच्चों से कम अहमियत रखते हैं?

दूसरी बात, राजनीतिकरण के साथ समस्या यही है कि भारत का कोई भी प्रमुख राजनीतिक दल सद्गुणों की मिसाल नहीं है. और, होता यही है कि ज्यादातर हादसों में हमेशा ही विपक्षी दलों की भी प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका रहती है. अगर वर्तमान हादसा बकाया पेमेंट के कारण वेंडर की ओर से ऑक्सीजन की आपूर्ति बंद करने की वजह से हुआ, तो इसके लिए आरोप कुछ ऐसे लगाए जा रहे हैं जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ है कि यह बकाया नवंबर 2016 से लंबित था. और, अगर मामला यही है तो तब सूबे में समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार थी जो वर्तमान हादसे के लिए उतनी ही जिम्मेदार है जितनी योगी सरकार.

मायावती ने योगी से मांगा था इस्तीफा

इसी तरह बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती योगी सरकार से इस्तीफा मांगने और हादसे की जांच के लिए आयोग गठित करने की मांग करने वालों में सबसे आगे हो सकती हैं. लेकिन, जब वह मुख्यमंत्री थीं (2007-12) तो हेल्थ केयर को लेकर उनका रिकार्ड क्या था? यह बात याद रखी जानी चाहिए कि उनके ही शासनकाल में शीर्ष राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों ने नेशनल रूरल हेल्थ मिशन में 10 हजार करोड़ रुपए का घोटाला किया था.

NRHM केंद्र सरकार का कार्यक्रम है जिसका मकसद ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य का स्तर बेहतर बनाना है. कहा जाता है घोटाले पर पर्दा डालने की कोशिश में दो चीफ मेडिकल ऑफिसर समेत 5 लोगों की हत्या कर दी गई थी. मायावती के वरिष्ठ मंत्रियों पर इस घोटाले में शामिल होने के आरोप लगे थे.

अब बीजेपी की भूमिका को देखें. मुझे लगता है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह में भावना नाम की चीज दिखाई नहीं देती जब वे कहते हैं, 'इतने बड़े देश में हादसे पहले भी हुए हैं और यह कांग्रेस के शासनकाल में भी होते रहे हैं.' चूंकि गोरखपुर में हुआ हादसा निश्चित रूप से मानवकृत है और इसलिए यह उम्मीद की जा रही थी कि बाकी सभी सरकारों की तुलना में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार सबसे ज्यादा सावधानी दिखाती, खासकर इसलिए भी कि गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का राजनीतिक आधार वाला क्षेत्र है.

गोरखपुर और इसके आसपास के इलाके भारत के इंसेफेलाइटिस क्षेत्र में आते हैं जिसके कारण करोड़ों लोगों की जान खतरे में है. डॉ. आरएन सिंह के अनुसार जिन्होंने बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज में 70 के दशक में पढ़ाया है और रिटायर होने के बाद से इंसेफेलाइटिस उन्मूलन का अभियान चला रहे हैं, 'जबसे 1977 में इंसेफेलाइटिस फैला है, बाबा राघवदास हॉस्पिटल में प्रति बेड औसतन 200 लोगों की मौत हुई है.

गोरखपुर इंसेफेलाइटिस के लिए दुनिया की राजधानी है. दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है जहां प्रति बेड 200 मौत होती हों. यह दुर्भाग्यपूर्ण आंकड़ा है.' इस मायने में बीजेपी सही कह रही है कि हर साल बरसात के मौसम में ऐसी मौत सामान्य है और इसलिए संकट को बढ़ाने में राजनीति की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए. लेकिन तब, सवाल ये है कि समाधान क्या है?

सामान्यत: यह सबको पता है कि यह विशेष रोग (इंसेफेलाइटिस पैथोजेन्स) उन गरीब तबके के बच्चों को होता है जो खराब खाते हैं, जिन्हें पोषक तत्व नहीं मिलता और जो खराब पहनते हैं. और, जब बच्चे बीमार हो जाते हैं तो स्थानीय स्वास्थ्य सुविधाएं और डॉक्टर इस बीमारी से जूझने के हिसाब से जरूरी उपकरणों से लैस नहीं होते. इसी वजह से 2013 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इंसेफेलाइटिस पर बने विशेषज्ञ समूह की सिफारिश पर गोरखपुर इलाके में 104 उपचार केन्द्रों की स्थापना की थी ताकि आवश्यक वेंटिलेटर्स (दिमाग में लगातार ऑक्सीजन की आपूर्ति बनाए रखने के लिए) और प्रशिक्षित डॉक्टर मरीजों के आसपास मौजूद रहें. इसका मकसद ये था कि मरीजों को बहुत लंबी दूर तय करके शहर के बड़े अस्पतालों, जैसे बाबा राघव दास तक न पहुंचना पड़े.

डॉक्टर का बुनियादी कर्त्तव्य है जीवन की रक्षा करना

ऐसा महसूस किया गया था कि शहर पहुंचने के लिए जितनी अधिक यात्रा करनी होगी, मरीजों की मौत उतनी ही अधिक होगी क्योंकि अस्पताल पहुंचते-पहुंचते मरीजों के मस्तिष्क को इतना नुकसान हो चुका होगा कि उसे ठीक नहीं किया जा सकेगा. निश्चित रूप से ये केंद्र सुचारू रूप से नहीं चल रहे थे, जहां कोई प्रशिक्षित डॉक्टर और सुविधाएं नहीं हैं. किसी और के मुकाबले मुख्यमंत्री को सबसे ज्यादा इस दयनीय स्थिति के बारे में बताना होगा क्योंकि वे अब तक इस इलाके के चुनौतीविहीन नेता रहे हैं.

अब डॉक्टर की भूमिका को देखें. नियमों और कानूनी पेचीदगियों से ज्यादा अनैतिक यह है कि बरसात के खतरनाक मौसम में जब हर साल यह इलाका इंसेफेलाइटिस की वजह से बच्चों की मौत का गवाह बनता है, अस्पताल के प्रमुख लंबी छुट्टी लेकर शहर से बाहर रहें और राघव दास अस्पताल के ज्यादातर डॉक्टर अपना अधिकांश समय अपने निजी क्लीनिक में बिताएं (उत्तर प्रदेश में सरकारी डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस की इजाजत है.) ताकि मासिक वेतन के मुकाबले अधिक से अधिक पैसा कमाया जा सके.

चिकित्सा के पेशे की तुलना किसी सामान्य कॉरपोरेट या बिजनेस करियर से नहीं की जा सकती. एक डॉक्टर का बुनियादी कर्त्तव्य है जीवन की रक्षा करना, दुखों को दूर करना, राहत पहुंचाना, रोग और अक्षमता का उपचार करना और जब रोग का उपचार नहीं हो पा रहा है तो उसके असर को कम करना. एक सच्चा डॉक्टर यह जानकर कभी भी चैन से नहीं रह सकता कि कुछ लोगों को इसलिए स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं दी गई हों क्योंकि उनके पास चुकाने के लिए पैसे नहीं थे. इस कारण जो राहत उन्हें मिल सकती थी और उनकी जिंदगियां बच सकती थीं, नहीं मिल सकीं.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में संभावनाएं तेजी से बदल रही हैं

दुर्भाग्य से चिकित्सा बिरादरी को भारत में फर्जी डिग्री, अवैध मेडिकल कॉलेज, अंग व्यापार (गरीबों के अंग निकाल कर उसे बेचने का संदेह जिससे मौत हो रही है) और ड्रग उत्पादकों के संदिग्ध नेक्सस की वजह से एक बाद एक घोटालों का सामना करना पड़ रहा है. वास्तव में इन मामलों से निपटने वाली संस्था मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया भ्रष्टाचार का अड्डा बन गई है जिसके पूर्व प्रमुख जेल में हैं.

2012 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर बनी पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ने पाया था कि किस तरह शीर्ष डॉक्टर देश के अलग-अलग हिस्सों में खास ड्रग्स के लिए एक जैसे पत्र भेजते हैं मानो ये पत्र सामान्य पहचान बताते हों जबकि उन पर सिर्फ डॉक्टरों के हस्ताक्षर हुआ करते थे. ऐसा कंपनी के हितों को प्रमोट करने के लिए किया जाता रहा है.

बेशक यह सच है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में संभावनाएं तेजी से बदल रही हैं. मरीज के लिए किसी फिजिशियन का नैतिक दायित्व ही काफी नहीं रह गया है. चिकित्सीय नैतिकता में उन लोगों को भी शामिल करना होगा, जिनके हित भी दांव पर होते हैं. इनमें मेडिकल उपकरण कंपनियां, फार्मास्यूटिकल कंपनियां, डायग्नोस्टिक क्लीनिक्स, बीमा कंपनियां, क्लनीकिल ट्रायल करने वाली संस्थाएं और इस क्षेत्र में प्रवेश कर रहीं दूसरी सेवा प्रदाता संस्थान शामिल हैं. भारत जैसे विकासशील देशों में गुणवत्ता, पहुंच और सस्ता स्वास्थ्य जरूरी है. ये सभी कारण भी चिकित्सा के क्षेत्र में नैतिकता की परिभाषा के विस्तार के लिए जरूरी हैं.

कुल मिलाकर, अगर भविष्य में गोरखपुर की त्रासदी को रोकना है तो हर किसी को आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठना होगा. वक्त की जरूरत है कि स्वास्थ्य व्यवस्था- सरकारी या गैर सरकारी- किस तरह न्यूनतम सुविधाओं के साथ भी, खासकर ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में, चालू रहे. इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक दक्षता और चिकित्सा समुदाय में सेवा भाव की जरूरत है.