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गोपालकृष्ण गोखले: जिन्होंने सौ साल पहले रखी थी 'शिक्षा का अधिकार' कानून की नींव

गोखले का मानना था कि भारतीयों को पहले शिक्षित होने की आवश्यकता है

Avinash Dwivedi

अंग्रेजों ने पहले तो छल-प्रपंच से भारत पर कब्जा किया और भारत की बेहतरी के नाम पर इसका शोषण शुरू कर दिया. जब भारतीयों ने स्वतंत्रता और अपने शासन के लिए आवाज उठाई तो अंग्रेजों ने खुद की घिसी-पिटी संसदीय व्यवस्था भारतीयों को थमानी चाही.

ये वही संसदीय व्यवस्था थी जिसे गांधी ने बेहद गिरा हुआ मानते हुए 'वेश्या' तक कह दिया था. इस शब्द का प्रयोग भले ही सही न रहा हो पर इस टिप्पणी से गांधी की इस व्यवस्था से घृणा का अनुमान तो लगता ही है.


फिल्म 'लगान' तो आपको याद होगी ही. अंग्रेज भारतीयों को अपने खेल में हराना चाहते थे. यही तरीका उन्होंने भारतीयों को आजादी न देने के लिए भी अपनाया हुआ था. उन्होंने भारतीयों को संसदीय व्यवस्था में उलझाने की बात सोची थी. भारतीयों के लिए ये खेल नया था इसलिए अंग्रेजों को लगा कि भारतीयों को अभी इसे समझने में ही लंबा वक्त लगेगा.

पर भारतीय तो भारतीय ठहरे लगान के 'भुवन' की तरह इन्होंने तेजी से इस खेल में महारथ हासिल की और फिर शुरू हुआ असली मुकाबला. एक दौर आया जब ये खिलाड़ी इतने काबिल हो चुके थे कि इन्होंने नियमों को अपने हिसाब से ढालना शुरू कर दिया.

भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हुए लगान का नायक 'भुवन' भारतीय पारंपरिक वेशभूषा में दिखता है. पर संसदीय व्यवस्था का एक खिलाड़ी उससे भी आगे निकल चुका था. जिसकी ज्यादातर तस्वीरें आज हम लंबे कोट, पैंट, गले में चारों ओर लपेटे गमछे में देखते हैं.

ऐसा भी नहीं था कि परंपरा को इन्होंने पूरी तरह से तिलांजली दे दी थी. उनके सिर पर हमेशा एक मराठी टोपी रहती थी जिससे सिर पर सजी भारतीय अस्मिता का पता लगता था. ये नायक थे गोपाल कृष्ण गोखले.

खेलों पर वापस आते हैं. भारतीयो को अधिकार और स्वतंत्रता न देनी पड़े इसके लिए अंग्रेज रोज नए-नए जोड़-तोड़ करते थे पर गोपाल कृष्ण गोखले कहां मानने वाले थे? जब राजनेता बने तब उन्होंने अपने विस्तृत अध्ययन के जरिए काउंसिल में होने वाली बहसों को अलग ही स्तर पर पहुंचाया.

गोखले के तरीकों से अंग्रेजों को दहशत

आलम ये था कि 1910 में ब्रिटिश वित्त-सचिव सर एडवर्ड-लॉ ने भरे सदन में गोखले के भाषण से पहले कहा कि,  'जब गोखले अपनी बात रखने के लिए खड़े होते हैं तो ऐसा लगता है कि हजारों सालों के अभ्यास के बाद एक मातम मनाने वाला अपना प्रदर्शन करने के लिए तैयार है. वो ऐसा कारुणिक रुदन करते हैं कि लगता है ये न्यायप्रिय सरकार गरीबों के हित के लिए कुछ नहीं कर रही है.'

हालांकि, लॉ का बयान झूठा ही था क्योंकि आज हम सभी जानते हैं कि अंग्रेज कितने न्यायप्रिय थे. पर सबसे दिलचस्प है गोखले का 'वॉक आउट' वाला वाकया. ये बिल्कुल खेल के नियम बदलने जैसा था.

इसकी नौबत तब आई जब किसानों से भूमि अधिकार छीनने के लिए रखे गए एक बिल पर चर्चा चल रही थी. फिरोजशाह मेहता ने बिल की कड़ी आलोचना करते हुए कहा, 'ब्रिटिश हुकूमत एक ऐसी बाप बनती जा रही है जो मां से कहती है कि बच्चों को गरीबी में भी जिंदा रखो. जबकि वो खुद अय्याशी करने में मगन है.'

मेहता आगे बोले, 'एक भारतीय किसान के जीवन में क्या है. मिट्टी के कुछ नए बर्तन. कुछ जंगली किस्म के फूल. देहाती टमटम. पेट भर खाना. रद्दी सा पान सुपारी और कभी-कभी भड़कीले चांदी के गहने. यही तो वे चंद खुशियां हैं जो एक सामान्य गृहस्थ जिसकी जिंदगी सुबह से शाम तक एक थका देने वाले श्रम की अटूट कड़ी है त्योहार के मौके पर महसूस करता है.'

इसके बाद सरकार बहुमत के बल पर विधेयक पास करने पर अड़ गई तो मेहता, गोखले और दूसरे सदस्य सदन से वॉकआउट कर गए. ऐसा उससे पहले कभी नहीं हुआ था. ऐसा करने से अंग्रेज और उनके समर्थक जल-भुन गए.

उस वक्त टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार के एडिटर भी एक अंग्रेज ही हुआ करते थे. उन्होंने लिखा, 'इन सदस्यों से फौरन इस्तीफा लिखवा लेना चाहिए.'

असहमतियां के कारण टूटी कांग्रेस

भारतीय राजनीति को गोखले इस तरीके के जरिए एक मार्ग दिखा रहे थे. गोखले बिना आवेश में आए बिना मजाक किए जो बातें कह जाते थे वो गहराई से भारतीय जनमानस पर प्रभाव छोड़ती थीं.

एक वक्त तो आलम ये था कि बजट भाषण पर गोखले की आलोचना पढ़ने के लिए लोग टाइम्स ऑफ इंडिया के मुंबई ऑफिस के बाहर लाइन लगाया करते थे.

ऐसा ही एक और वाकया है. साल 1902 में ब्रिटिश वित्त-सचिव एडवर्ड-लॉ ने सात करोड़ की बचत का बजट पेश किया. इस बजट की तारीफ में अंग्रेज फूले नहीं समा रहे थे. मगर गोखले ने ऐसा नहीं किया.

वे बोले, 'मैं अपनी अंतश्चेतना के चलते सरकार को बधाई नहीं दे सकता. उन्होंने कहा कि देश की असल हालत और वित्तीय स्थिति के बीच समन्वय नहीं है.' गोखले आंकड़ों के मामले में माहिर थे.

उन्होंने आंकड़ों के जरिए बताया कि कैसे अकाल के वक्त भी ब्रितानिया सरकार ने लगान की दरें बढ़ाईं. सेना पर फिजूल खर्च किया और शिक्षा में खर्च पर कटौती की.

गोखले मशहूर हो गए. कांग्रेस पर उनकी पकड़ भी बढ़ गई. 1905 में वह इसके अध्यक्ष बने. पर इसी कार्यकाल के अंत में 1906 में पार्टी का विभाजन हो गया. वजह बनी उनकी तिलक से असहमति.

तिलक ब्रिटिश साम्राज्य को एक ही झटके में उखाड़ फेंकना चाहते थे. उनका मानना था कि इन संसदीय बहसों से कुछ हासिल नहीं होगा.

 शिक्षा का अधिकार कानून

गोखले का मानना था कि भारतीयों को पहले शिक्षित होने की आवश्यकता है. तभी वह नागरिक के तौर पर अपना हक यानी आजादी हासिल कर पाएंगे. गोखले किसी भी राष्ट्र की तरक्की के लिए शिक्षा के महत्व को बखूबी समझते थे.

गोखले ने अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का अपना फॉर्मूला साल 1910 में 'प्राथमिक शिक्षा बिल' के रूप में रखा.

उस समय गोखले ने इसके पक्ष में ढेरों तर्क दिए पर जब अंग्रेजों को इससे कोई फायदा ही नहीं हो रहा था तो अंग्रेज ऐसा क्यों करते? इसलिए उस वक्त तो ये बिल पास नहीं हो सका. पर एक शताब्दी बाद यही बिल देश की जनता के सामने शिक्षा का अधिकार के रूप में आया. माना जा सकता है कि गोखले का वो कदम भारत में शिक्षा के अधिकार की नींव थी.

राजनेता के रूप में योगदान

1. गोखले ने बाल विवाह शोषण रोकने के लिए कंसेंट बिल का समर्थन किया था. ये 1891 में पेश किया गया था. इसके जरिए लड़कियों द्वारा सेक्स के लिए कंसेट एज 10 से बढ़ाकर 12 साल कर दी गई थी.

2. इंडियन नेशनल कांग्रेस अपने आंदोलन के लिए दुनिया भर के सपोर्ट की खोज में थी. इसी वक्त बस 5 साल पहले कांग्रेस से जुड़े गोखले ने आयरलैंड का दौरा किया. आयरिश नागरिकता वाले ब्रिटिश पार्लियामेंट के मेंबर अल्फ्रेड वेब को 1894 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए राजी कर लिया. ये दुनिया को अपने स्वतंत्रता के आंदोलन से जोड़ने की दिशा में बड़ा सफल कदम था.

3. उनकी सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी ने शिक्षा के प्रसार के लिए स्कूल बनवाए. रात में पढ़ाई के लिए फ्री-क्लासें लीं और एक मोबाइल लाइब्रेरी की भी व्यवस्था की.

गांधी और जिन्ना के गुरू

गोखले को गांधी स्वयं अपना राजनीतिक गुरू स्वीकार करते थे. अपनी जीवनी में भी उन्होंने गोखले को अपना मेंटॉर और गाइड बताया है. गांधी के ही बुलावे पर गोखले ने साल 1912 में दक्षिण अफ्रीका का दौरा किया था.

गांधी ने साल 1915 में भारत वापसी के बाद एक साल तक बिना कोई राजनीतिक कार्यक्रम चलाए. भारत-भ्रमण का फैसला गोखले के सुझाव पर ही लिया था.

भारतीय राजनीतिक जगत में गोखले की स्वीकार्यता और धाक इस स्तर पर थी कि आगे चलकर पाकिस्तान के कायदे-आजम हुए मुहम्मद अली जिन्ना भी गोखले को अपना रोल मॉडल और मेंटॉर मानते थे. इतना ही नहीं 1912 में दिए एक भाषण में उन्होंने 'मुस्लिम गोखले' हो जाने की ख्वाहिश भी दिखाई थी.

अपनी हस्ती के हिसाब से गोखले की मृत्यु बहुत पहले हो गई. गोखले 19 फरवरी 1915 को मात्र 49 साल की उम्र में चल बसे. गोखले को डायबिटीज और कार्डिएक अस्थमा की शिकायत थी.

गांधी उस वक्त बंगाल में थे. गांधी वहां गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से मिलने गए थे. गोखले की मृत्यु का समाचार सुनकर वो वहां से चले आए. एक महीने बाद उन्होंने टैगोर से दुबारा शांतिनिकेतन जाकर मुलाकात की.

तिलक भी थे प्रशंसक

धुर विरोधी तिलक ने सम्मान में जो कहा, वो आज की राजनीतिक रस्साकशी के दौर में याद करना जरूरी है. तिलक गोखले की चिता को देखते हुए बोले, 'ये भारत का रत्न सो रहा है. देशवासियों को जीवन में इनका अनुकरण करना चाहिए.'

वहीं गांधी ने अपने गुरु को याद करते हुए कहा, 'गोखले क्रिस्टल की तरफ साफ थे. एक मेमने की तरह दयालु थे. एक शेर की तरह साहसी थे और इन राजनीतिक हालात में आदर्श पुरुष थे.'

निजी जीवन

गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई 1866 को रत्नागिरी जिले के गुहागार तालुका के कोटलुक गांव में पैदा हुए थे. जो आज महाराष्ट्र राज्य का हिस्सा है. गोखले ने ग्रेजुएशन 'एलफिंस्टन कॉलेज' से साल 1884 में पूरा किया.

वो 1889 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के मेंबर बन गए. 19वीं सदी के आखिर में फिरोजशाह मेहता की तबीयत नासाज रहने लगी तो उन्होंने गोखले की काउंसिल में एंट्री कराई.

गोखले ने दो शादियां की थीं. उन्होंने पहली शादी 1880 में अपनी किशोरावस्था में सावित्रीबाई से की. जिन्हें आगे चलकर एक लाइलाज रोग हो गया. गोखले ने दूसरी शादी 1887 में की. इस वक्त तक सावित्रीबाई जिंदा थीं. गोखले की दूसरी पत्नी भी 1899 में दो बेटियों के जन्म देने के बाद चल बसीं.

1899 में गोखले 'बांबे लेजिस्लेटिव काउंसिल' के लिए चुन लिए गए. 20 दिसंबर, 1901 को उन्हें गवर्नर जनरल की इंपीरियल काउंसिल के लिए चुन लिया गया.

गोखले को 'कंपेनियन ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एंपायर' भी चुना गया था. 1904 में उन्हें इस सम्मानित लिस्ट में शामिल किया गया. ये उनके कामों का ब्रिटिश सरकार की ओर से औपचारिक सम्मान था.

एक बार प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा था, गोखले को जिन पांच कारणों के की वजह से हमेशा याद किया जाएगा वो हैं- 'हिंदू-मुस्लिम संबंध, दलितों के अधिकार, महिलाओं के अधिकारों का समर्थन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की वकालत और आखिरी पर सबसे महत्वपूर्ण देशसेवा की सच्ची भावना.'

उस वक्त उठाए गए इनसे संबंधित मुद्दे भले ही आज के दौर में साधारण लगें पर ये उस वक्त में अंग्रेजों के लिए एक हिंदुस्तानी की ओर से चुनौती की तरह थे. फिर उस वक्त ये उन क्षेत्रों में बिल्कुल प्रारंभिक शुरुआत की तरह थे जिनकी बदौलत भारत ने आगे चलकर इन क्षेत्रों में मील के पत्थर गाड़े.