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सरकार की ओर से घोषित भुतहा गांवों में कौन भर रहा है रंग?

2011 की जनगणना के मुताबिक कम से कम 1,048 गांवों को 'भूतहा गांव' घोषित किया गया है लेकिन अब माहौल बदल रहा है

Anvisha Manral

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र (खास टिहरी जिले में), एक भूतहा गांव सोर है. चॉकलेट (जो कि शहरी नागरिकों की कल्पना से एकदम अलग है) और बुरांश स्कवैश के लिए प्रसिद्ध यह हिमालयी राज्य गंभीर संकट से गुजर रहा है. 2011 की जनगणना के मुताबिक कम से कम 1,048 गांवों को 'भुतहा गांव' घोषित किया गया है. इन गांवों में या तो कोई नहीं रहता या फिर अधिक से अधिक 10 से 12 परिवार रहते हैं.

हालांकि, इन गांवों के लिए युवाओं की एक टोली से उम्मीद की किरण दिख रही है. यह टोली सरकार से पहले पेंट और ब्रुश के साथ इन गांवों में पहुंची. उन्होंने 'द वाइज वॉल प्रोजेक्ट' के तहत सोर गांव की दीवारों को चमकीले रंगों से रंगा. यह काम प्रोजेक्ट फ्यूल के तहत हुआ, जिसे राउंडग्लास ने स्पॉन्सर किया. फ्यूल के संस्थापक दीपक रामोला के शब्दों में, प्रोजेक्ट के तहत, 'अब यहां नहीं रहने वाले पूरे समुदाय का ज्ञान एकत्र किया गया.'


उन्होंने सोर से पूर्व बाशिंदों का पता लगाया. इनमें से अधिकतर लोग अब उत्तराखंड के अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं. उनकी कहानियां सुनी. उनके किस्सों, लोक-कथाओं और जीवन की शिक्षाओं को एकत्र किया और वहां ले गए, जहां से इनका रिश्ता है. इन किस्से-कहानियों को गांव के घरों की दीवारों पर पेंट किया गया, जहां अब तीन सौ परिवारों में से महज 12 परिवार रहते हैं— और इससे पूरा सोर फिर से जीवित हो उठा है, इसे घर वापसी माना जा रहा है.

याद रखिए, यह महज पहाड़ों की सैर का फैसला करने वाली युवाओं की टोली नहीं है, जो सोर पहुंची, दीवारों को पेंट किया और वापस चले आए. फ्यूल ने सोर फेलोशिप शुरू की है—इसके तहत गांव में रहने वाले बच्चों को छह महीने के लिए अंग्रेजी और कंप्यूटर की शिक्षा दी जाती है.

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अब, चार महीने बाद, शायद दीवारों का पेंट उतरने लगा है. सर्दियों के शुरुआती सूरज में ये रंग पक रहे हैं, लेकिन रामोला की टीम भुतहा गांव फेस्टिवल के साथ वापस लौट आई है. दो दिन चलने वाला यह उत्सव चार नवंबर को शुरू हुआ. इसमें सौ लोगों की टोली को गांव में रह रहे मुट्ठीभर लोगों के साथ संवाद किया. जब रामोला इस फेस्टिवल के शुरुआत की बात करते हें तो यह सोर के बेहद करीब लगता है क्योंकि यह पूरी तरह पहाड़ी संस्कृति से मेल खाता है.

रामोला के मुताबिक, 'रिसर्च के दौरान मेरी बात 83 साल के सोर के एक बाशिंदे से हुई. उन्होंने बताया कि सोर में बड़ा होते हुए उनकी सबसे प्यारी याद एक छोटे मेले की है, जो गांव में लगता था. बड़े पैमाने पर गांव से पलायन के बाद मेला बंद हो गया. इसलिए हमने यह मेला आयोजित करने का फैसला किया. इसका मकसद शहर और गांव के बाशिंदों की दूरियां कम करना है.'

उत्सव का आयोजन हंस फाउंडेशन के साथ किया गया. दो दिन के इस मेले का मकसद फंड जुटाना और गांव में रोजगार के छोटे-मोटे अवसर पैदा करना था. गांव और लोगों के घरों को भीड़ से बचाने के लिए, इसमें शामिल होने वाले लोगों की संख्या सौ रखी गई. गांव वाले तैयार हुए, उन्होंने दुकानें लगाई और उनकी उम्मीदों को पंख लगे.

हालांकि, यह विडंबना है कि एक राज्य जिसका निर्माण चुनौतीपूर्ण भूगोल से जुड़ी विकास जरूरतों को तेज करने के लिए हुआ था, वहां दो दिन के फेस्टिवल की जरूरत सिर्फ इसलिए पड़ी कि लोग अपने छोड़े हुए घरों की देखभाल कर सकें. विश्वसनीय सूत्रों के तथ्य और आंकड़ें बताते हैं कि इन भुतहा गांवों को पुनर्जीवित करना बहुत मुश्किल हो सकता है. राष्ट्रीय ग्रामीण विकास और पंचायती राज संस्थान द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक में रोजगार के अवसरों की कमी (47.06 प्रतिशत) यहां से लोगों के पलायन की सबसे बड़ी वजह है.

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उत्तराखंड को अलग राज्य बने 17 साल हो गए हैं. यहां विकास मुख्य रूप से तराई इलाके में हुआ है. यहीं वजह है कि पहाड़ी इलाके बाकी राज्य से कटे हुए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक चार ग्रामीण जिलों में प्रति व्यक्ति आय हरिद्वार और देहरादून जैसे कारोबारी शहरों के मुकाबले करीब आधी है. इस तरह, कोई यह दलील दे सकता है कि उत्तराखंड की 78.8 प्रतिशत की साक्षरता दर, जो राष्ट्रीय औसत 73 प्रतिशत से अधिक है, पहाड़ी इलाकों के लिए बेकार है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में अब खेती में विकास ठहर गया है और पूर्वजों की भूमि बंजर पड़ी है. पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में 2010 से 2015 के बीच कृषि की विकास दर आठ फीसदी रही, जबकि उत्तराखंड में यह चार फीसदी थी.

ऐसी स्पष्ट असमानताओं के साथ, क्या गांव के लोगों को यहां रहने के लिए पूछना उचित है या शहरी लोगों की अर्ध-सांस्कृतिक प्रवृत्ति यहां काम करेगी? राज्य के विरासत को संरक्षित करने की पूरी ज़िम्मेदारी गांव वालों पर क्यों होनी चाहिए? रमोला का जवाब सबसे अच्छा है: 'हम उन्हें वहां रखना चाहते हैं, लेकिन वहां ऐसे बच्चे हैं, जिनके सपने और आकांक्षाएं भी हैं, और हम उन्हें बाहर की दुनिया के लिए तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं.'

हमें बेहतर नीतियों की जरूरत है और उन्हें बेहतर तरीके से लागू करने की उम्मीद करनी चाहिए, ताकि पहाड़ों को बचाना सिर्फ एक-आदमी का मिशन न बन जाए.