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गौरी लंकेश हत्या, गोरखपुर त्रासदी, नरेंद्र मोदी और पत्रकारिता का बदलता उसूल!

आजकल कई पत्रकार खबरें बताने की जगह बनाने में लगे हैं

Mohan Sinha

मशहूर ब्रिटिश लेखक और पत्रकार रुडयार्ड किपलिंग ने कहा था,

मैं हमेशा अपने साथ 6 ईमानदार और काम के लोगों को रखता हूं, मुझे यही सिखाया गया है.उनके नाम हैं-क्या और क्यों, कब और कहां, कौन और कैसे'


पत्रकारिता का पहला उसूल है, खबर जैसी है उसे वैसा ही बताया जाए. तथ्यों के साथ छेड़ छाड़ न हो. और न ही खबर बताने वाला खुद उसका हिस्सा बने. आज भी पत्रकारिता पढ़ने वालों को अंग्रेज़ी का 5 W और वन H सिखाया जाता है. यानी खबर का ताना-बाना इन्हीं के आसपास बुनने का तरीका बताया जाता है. उन्हें बताया जाता है कि क्या, क्यों, कब, कहां, कौन और कैसे, इन्हीं सवालों के जवाब से खबर तैयार होती है.

लेकिन, पिछले कई साल से पत्रकारिता के इन बुनियादी उसूलों को ताक पर रखकर काम किया जा रहा है. पत्रकार खबरें बता नहीं रहे हैं. वो खबरें बना रहे हैं. उसे अपने मन मुताबिक तैयार कर के पेश कर रहे हैं. वो एक खास तरह की विचारधारा के हिसाब से बात को सामने रखते हैं. आज पत्रकार खुद एक पार्टी बनकर बात करने लगते हैं.

2014 के बाद से तो ये बदलाव बहुत बड़े पैमाने पर देखा जा रहा है. आज खबर उसी तरह पेश की जाती है, जिस अंदाज़ में खबर बताने वाले को पसंद आती है. जो उसके एजेंडे को आगे बढ़ाती है. ऐसे में पत्रकारिता के उसूल ताक पर रख दिए जाते हैं.

हाल ही में कुछ ऐसे वाकिए हुए हैं जिनकी रिपोर्टिंग का अंदाज़ देखकर ये बात और पुख्ता हो जाती है. भीड़ के हुड़दंग की खबर हो, चर्च पर हमले की खबर हो, गोरक्षकों की गुंडागर्दी की खबर, ट्रेन हादसे की खबर हो या फिर अस्पताल में दम तोड़ते बच्चों की खबर हो, सभी जगह पत्रकारों की पार्टी और मोर्चाबंदी नजर आती है.

खबरों की इन सभी मिसालों में खबर को तथ्यों के साथ दिखाए जाने के बजाए उन सभी में किसी ना किसी साज़िश का एंगल तलाशा गया. हर बात का ठीकरा केंद्र की सरकार के सिर फोड़ दिया जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके करीबियों को निशाने पर लिया जाता है.

हाल ही में बेंगलुरु में पत्रकार गौरी लांकेश की हत्या के मामले में तो कुछ पत्रकारों ने तो हद ही पार कर दी.

गौरी लंकेश, कर्नाटक की एक साप्ताहिक पत्रिका 'लंकेश पत्रिके' की संपादक थीं. ये पत्रिका कन्नड़ भाषा में छपती है. 5 सितंबर की देर रात गौरी को उनके घर के बाहर कुछ अज्ञात बदमाशों ने गोली मार दी. अभी तक भी ये पता नहीं चल पाया है कि गौरी की हत्या आखिर क्यों की गई? न ही गोली चलाने वालों की अब तक पहचान हो पाई है. लेकिन खबरें बताने वालों ने जांच शुरू होने से पहले ही कहना शुरू कर दिया कि  हत्या की वजह एक खास विचारधारा और कुछ खास संगठन हैं.

पत्रकारों की इस बिरादरी ने बुनियादी उसूलों को किनारे करके, बिना किसी सबूत के केंद्र की सरकार पर निशाना साधना शुरू कर दिया. हालांकि कुछ पत्रकारों ने अपनी निष्पक्षता बनाए रखी. हत्या के बारे में ये कहा कि अज्ञात बदमाशों ने कत्ल किया. साथ ही ये भी बताया कि गौरी लंकेश बीजेपी और संघ की विचारधारा की मुखालिफ करती थीं.

लेकिन कुछ पत्रकारों ने इसे ही गौरी की हत्या की वजह बनाकर पेश करना शुरू कर दिया. बीजेपी और फासीवादी ताकतों को निशाने पर लेना शुरू कर दिया. अपनी बात की दलील में उनके पास एक भी सबूत नहीं था. फिर भी उनकी रिपोर्टिंग की सुई एक ही बात के इर्द-गिर्द थी कि गौरी बीजेपी की नीतियों और उसकी विचारधारा के खिलाफ़ थी.

पत्रकारों की इस बिरादरी को एक बार भी ये नहीं सूझा कि वजह और भी बहुत सी हो सकती हैं. गौरी के विरोधी तो और भी बहुत थे. लेकिन वो सवालों के घेरे में नहीं थे. तमाम खबरनवीस उसी एंगल से खबर को पेश कर रहे थे जो उनके खयाल से मेल खा रहा था.

देर से पूछे गए बुनियादी सवाल

कुछ पत्रकारों ने तो गौरी के भाई को भी शक के दायरे में रखना शुरू कर दिया. गौरी की हत्या के दूसरे ही दिन कहना शुरू हो गया कि गौरी का भाई नरेंद्र मोदी और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा का समर्थक है. गौरी की बहन ने दक्षिणपंथी ताकतों को हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया तो, भाई ने वामपंथियों को.

हत्या के करीब 48 घंटे बाद कुछ टीवी चैनलों के एंकर और संपादक नींद से जागे तो खयाल आया कि निष्पक्षता भी कोई चीज़ है. उसका खयाल रखा जाना चाहिए. गैर बीजेपी सियासतदां जो अब तक बीजेपी को निशाने पर ले रहे थे, उनसे भी सवाल पूछा जाने लगा. सभी न्यूज़ एंकर और संपादक ये भूल गए कि दो दिन पहले तक वो भी यही काम कर रहे थे.

एक और अहम सवाल जिसे नज़रअंदाज़ किया गया, वो था मौक़ा-ए-वारदात पर मौजूद सबूत. वो कहां गए. ये सवाल किसी ने नहीं उठाया. क्या पुलिस को आज तक कोई सबूत हाथ लगा है. इसकी भी कोई जानकारी किसी को नहीं है.

एक और बड़ा सवाल. कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है. लेकिन किसी ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया या कर्नाटक के गृहमंत्री रामलिंगा रेड्डी से सवाल नहीं किया. ना ही किसी ने उनसे इस्तीफ़े की मांग की. जबकि गौरी को अगर अपनी विचारधारा के चलते कोई खतरा था, तो उन्हें सुरक्षा देने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की थी.

पत्रकारों की जमात ने मिलकर सारे देश में कैंडल मार्च निकाले, प्रदर्शन किए, प्रधानमंत्री को निशाने पर लिया. लेकिन राज्य की कानून-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार लोगों से कोई सवाल तक नहीं किया.

पत्रकारिता में सिखाया जाता है कि किसी भी खबर के कई पहलू होते हैं. लेकिन अफसोस की बात है कि आज खबर का सिर्फ एक ही पहलू बताया जाता है. पिछले कुछ बरस से मुख्यधारा के मीडिया ने ऐसे ही खबरों की रिपोर्टिंग की है.

सोशल मीडिया का है जमाना

अब सोशल मीडिया का ज़माना है. जो मुख्यधारा के मीडिया से ज़्यादा अलर्ट रहता है. अब एक ही प्लेटफॉर्म से अनगिनत आवाज़ें उठ खड़ी होती हैं. पिछले दिनों गोरक्षा के नाम पर मीडिया में काफ़ी हो-हल्ला मचा. मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक लग रहा था कि बसों में, रेलगाड़ियों में और सड़कों पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है. जो लोग बीफ़ खा रहे हैं, उन्हें निशाना बनाया जा रहा है. जबकि खबर का दूसरा पहलू नदारद था.

यही हाल गोरखपुर में बच्चों की मौत की खबर को लेकर हुआ. क्या आपको पता है उत्तर प्रदेश में गुज़रे चार दशकों में करीब 25 हज़ार बच्चे इस बीमारी के चलते अपनी जान गंवा चुके हैं. लेकिन ये सच्चाई सामने आई अगस्त 2017 में, जब गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में इस बीमारी से बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हुई. योगी के मुख्यमंत्री बनने से पहले यानी अखिलेश यादव के राज में  जनवरी और फरवरी महीने में बीआरडी अस्पताल में 274 बच्चों की मौत हुई थी. लेकिन कभी इसकी रिपोर्टिंग नहीं की गई.

यहां सवाल किसी पार्टी या नेता के पक्ष या विरोध का नहीं है. बल्कि पत्रकारिता की निष्पक्षता का है. पिछले पांच सालों में जितने बच्चों की मौत हुई वो शायद रिपोर्टिंग करने वालों के एजेंडे में फिट नहीं बैठती थी. लेकिन 19 मार्च 2017 के बाद से रिपोर्टिंग का मिजाज एकदम बदल गया. बच्चों की मौत को अहमियत के साथ दिखाया और बताया जाने लगा. जो पत्रकार अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए इन मौतों की रिपोर्टिंग अब कर रहे हैं, क्या उनके पास पहले ये आंकड़े नहीं थे?

ये पत्रकार अपनी रिपोर्ट को सनसनीखेज बनाकर आम इंसान को बरगला सकते हैं. लेकिन उन्हीं के बीच वो पत्रकार भी हैं, जो एक्सक्लूसिव खबरों और प्रेस रिलीज़ को खबर बनाकर बाईलाइन लेने के तरीकों के अंतर को बखूबी समझते हैं. अगर मीडिया हाउस को इंसेफेलाइटिस से मरने वालों बच्चों की इतनी ही फिक्र थी, तो देशभर से इस बीमारी से मरने वालों बच्चों की रिपोर्टिंग क्यों नहीं की गई. इस केस में खोजी पत्रकारिता की जाती.

बीआरडी अस्पताल की तरह कर्नाटक के अस्पतालों में भी इस बीमारी से बच्चों की मौत हो रही है. लेकिन वहां की सरकार से किसी ने सवाल नहीं किया. जिस तरह बीआरडी अस्पताल में बच्चों की मौत की खबर बताई गई, उससे मकसद यही लगा कि योगी को यूपी का मुख्यमंत्री बनाने वाले प्रधानमंत्री और खुद योगी को निशाने पर लेना था.

मीडिया का एक तबका गोरखपुर में बच्चों की मौत को इस तरह पेश कर रहा है जैसे, बच्चे 19 मार्च 2017 के बाद ही मरने शुरू हुए. 19 मार्च के बाद से यूपी में लोगों की जिंदगी जहन्नुम बन गई है.

मैंने 7 सितंबर 2013 में अपने ब्लॉग में लिखा था कि जिस तरह से मीडिया और सियासी दल बार-बार नरेंद्र मोदी को निशाना बना रहे हैं, वो सरासर गलत है.

इंदिरा गांधी के साथ भी हो चुका है ऐसा

ये ठीक उसी तरह था जिस तरह 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने संजय और इंदिरा गांधी के खिलाफ़ शाह कमीशन बैठाया था. हर जुल्मो-सितम के लिए इंदिरा को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश हुई. संजय और उनकी फौज को निशाने पर लेने की कोशिश हुई. इंदिरा गांधी ने इसी में मौका ताड़ लिया. वो खुद को पीड़ित बताने लगीं. इंदिरा ने इस कार्ड से खेल का पूरा रूख ही बदल दिया. जब तक शाह कमीशन की सुनवाई पूरी हुई मीडिया और विरोधी दोनों इंदिरा के सामने घुटने टेकने को मजबूर हो गए.

यही हाल 2014 के चुनाव से पहले हुआ. कांग्रेस ने जितनी बार 2002 के दंगों का मुद्दा उठाया, मोदी ने हर बार उसका जवाब विकास के मुद्दा से दिया. नौकरियों और गरीबों के कल्याण का मुद्दा उठाया. मोदी ने राम मंदिर, हिंदुत्व या दंगों को अपने भाषणों में जगह नहीं दी थी. जबकि विपक्ष मोदी को एक हत्यारे के रूप में लोगों के सामने पेश कर रहा था. मोदी को फासीवादी, कहा जा रहा था. मोदी की तुलना हिटलर से की जा रही थी. इसी का फायदा मोदो को चुनाव में मिला. कुछ पत्रकार अपने अपने तजुर्बे से भी कुछ सीखने को राजी नहीं.

इस बात की पूरी संभावना दिखती है कि 2019 में भी मोदी और उनकी पार्टी की ही जीत होगी. देश में कब तक बीजेपी का राज रहेगा, ये कह पाना तो मुश्किल है. लेकिन इन हालात के लिए जिम्मेदार कौन है?

आम जनता आज भी मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा मानकर भरोसा करती है. ये विश्वास करती है कि मीडिया जो भी दिखा रहा है वो सच है. लेकिन कुछ पत्रकार जनता के इस विश्वास को तोड़ रहे हैं.

गलत मिसाल बना रहे हैं कुछ पत्रकार

कुछ पत्रकार ऐसे हैं जो आने वाली पीढ़ी के लिए गलत मिसाल पेश कर रहे हैं. मैं रोज अपनी क्लास में बच्चों को अच्छा पत्रकार होने के गुर सिखाता हूं. लेकिन मुझे यकीन नहीं कि मैं उन्हें सही बातें बता रहा हूं या नहीं.

आज खबर का हिस्सा बन रहे पत्रकारों को क्या ये मालूम है कि वो अपनी निष्पक्षता और साख को गिरवी रख रहे हैं? साफ है कि वो जिस एक शख्स को हराने के लिए अपने उसूलों से समझौता कर रहे हैं, जीत उसी की हो रही है.