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FTII: अनुपम खेर को गजेन्द्र चौहान जैसी गलतियां दोहराने से बचना होगा

गजेन्द्र चौहान के बाद सरकार ने अनुपम खेर को एफटीआईआई का चेयरमैन बनाया है, उम्मीद है कि अब छात्रों का रोष खत्म होगा

Abhijeet Khuman

संपादकीय नोट: अनुपम खेर को भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) का नया अध्यक्ष बनाया गया. इससे पहले यह जिम्मेदारी गजेन्द्र चौहान की थी. संस्थान के अध्यक्ष के रूप में उनके कार्यकाल के दो सालों पर छात्रों के 139 दिनों के हड़ताल की छाया रही. छात्रों को लगा कि सियासी वजहों से संस्थान के अध्यक्ष के रुप में एक ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति की गई है जो इस शीर्ष संस्था को नेतृत्व देने के काबिल नहीं है. गजेन्द्र चौहान के कार्यकाल के खत्म होने के इस वक्त में अभी यह साफ नहीं है कि उनकी सेवा को आगे और विस्तार दिया जाएगा नहीं- ऐसे में सुनिए एफटीआईआई के एक छात्र की जुबानी कि गजेन्द्र चौहान का कार्यकाल कैसा साबित हुआ.

कैसा रहा चौहान का कार्यकाल?


छात्रों की हड़ताल 11 जून 2015 के दिन शुरू हुई. जिस एफटीआईआई को मैं जानता हूं मेरे मन में उसको लेकर अब दो खांचे बन गए हैं. एक हड़ताल से पहले का एफटीआईआई और दूसरा हड़ताल के बाद का. हड़ताल के बाद वाले वक्त में एफटीआईआई में चीजें बड़ी तेजी से बदलीं.

गजेन्द्र चौहान ने 7 जनवरी 2016 के दिन जब हमारे परिसर का दौरा किया तब हम गेट के बाहर विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे. शहर की पुलिस ने छात्रों को गिरफ्तार कर लिया. हमें पूरे दिन पुलिस थाने में रखा गया, कुछ छात्रों की पुलिस ने पिटाई भी की. अब हम जब भी किसी गलत चीज के विरोध में आवाज उठाने की बात सोचते हैं तो वही भयावह तस्वीरें हमारे मन में उमड़ने लगती हैं.

जो छात्र फिलहाल कैंपस में हैं वे हमें बताते हैं कि उन्हें सुरक्षित महसूस नहीं होता. मुझे नहीं लगता कि वैसे वातावरण में भी कोई काम कर सकता है. एफटीआईआई में हमारी हड़ताल 139 दिनों तक चली और कई मायनों में हमने अपना मकसद हासिल भी किया.

हमारा मकसद वहां चल रही चीजों पर सवाल उठाना था. हमारा मकसद कभी भी ये नहीं था कि हम इस बंदे को हटा कर ही रहेंगे! अगर कुछ गलत है तो हमें सवाल उठाना ही चाहिए. अगर आप सवाल नहीं उठाते तो फिर आप अच्छे नागरिक नहीं हैं. और, यह एक ऐसी बात है जिसे हम फिल्में बनाकर और कहानियां सुनाकर आगे के दिनों में भी करना जारी रखेंगे.

अभी नहीं तो कभी नहीं

साल 2015 के जून में जब हमने अपनी हड़ताल शुरू की तो मन में भावना यह चल रही थी कि अगर हम अभी नहीं बोले तो फिर हमें कभी बोलने नहीं दिया जाएगा. हमारे लिए यह एकदम ही नया अनुभव था कि अगर आप कुछ कहते हैं तो फिर आप पर एक नाम और थोप दिया जाएगा. आपको किसी खास विचारधारा का मान लिया जाएगा.

भले ही आपको पता ना हो कि आप किस विचारधारा को मानते हैं लेकिन लेफ्टिस्ट या फिर नक्सलाइट या ऐसे ही किसी नाम से आपकी ब्रांडिंग कर दी जाएगी. यह बड़ा परेशान करने वाला अनुभव था. इसके साथ ही मुक्ति का एक अहसास भी जुड़ा था. मुक्ति का अहसास इसलिए कि उसी घड़ी हमने जाना कि जब भी हम आवाज उठाएंगे तो ताकत के जोर पर हमारी आवाज दबाने की कोशिश होगी. लेकिन हमें ऐसी ताकत से डरने की जरूरत नहीं है. हमें तब भी सवाल उठाने की जरूरत होगी, हमें तब भी सही बात कहने और करने की जरूरत होगी.

जब सच साबित हुईं आशंकाएं 

क्या भय की जिस भावना के कारण हमने हड़ताल करने का फैसला किया वह बेबुनियाद थी? ना, मुझे लगता है कि हमारी आशंकाएं सच साबित हुईं. (गजेन्द्र चौहान के अध्यक्ष बनने के कुछ समय बाद) छात्रों ने लैंगिक-समानता (जेंडर इक्वालिटी) के विषय पर एक फिल्म-फेस्टिवल आयोजित करने की अनुमति मांगी. लेकिन निदेशक ने हमें अनुमति नहीं दी.

इसकी जगह महाभारत को लेकर एक फेस्टिवल आयोजित किया गया (संयोग देखिए कि गजेन्द्र चौहान ने टीवी सीरियल महाभारत में युधिष्ठिर की भूमिका निभायी थी). ऐसा नहीं कि महाभारत को लेकर मेरे मन में कोई ऐतराज है लेकिन अभी की हालत को देखते हुए माना जा सकता है कि लैंगिक समानता के विषय पर लोगों को संवेदनशील बनाने की जरुरत कहीं ज्यादा है.

हममें से जिन लोगों ने हड़ताल में भागीदारी की उन्हें प्रशासन ने निशाना बनाया. हमलोगों में से जिन 35 छात्रों पर अदालत में मुकदमा दायर हुआ वह अब भी लंबित है. हमारी साथ बुरा सलूक हुआ. जब कोई आपको ‘राष्ट्र-विरोधी’ या ‘नक्सलाइट’ कहकर पुकारता है तो निश्चित ही आपको अच्छा नहीं लगता.

लेकिन ऐसा करने का अब आम चलन बन चुका है. लेकिन कुछ व्यावहारिक बातें भी थीं. हड़ताल में भाग लेने वाले छात्रों के स्कॉलरशिप रोक दिए गए. उन्हें एक्सचेंज-प्रोग्राम के तहत मिलने वाले मौके से वंचित किया गया. जिन शिक्षकों ने हड़ताली छात्रों का साथ दिया था उनमें से कईयों के कॉन्ट्रैक्ट रिन्यू नहीं हुए.

खत्म हुई आजादी

आजादी और कला-रचना से जुड़ी जो छूट हमें पहले हासिल थी वो अब एफटीआईआई में नहीं है. मिसाल के लिए, सरकारी काउंसिल अब एक नया नियम लाने पर विचार कर रही है. इस नियम में है कि एकेडमिक काउंसिल में छात्रों की कोई भूमिका नहीं होगी. लेकिन यह तो बड़ी बेतुकी बात है.

एफटीआईआई की शुरुआत के वक्त से एकेडमिक काउंसिल में छात्र एक बड़ी भूमिका निभाते आए हैं. सिलेबस को चुनने, उसे एक शक्ल देने और अमल में लाने में छात्रों की बड़ी भूमिका रहती आई है. दरअसल छात्रों और विशेषज्ञों के बीच जुड़ाव के कारण ही एफटीआईआई बाकी जगहों की तुलना में इतना ज्यादा अच्छा है.

एक बात यह भी है कि अगर आजादी ही छीन ली गई तो फिर नए सिलेबस या फिर डिजिटल उपकरण लाने का मतलब ही क्या रह जाता है ? किसी कला-रचना की पहली जिम्मेदारी तो यही बनती है कि वह हमारे समाज की सच्चाइयों का अक्स बने.

अगर छात्रों को ऐसा करने की आजादी नहीं तो फिर मुझे नहीं लगता कि नया सिलेबस मददगार साबित होगा. बुनियादी सुविधाएं चाहें जितनी बेहतर हों लेकिन अगर आपके ख्याल आजाद ना हों तो फिर किसी बेहतरी की उम्मीद मत कीजिए.

क्या नया सिलेबस ही है उपलब्धि?

अगर गजेन्द्र चौहान नए सिलेबस और डिजिटल कैंपस को अपनी उपलब्धि समझते हैं, तो बेशक वे ऐसा समझें. लेकिन अगर कोई समझता है कि सिर्फ डिजिटलीकरण पर ध्यान लगाने से किसी कला-रचना का भला होगा तो उसका ऐसा सोचना एक भोलापन ही कहलाएगा क्योंकि कलाकार का काम उपकरणों पर आधारित नहीं होता.

बेशक उपकरण के इस्तेमाल के सहारे बेहतर नतीजे हासिल किए जा सकते हैं लेकिन अगर विचार, धारणा और आजाद होकर सोचने की सलाहियत ना हो तो फिर एफटीआईआई से कोई बेहतर कला-रचना की हम उम्मीद कैसे लगा सकते हैं ?

एफटीआईआई में हुए विराध-प्रदर्शन के बाद कई स्कूल और कॉलेजों में सरकार के खिलाफ विरोध की आवाज बुलंद हुई. और इसकी सख्त जरूरत थी. बहुत लोगों ने हमसे पूछा कि आखिर आप लोगों को इस हड़ताल से क्या हासिल हुआ. आप लोगों ने भूख हड़ताल भी कर ली, पर क्या मिला ? गजेन्द्र चौहान वहीं का वहीं है.’

मैंने ऐसे लोगों के सामने यह बताना बंद कर दिया कि हड़ताल किसी एक आदमी के खिलाफ नहीं थी, बल्कि इसका दायरा बड़ा था. अगर हम देखें कि फिलहाल देश में क्या हो रहा है. दिल्ली से लेकर हैदराबाद तक क्या कुछ चल रहा है, तो फिर निश्चित समझिए कि इसके बारे में बिना विवाद खड़ा हुए आप एक शब्द नहीं कह सकते.

बिना सियासी एजेंडे के किया विरोध

ऐसा नहीं है कि हर किसी का कोई ना कोई सियासी एजेंडा है. हमारा भी कोई सियासी एजेंडा नहीं है. जब हमने हड़ताल की, उस वक्त हमारा किसी राजनीतिक संगठन या विचारधारा से जुड़ाव नहीं था. हमें जो चीज ठीक लग रही थी, हम बस उसको बचाने के लिए लड़ रहे थे.

लोग मान सकते हैं कि हमारे आस-पास जो चीजें हो रही हैं उनका एफटीआईआई के वाकये से कोई रिश्ता नहीं है. लेकिन हमें लगता है कि उस (हड़ताल) वक्त हम जो कुछ कह रहे थे उसका हाल-फिलहाल की बातों से कोई ना कोई जुड़ाव है.

सब कुछ भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति से जुड़ा था. उन विचारों और जज्बातों को जाहिर करने से जिसे आप अपनी फिल्म के निर्माण के लिए जरूरी मानते हैं. हमारी मंशा किसी को परेशान करने की नहीं थी. हम एक किस्म का सांस्कृतिक संवाद बनाना चाहते थे जिसमें तमाम विचारधाराएं संग-साथ रह सकें.

एक ऐसा परिवेश जिसमें अलग-अलग विचारधाराओं के लोग एक दूसरे से बोल-बतिया सकें. बगैर एक-दूसरे से नफरत पाले आपसी फर्क भी कर पाएं. पिछले महीने एफटीआईआई में हमलोग अपनी हड़ताल की वर्षगांठ मना रहे थे. हमने उस वक्त फैसला किया कि देश में जहां कहीं भी छात्र अपनी आवाज उठाते हैं, हम उनका समर्थन करेंगे. हम उनके साथ सहयोग की भावना के साथ खड़े होंगे.

जो कोई नया अध्यक्ष बनेगा उससे हमारी बहुत सारी उम्मीदें होंगी.

हमें उम्मीद है कि जिस किसी को भी अगला अध्यक्ष बनाया जाएगा उसकी योग्यता संदेह से परे होगी, उसे कला से जुड़ी संवेदनशीलता की समझ होगी और वह संस्थान का सम्मान करेगा. संस्थान में बहुत सारे काम होने बाकी हैं जिनका रिश्ता कर्मचारियों से है और छात्रों पर चल रहे मुकदमे से है. उन नियम-कायदों को भी बदलने का मसला है जो छात्रों के हित में नहीं हैं. सो, देखते हैं कि आगे क्या होता है.

जाने क्या होगा आगे?

हमारे खिलाफ मुकदमा अब भी लंबित है इसलिए मुझे नहीं पता कि आगे क्या होगा. हड़ताल में भागीदारी को लेकर निजी तौर पर मुझे गर्व महसूस होता है. मुझे लगता है कुछ भी गलत महसूस हो तो उसके खिलाफ आवाज उठाना हर नागरिक का फर्ज बनता है.

अगर आप चुप रहे, आपने अपना मुंह बंद रखा तो आपकी आजादी पर हमले होंगे. आज नहीं तो कल इसका आपके ऊपर असर होगा. भले ही आज आपको लगता हो कि यह लड़ाई मेरी नहीं है, यह तर्क मेरा नहीं है, इसका कोई मेरे ऊपर असर नहीं होने जा रहा तो फिर मैं इसके बारे में क्यों बोलूं?

जब हम दूसरे संस्थानों के छात्रों से अपनी हड़ताल को लेकर समर्थन मांग रहे थे तो हमें भी इस बात का सामना करना पड़ा. कहा गया कि ‘यह हमारी लड़ाई नहीं है, यह तो सिर्फ एक संस्था की बात है, सवाल तुम्हारे संस्थान के अध्यक्ष का है तो फिर हम इसके खिलाफ क्यों आवाज उठायें?’

लेकिन अब मुझे पक्का यकीन हो चला है कि अगर आप नजर दौड़ाएं तो आपको जान पड़ेगा कि हमारी हड़ताल का रिश्ता किसी एक व्यक्ति से नहीं था बल्कि घटनाओं का एक पूरा सिलसिला ही इससे बावस्ता है. अब जबकि उनकी खुद की आजादी पर हमले हो रहे हैं तो बाकी छात्रों को भी समझ में आ रहा है कि कुछ बुरा हो रहा हो तो उसके खिलाफ आवाज उठाना क्यों जरूरी है.

(लेखक एफटीआईआई के छात्र हैं और एफटीआईआई में 2015 में 139 दिनों तक चली हड़ताल के अग्रणी मोर्चे पर थे. यह लेख मार्च में छप चुका है.)