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गौरी लंकेश की हत्या कट्टरवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई का शंखनाद है

साहस कभी खत्म नहीं हो सकता, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी की हत्या हो जाने के बाद हमें यह बात याद आती है

Sandipan Sharma

असहमति की आवाज को चुप कराने के लिए जो लोग बंदूक का इस्तेमाल करते हैं, वो कायर होते हैं. भय और हिंसा का सहारा लेकर वो एक खोटे विचार को बचाना चाहते हैं लेकिन उस विचार को नाश में मिलते उन्हें अपनी आंखों से देखना पड़ता है.

मार्टिन लूथर किंग ने कहा था कि नैतिकता के महल का मेहराब बहुत लंबा होता है लेकिन वह झुकता वहीं है जहां इंसाफ लिखा होता है. इसलिए, जिन लोगों ने गौरी लंकेश की हत्या की, वे जान लें कि मानवता के साझे विवेक के खिलाफ उन्होंने लड़ाई ठानी है लेकिन इसमें उनकी हार होगी.


निरंकुश शक्ति-सामंत, तानाशाह, खुद को लोगों का भाग्य-विधाता बताने वाले लोग और लोगों को बांटने-बिखेरने वाली उनकी विचारधारा की लंबी सदियां गुजरी हैं लेकिन इन सदियों से लोहा लेती बोलने की आजादी; असहमत होने का अधिकार; कट्टरता, नफरत और सियासी दमन से लड़ने का साहस और किसी आदमी की आजाद-ख्याली से सोचने की सलाहियत—ये सारी चीजें बची रही हैं. भारतीय राजनीति के मौजूदा दौर और बहुसंख्यक के जुल्म के आगे भी ये चीजे अपना वजूद कायम रखेंगी.

नैतिकता के संसार में जो लकीर आज भारत को दो हिस्सों में बांट रही है वह शर्तिया बड़ी चिंता में डालती है. यह एक लंबी लड़ाई की पूर्वसूचना है. यह लड़ाई व्यक्ति की आजादी और अधिकार के तरफदारों और उन लोगों के बीच होनी है जो धमकी और बंदूक के जोर पर इस आजादी और अधिकार के पर कतरना चाहते हैं.

बड़े हैरत की बात है कि एक सभ्यता और संस्कृति के रूप में शास्त्रार्थ की अपनी परंपरा पर गर्व करने वाला हिंदुस्तान आज एक ऐसे मुल्क में तब्दील हो गया है जहां विरोधी विचार का इजहार करना अपनी मौत को दावत देने के बराबर बन चला है.

बड़े शर्म की बात है कि पत्रकार, जो अक्सर मानवता के आदर्शों के बारे में बोलने का बीड़ा उठाते हैं और वह भी इसलिए कि बाकी जन ऐसा करने के मामले दब्बू, स्वार्थी या नाकाबिल होते हैं, आज अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने के कारण मारे जा रहे हैं. और यह बात जितनी भयानक है उतनी ही नफरत के काबिल कि इस मुल्क में ऐसे भी लोग हैं जो एक हत्या का जश्न मना रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है पत्रकार की मौत से उन्हें अपने भ्रष्ट एजेंडे और विचारधारा की तरफदारी में खड़े होने का मौका मिला है.

फिलहाल कोई नहीं जानता कि गौरी लंकेश की उनके निवास पर किसने हत्या की लेकिन हत्या करने के लिए जो तरीखा अख्तियार किया गया उससे हत्यारे के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है. हां, हम उन्हें जरूर जानते हैं जो गौरी लंकेश की हत्या का जश्न मना रहे हैं, जो इस हत्या को जायज ठहराने के लिए कह रहे हैं कि उस कम्युनिस्ट(कौमी) ने अपने किए की सजा पाई. जो कह रहे हैं कि कु**या मर गई तो उसके सारे पिल्ले रो रहे हैं.

गौरी लंकेश की हत्या को लेकर जो प्रतिक्रियाएं आई हैं वो कई तरह से इस भयावह तथ्य की याद दिलाती हैं कि हिंदुत्व के झंडाबरदार जिन विचारों से नफरत करते आए हैं आज वो उन्हीं विचारों की नकल कर रहे हैं. हिंदुत्व के झंडाबरदारों का गौरी लंकेश की हत्या पर जश्न, उसकी व्याख्या और हत्या को जायज ठहराने वाले तर्क कठमुल्लों के भ्रष्ट तर्क से मेल खाते हैं. बांग्लादेश में इस्लामी चरमपंथियों के हाथों ब्लॉगरों के हत्या के बाद उनके लेखन के बारे में ऐसे ही तर्क दिए गए.

साफ-साफ नजर आ रहा है कि जिन चरमपंथियों से वे नफरत करने की बात करते हैं आज खुद उन्हीं चरमपंथियों की तरह हो गए हैं और ठीक इसी कारण ये लोग आज दया के पात्र हैं. हिंदुत्व के झंडाबरदारों का नैतिक और बौद्धिक पतन अब अपने चरम पर जा पहुंच गया है.

गौरी लंकेश को मारा नहीं जा सकता. मौत के बाद गौरी लंकेश हाड़-मांस का पुतला भर नहीं रहीं. अब वह एक विचार में तब्दील हो गई हैं. एक ऐसे विचार में जिसकी हिफाजत मानवता सदियों से करती आ रही है. यह व्यक्ति की आजादी का विचार है. इस विचार को हिटलर नहीं हरा सका, इस विचार का गला स्टालिन भी नहीं घोंट पाया.

यही विचार आज आईएसआईएस और बाकी चरमपंथियों के खिलाफ खम ठोंक कर खड़ा है. जिन लोगों ने गौरी लंकेश की आवाज को दबाने की कोशिश की है वे उन लोगों से कम ताकतवर हैं जिन्होंने बीती सदियों में मानवता को हासिल आजादी के अधिकार को कुचलना चाहा. वो लोग हार गए, ये लोग भी हार जाएंगे.

ये लोग हार जाएंगे क्योंकि बहुत कुछ दांव पर लगा है. याद कीजिए, जब कन्हैया कुमार को झूठमूठ के आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया था तो गार्जियन अखबार ने यही तर्क दिया था. गार्जियन ने लिखा कि यह एक लंबी लड़ाई है और लड़ाई की जो रेखा खींची है उसके इस पार वो लोग हैं जो एक लोकतांत्रिक, विविधता-पसंद, समावेशी तथा समतामूलक भारत का सपना संजोए हैं और लड़ाई की रेखा के उस तरफ वो लोग हैं जिनके लिए राष्ट्रवाद, धार्मिक दावेदारी और भयावह पूंजीवाद के एक घातक घोल में बदल गया है. जिसके तांडव के आगे ना तो गिरती हुई लाशों की तादाद मायने रखती है और ना ही समाज में बढ़ती गैर-बराबरी के संकेत करने वाले सूचकांक.

भारत के बारे में यह बात पूरे दावे के साथ कही जा सकती है कि कुछ दशकों के बीतने के साथ हर बार यहां एक-सी लड़ाई ठनती है. चंद दशक के अंतराल से कोई ना कोई विचारधारा या अत्याचारी देश के बुनियादी स्वभाव को बदलने की धमकी देता है. भारत का बुनियादी स्वभाव तो एक सहिष्णु, धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी और समावेशी लोकतंत्र का है. इतिहास ने यही साबित किया है कि आखिरकार भारत के बुनियादी आदर्शों और सिद्धांतों की जीत हुई है.

धर्मांधता, कट्टरता और बहुसंख्यक के दमन के खिलाफ लोहा लेती वीर औरत की मेरी पसंदीदा कहानी गायिका इकबाल बानो की है. जिया उल-हक ने साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी थी, फैज अहमद फैज की शायरी पर भी रोक थी लेकिन इकबाल बानो ने इस पाबंदी को तोड़ा. वो काली साड़ी पहनकर स्टेज पर आईं और फैज अहमद फैज की मशहूर नज्म हम देखेंगे को गाया. उनकी वीरता से प्रभावित होकर हजारों लोगों के भीतर खोया हुआ साहस लौटा और वे अपने निरंकुश शासक के खिलाफ नारे लगाने लगे.

गौरी लंकेश की मौत नागरिक अधिकारों को खत्म करने पर तुलीं शैतानी ताकतों के खिलाफ लड़ाई में ठीक ऐसा ही लम्हा साबित हो सकती है. अगर व्यक्ति की आजादी के हमराहों ने अपना साहस बचाए रखा और हिंदुस्तान के बुनियादी मूल्यों की पक्ष में बोलने के लिए उठ खड़े हुए तो गौरी लंकेश के हत्यारों को अपनी हिंसा के लिए पछताना पड़ेगा.

साहस मानवता को परिभाषित करने वाला गुण रहा है. साहस कभी खत्म नहीं हो सकता, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी की हत्या हो जाने के बाद हमें यह बात याद आती है.