सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने मेजर लीतुल गोगोई के बचाव में जो टिप्पणी की है वो कुछ हद तक समझ से परे है. इससे कुछ सवाल पैदा हुए हैं जिनका जवाब जानना लाजिमी है.
पहला, ये कि जनरल रावत बिना किसी ज्यादा लाग लपेट के कह जाते हैं कि भारत कश्मीर में जंग लड़ रहा है. अब इसे छद्म युद्ध कहिए या डर्टी वार का नाम दीजिए लेकिन जंग तो है.
ये एक ऐसी चीज है जिसे मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व स्वीकार करने से परहेज करेगा और इस शब्द की संजीदगी कम करने के लिए किसी ऐसे शब्द को चुनेगा जिससे इतनी तल्खी न झलके. लेकिन, तलवार को तलवार कहने के लिए सेना प्रमुख पर विश्वास किया जाए.
कितने समय से सेना लड़ रही है ये लड़ाई
अब सवाल ये है कि सेना कितने समय से ये लड़ाई लड़ रही है? क्या ये पिछले जुलाई में हिजबुल कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद शुरू हुई?
दूसरा, दुश्मन कौन है? क्या ये पत्थरबाज हैं? जनरल रावत इसे स्पष्ट जाहिर करते हैं. 'लोग हम पर पत्थर फेंक रहे हैं. पेट्रोल बम फेंका जा रहा है. अगर हमारे लोग पूछते हैं कि क्या करें तो मैं क्या कहूं, इंतजार करो और मरो? मैं तिरंगों में लिपटा शानदार ताबूत लेकर आऊंगा और तुम्हारे शवों को बाइज्जत घर भेज दूंगा. क्या सेना प्रमुख होने के नाते मुझे ये कहना चाहिए?'
ये कहना है जनरल रावत का. सेना प्रमुख होने के नाते उन्होंने सही बयान दिया है. वो अपने लोगों पर हमला करने वालों की तरफ से नहीं बोल सकते. लेकिन हमारी विशिष्ट सेना को पत्थरबाजों से क्यों लड़ना चाहिए जिसका कोई नेता नहीं है.
सेना पर पत्थर फेंकने वालों के पीछे अलगाववादी नेता हैं. मीडिया और सरकार के समर्थकों का एक बड़ा तबका चाहता है कि हम यही मान लें. तो फिर उनके खिलाफ सीधी कार्रवाई क्यों नहीं होती?
उन्हें तो देशद्रोह के आरोप में सलाखों के पीछे होना चाहिए. पर वो तो भारत के खिलाफ जंग लड़ने के लिए युवाओं को खुलेआम उकसा रहे हैं. अगर उन पर कार्रवाई होती है तो ये कश्मीर नीति में एक बड़ा रणनीतिक बदलाव होगा.
इस पर अमल का फैसला दिल्ली की केंद्र सरकार ही ले सकती है. लेकिन इतना तय है कि ऐसा होने पर हमारी सेना मौजूदा शर्मिंदगी भरी लड़ाई लड़ने से बच जाएगी जिसमें वो दुश्मन पर गोली भी नहीं चला सकती.
जनरल रावत की हताशा झलकती है जब वो कहते हैं, 'वास्तव में मैं चाहता हूं कि जो लोग हम पर पत्थर फेंक रहे हैं वो हम पर हथियारों से हमला करते. तब मैं खुश होता. तब मैं वो कर सकता था जो मैं चाहता हूं.'
पर दिल्ली किसी कठोर कदम से पीछे हट कर सेना को विचित्र स्थिति में क्यों छोड़ रही है? जनरल रावत ने कहा कि न सिर्फ दुश्मनों को बल्कि लोगों को भी सेना से डरना चाहिए. ठीक है, पर जब लोगों को ये पता चल जाएगा कि आपकी सीमाएं कितनी हैं तो उनके मन से डर हट जाएगा. शायद घाटी में पत्थरबाजी न रुकने का ये भी एक कारण है.
तीसरा, सेना प्रमुख का कहना है कि डर्टी वार से निपटने के लिए नए तरीके निकालने होंगे और मेजर गोगोई ने पत्थरबाजों से बचने के लिए एक कश्मीरी को ढाल बना कर बिल्कुल ठीक किया. अब, क्या आतंकवाद प्रभावित इलाकों में सेना के लिए ये मानक संचालन प्रक्रिया होगी? निश्चित तौर पर नहीं. सेना किसी को दुश्मन मान उसे बोनट से बांधने की नीति पर नहीं चल सकती. इससे न सिर्फ मानवाधिकार से जुड़े सवाल पैदा होंगे बल्कि सेना की नैतिकता भी कटघरे में होगी.
मेजर गोगोई का ऐसा बचाव जरूरी था?
इसलिए क्या सेना प्रमुख के लिए ये जरूरी था कि वो मेजर गोगोई का इस तरह खुलकर बचाव करें? उनकी टिप्पणियों ने किसी ऐसी चीज को वैधता दी है जिसके बारे में जितनी कम चर्चा की जाती वो ठीक था. इसमें खतरा ये है कि देश भर के रक्त पिपासू सेना से ऐसी ही कार्रवाई की मांग शुरू कर देंगे. इससे घाटी की मौजूदा समस्या और बढ़ेगी. सरकार और सेना को समस्या के समाधान की दिशा में बढ़ने में दिक्कत होगी.
सेना असंयत नागरिकों से बिना तालियां बटोरे भी अपना काम कर सकती है. पेशेवर होने के नाते भारतीय सेना ने जंग भी जीती है और आपदा के समय मदद भी पहुंचाई है. इससे उन्होंने देश के भीतर शोहरत बटोरी है. अगर जनरल रावत का मकसद देश के भीतर सेना का संदेश पहुंचाना था तो इसकी जरूरत नहीं थी.
कश्मीर को इस समय राजनीतिक समाधान की दरकार है. सरकार को चाहिए कि वो बताए कि सेना कब तक इस तरह की असहज स्थिति में रहेगी.