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विधायिका और न्यायपालिका के बीच जूझते मौलिक अधिकार

क्या 150 साल बाद भी हम अंग्रेज साम्राज्यवादी शासकों द्वारा बनाए गए कानून को ही आज के लोकतंत्र की बदली परिस्थिति में अक्षरशः मानते और ढोते रहेंगे

Jyotika kalra

इस महीने माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 ’अप्राकृतिक अपराध’ पर दिए गए निर्णायक निर्णय से भारत विश्व का 122वां देश बन गया है जहां अप्राकृतिक संबंध अपराध नहीं है. दुनिया के दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले देश में मौलिक अधिकारों जिसमें अपनी इच्छा अनुरूप यौन संबंध बनाने की स्वतंत्रता, निजता और बराबरी के अधिकारों के लिए यह एक बड़ी जीत है. न्यायाधीशों ने अपने सर्वसम्मत फैसले में कहा कि आपसी सहमति से बने अप्राकृतिक संबंध अब अपराध नहीं हैं. इस विषय पर चर्चा अत्यंत प्रासंगिक है.

लगभग 150 वर्ष पूर्व जब अंग्रेजी राज के दौरान मैकाले द्वारा 1860 में भारतीय दण्ड संहिता बनाई गई तब ’प्रकृति के नियम के विरुद्ध इन्द्रीय संभोग’ को अपराध की श्रेणी में रखा गया. इस प्रसंग में एक बड़ा सवाल यह उठता है कि स्वेच्छा से किया गया अलग प्रकार का यौन संबंध अपराध क्यों माना गया होगा? समाज के किस वर्ग को अलग प्रकार के यौन संबंधों से खतरे की आशंका होगी? क्या इस प्रकार के कानून से अलग प्रकार के यौन संबंधों को रोका जा सका? अपराध तो दूर, भारतीय चिंतन तो काम को लेकर व्यापक दृष्टि रखता है. यहां ‘काम’ व्यापक अर्थ में न केवल एक पुरुषार्थ माना गया बल्कि भारत के कई मंदिरों के भित्ति चित्र संभोग के दृश्य से सजाए भी गए. खजुराहो के विश्व विख्यात मंदिर इस तरह की विभिन्न मुद्राओं के साक्षी हैं.


भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 में ‘अप्राकृतिक अपराध’ की व्याख्या अपने आप में कोई व्याख्या नहीं है क्योंकि इसमें इस्तेमाल की गई शब्दावली को परिभाषित नहीं किया गया. संहिता में परिभाषित न करके विधायिका ने इस धारा की व्याख्या को न्यायपालिका के विवेक पर छोड़ दिया. इस स्थिति में न्यायपालिका को धारा में इस्तेमाल की गई शब्दावली को परिभाषित करने की पूरी छूट दी गई.

धारा 377 के प्रभावी अनुपालन के लिए ’प्रकृति के नियम के विरुद्ध इन्द्रीय संभोग’ में ’प्रकृति के नियम’ को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना आवश्यक है. अगर 150 वर्षों में विधायिका ’प्रकृति के नियम के विरुद्ध’ को परिभाषित करने में असमर्थ रही तो यह मान लिया जाना चाहिए कि कहीं भी, कोई ऐसा स्रोत नहीं है जहां से ’प्रकृति के नियम’ की प्रमाणिक परिभाषा मिल सके.

मोटे तौर पर मानें तो ’प्रकृति के नियम के विरुद्ध इन्द्रीय संभोग’ में भावना यह रही होगी कि अगर संभोग से बच्चा पैदा होने की संभावना नहीं है तो वह प्रकृति के नियम के विरुद्ध है. धारा 377 केवल एल.जी.बी.टी. समुदाय को ही संबोधित नहीं करती अपितु पुरुष और स्त्री के बीच के संबंधों को भी अपराध की श्रेणी में ले जा सकती है. अगर यह कानून अस्तित्व में रहता है तो संभवतः बहुत से परिवारों में धारा 377 के तहत अपराध घटित होने की आशंका बनी रहेगी.

यह कानून ब्रिटिश इंडिया में बगरी एक्ट, 1533 से आया, बगरी एक्ट में 'भगवान की इच्छा के विरुद्ध अप्राकृतिक संभोग' को अपराध माना गया. इस बगरी एक्ट, 1533 को 'ऑफेंसस अगेंस्ट द पर्सन एक्ट, 1828’ से बदल दिया गया. फिर 1828 के ’ऑफेंसेस अगेंस्ट द पर्सन एक्ट’ को ’ऑफेंसेस अगेंस्ट द पर्सन एक्ट, 1861’ से बदल दिया गया. अतिशयोक्ति देखिए कि अंग्रेजों द्वारा अप्राकृतिक यौन संबंध से संबंधित कानून आज भी हमारी दण्ड संहिता में है जबकि लगभग 51 वर्ष पूर्व अंग्रेजों ने सेक्सुअल ऑफेंसेस एक्ट, 1967 के द्वारा इस कृत्य को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया.

भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति श्री दीपक मिश्रा की अगुवाई में उच्चतम न्यायालय ने ’नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ के फैसले में धारा 377 को संविधान की भावनाओं के विरुद्ध पाया. इसी फैसले में उच्चतम न्यायालय द्वारा पहले दिए गए फैसले 'सुरेश कौशल बनाम नाज़ फाउण्डेशन', जिसके द्वारा धारा 377 को संवैधानिक घोषित किया गया था, को खारिज कर दिया. इस फैसले में तय किया गया कि न्यायपालिका का दायित्व है कि वह सभी के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित करे ताकि हर व्यक्ति मानवोचित गरिमामय जीवन जी सके.

न्यायालय ने यह भी तय किया कि सेक्सुअल ओरिएंटेशन एक प्राकृतिक क्रिया है जो किसी व्यक्ति के सचेत प्रयास कि परिधि से परे है. 'पुट्टा स्वामी' के फैसले, जिसमें 'निजता के अधिकार' को मूल अधिकार का दर्जा दिया गया, को आधार बनाते हुए, न्यायालय ने तय किया कि हर व्यक्ति का अधिकार है कि वह जिस तरह भी चाहे अपने आप को प्रस्तुत कर सकता है.

न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने इसी फैसले में यह बात भी कही कि विधायिका ने अपना काम न्यायपालिका पर डाल दिया और विधायिका अपने काम को करने से बची रही. यह वास्तविकता है कि कानून को बनाना या बदलना विधायिका का अधिकार है साथ ही, न्यायपालिका का भी यह उत्तरदायित्व है कि अगर किसी कानून से मौलिक अधिकारों का हनन हो तो उस कानून को निरस्त घोषित करे.

इस तरह, यदि विधायिका अनुच्छेद 377 को दण्ड संहिता से हटाने में असफल रही है तो न्यायपालिका भी कुछ कम नहीं रही. उसने भी अपने लिए विहित दायित्व का निर्वाह करने में 17 से ज्यादा वर्षों का समय लगा दिया.

धारा 377 को चुनौती देने वाली याचिका, दिल्ली उच्च न्यायालय में 2001 में नाज फाउण्डेशन द्वारा डाली गई. 2003 में, उच्च न्यायालय द्वारा इस याचिका को खारिज कर दिया गया. याचिकाकर्ता उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय गए तथा उच्चतम न्यायालय ने मामले को पुर्नविचार हेतु उच्च न्यायालय को वापिस भेजा. 2009 में न्यायमूर्ति अजीत प्रकाश शाह तथा न्यायमूर्ति एल. मुरलीधरन द्वारा एक ऐतिहासिक निर्णय आया, जिसमें न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि धारा 377 जो वयस्कों के यौन संबंधों को आपराधिक कृत्य ठहराता है, संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों-अनुच्छेद 14 (बराबरी का अधिकार), 15 (भेदभाव न होने का अधिकार) तथा 21 (जीवन जीने का अधिकार) का स्पष्टतः उल्लंघन करता है.

उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरुद्ध कई व्यक्तियों ने उच्चतम न्यायालय में अपील की, जिनमें से एक सुरेश कौशल भी थे. ’सुरेश कौशल’ के मामले में दिए निर्णय में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को यह कहते हुए पलट दिया गया कि धारा 377 किसी भी तरह असंवैधानिक नहीं है. ’सुरेश कौशल’ निर्णय में धारा 377 को संवैधानिक मानने का एक मुख्य कारण यह भी था कि ’एल.जी.बी.टी. समुदाय’ पूर्ण जनसंख्या का बहुत ही नगण्य हिस्सा है. यह बात किसी कि भी समझ से परे है कि कैसे असंवैधानिक कानून से प्रभावित होने वाले व्यक्तियों की कम संख्या, कानून को संवैधानिक रखने का आधार हो सकता है.

आज जिस निर्णय का इतने बड़े स्तर पर स्वागत हुआ वहीं 2014 में जब शशि थरूर, तत्कालीन लोकसभा सदस्य ने इस विषय से संबंधित ’प्राइवेट मेम्बर बिल’ सदन में प्रस्तुत करना चाहा तो इस बिल को सदन के पटल पर प्रस्तुत होने से पहले ही ख़ारिज़ कर दिया गया.

असली मुद्दे की और गंभीर विचार की अपेक्षा करने वाली बात यह है कि क्या 150 साल बाद भी हम अंग्रेज साम्राज्यवादी शासकों द्वारा बनाए गए कानून को ही आज के लोकतंत्र की बदली परिस्थिति में अक्षरशः मानते और ढोते रहेंगे या फिर यह मानेंगे कि भारत का संविधान एक ऊर्जस्वी और जीवन्त दस्तावेज है, जो संवेदनशील है, बदलते समय के अनुरूप समाज की मानसिकता में होते परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए तदनुसार अपने को ढालने में सक्षम है. यह आज का यक्ष प्रश्न है जिसकी उपेक्षा करना हितकर नहीं होगा.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)