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जंगल घोटाला: उत्तराखंड में वन अधिकारियों और तस्करों ने मिलकर की पेड़ों की तस्करी

उत्तराखंड में जंगल के संसाधनों की लूट जारी है. जांच होने पर ये बड़ा घोटाला साबित हो सकता है

Yatish Yadav

वन विभाग के अधिकारियों ने तस्करों के साथ सांठगांठ कर नेपाल सीमा से सटे उत्तराखंड के चंपावत इलाके में बड़े पैमाने पर बेशकीमती वन संपत्तियों को बेच दिया. इसकी शुरुआत 6 साल पहले ही हो चुकी थी. इस सिलसिले में उत्तराखंड के पर्यावरण मंत्री हरक सिंह रावत को 5 मार्च 2018 को विस्तृत जांच रिपोर्ट सौंपी गई. इस लंबी रिपोर्ट में बताया गया है कि जंगल में मौजूद पेड़ों की तस्करी में वन विभाग के बड़े अधिकारी भी शामिल हैं. तस्करों ने जिन पेड़ों को तस्करी (स्मगलिंग) का शिकार बनाया, उनमें देवदार और साल के पेड़ हैं. इन दोनों पेड़ों की बाजार में ऊंची कीमत मिलती है. खास तौर पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में तो ये पेड़ काफी महंगे बिकते हैं.

लाइसेंस की आड़ में तस्करी का संगठित नेटवर्क


फर्स्टपोस्ट ने भी इस रिपोर्ट की प्रति हासिल कर इसका जायजा लिया है. इसमें खुलासा किया गया है कि वैध लाइसेंस की आड़ में तस्करी के संगठित नेटवर्क के जरिये इस काम को अंजाम दिया गया. ये लाइसेंस मूल रूप से जंगल में रहने वाले लोगों और इससे सटे गांवों के लोगों को दिए गए थे. इसके तहत इन लोगों की जमीन पर मौजूद पेड़ों को सीमित तरीके से बेचने की इजाजत दी गई थी. हालांकि, लाइसेंस का जमकर गलत इस्तेमाल हुआ और बड़ी संख्या में पेड़ों को काटकर और इसे वन संरक्षण वाले इलाके से निकालकर इसकी स्मगलिंग की गई. इस सिस्टम में मौजूद सभी लोगों से थोड़ी-थोड़ी मदद लेकर इस अवैध काम को अंजाम दिया गया.

चूंकि यह इलाका दुर्गम है, लिहाजा संदेहास्पद अधिकारियों के खिलाफ सबूत इकट्ठा करने के लिए इस मामले की जांच में चुनिंदा ठिकानों का इस्तेमाल किया गया. प्रशासन में भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी थीं कि चंपावत के डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट ऑफिसर (डीएफओ) ए. के. गुप्ता रिश्वत के लिहाज से आकर्षक इसी पद पर बने रहना चाहते थे और इसकी खातिर उन्होंने अपना प्रमोशन भी ठुकरा दिया था. राज्य सरकार ने पिछले साल जब उनके प्रमोशन वाला आदेश जारी किया, तो गुप्ता खुद इसके खिलाफ अदालत चले गए. उन्होंने कोर्ट में कहा कि वह प्रमोशन नहीं पाना चाहते.

गोपनीय रिपोर्ट में गुप्ता समेत वन विभाग के बड़े अधिकारियों को सख्त सजा देने की सिफारिश की गई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामलों में कार्रवाई निचले स्तर तक सीमित रह जाती है और सीनियर अधिकारियों का सिर्फ ट्रांसफर होकर रह जाता है. इस तरह से वे बच निकलते हैं.

उत्तराखंड के पर्यावरण मंत्री रावत के ऑफिस को सौंपी गई रिपोर्ट 428/21-5, 05-12-2017 के मुताबकि, 'दस्तावजों की पड़ताल में एक हैरान करने वाला तथ्य सामने आया. डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट ऑफिसर ( ए. के. गुप्ता) यहां पिछले 6 साल से पदस्थापित थे और वह आगे भी इसी पद पर बने रहना चाहते थे. उन्होंने अपने प्रमोशन के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका भी दायर की थी. इस तरह का वाकया अभूतपूर्व है, क्योंकि आम तौर पर सरकारी मुलाजिम अपने प्रमोशन के लिए अदालत जाते हैं.

इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ होगा कि किसी अधिकारी ने अपने प्रमोशन और वेतन में बढ़ोतरी का विरोध करते हुए निचले स्तर पर ही काम करने की इच्छा जताई हो. यह अलग जांच का विषय है कि कोई अधिकारी कम वेतन के साथ निचले पद पर क्यों काम करना चाहता है और अपने प्रमोशन के खिलाफ ही क्यों लड़ रहा है? वित्तीय गड़बड़ियों को ध्यान में रखते हुए यह सवाल और अहम हो जाता है.'

जांच रिपोर्ट के मुताबिक, गुप्ता को जांच अधिकारी के सामने अपना बयान दर्ज करने को कहा गया था, लेकिन बार-बार समन जारी किए जाने के बावजूद वह जांच अधिकारी के सामने नहीं आए. रिपोर्ट में कहा गया है पश्चिम कांतेश्वर जैसे जिले के कुछ इलाकों में एक साल के भीतर 200 बेशकीमती पेड़ काट दिए गए. इस पूरे घोटाले का मामला काफी बड़ा हो सकता है.

सख्त कार्रवाई के लिए वरिष्ठ अधिकारी को है निर्देश का इंतजार

उत्तराखंड के प्रमुख मुख्य वन संरक्षक जय राज ने फर्स्टपोस्ट को बताया कि वह चंपावत में पेड़ों को अवैध रूप से काटे जाने की घटना से वाकिफ नहीं हैं, लेकिन अधिकारी गुप्ता के खिलाफ कई आरोप हैं और उन्हें 'कार्यमुक्त' कर दिया गया है यानी उनके पास किसी भी तरह के काम का प्रभार नहीं है. उनका कहना था कि राज्य सरकार ने इस रिपोर्ट पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है. जय राज ने इस साल फरवरी में वहां ज्वाइन किया था. उन्होंने कहा, 'सरकार सख्त कार्रवाई चाहती है और हम ऊपर से दिशा-निर्देशों का इंतजार कर रहे हैं. इस इलाके के दुर्गम होने के कारण पेड़ों को अवैध रूप से काटे जाने से हुए नुकसान का ठीक-ठीक आकलन करना संभव नहीं है, लेकिन वन विभाग इस गड़बड़ी में शामिल लोगों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए जल्द कदम उठाएगा.'

इस सिलसिले में बात करने के लिए उत्तराखंड के पर्यावरण मंत्री हरक सिंह से संपर्क करने की कई बार कोशिश की गई, लेकिन वह उपलब्ध नहीं हो सके.

जंगल की लूट

जांच रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले 6 साल में अधिकारियों ने पेड़ों की अवैध कटाई की इजाजत देकर वन संपत्तियों को अपूर्णनीय क्षति पहुंचाई है. जांच रिपोर्ट की मानें तो वन विभाग के अधिकारियों ने तस्करों के साथ मिलीभगत कर नर्सरी के भी लाखों पौधों को बेच डाला और आधिकारिक रिकॉर्ड के तहत कागजों पर इसे 'क्षतिग्रस्त' बता दिया.

रिपोर्ट के मुताबिक, 'जंगल के पूरे इलाके और पिछले 6 साल के दौरान इससे जुड़े मामलों की जांच करना संभव नहीं था. हालांकि, 11 सदस्यों वाली दोनों टीमें औचक निरीक्षण करने में सक्षम रहीं और सिर्फ 2017 से जुड़े दस्तावेजों की पड़ताल कर सकीं. जांच रिपोर्ट से यह पूरी तरह साफ है कि वन विभाग द्वारा दिए गए लाइसेंस और जब्त की गई लकड़ियों की मात्रा में भारी अंतर है, जो बड़े पैमाने पर पेड़ों की अवैध कटाई की तरफ इशारा करता है. '

इसमें आगे कहा गया है, 'ऐसा लगता है कि चंपावत के वन विभाग की पूरी मशीनरी इस अवैध गतिविधि में शामिल थी. अधिकारियों की तरफ से तैयार दस्तावेजों से साफ तौर पर इस बात का पता चलता है. चेक पोस्टों पर मौजूद स्टाफ ने भी इस तस्करी में माफियाओं और अधिकारियों की मदद की. इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण सितंबर में पकड़ा गया लकड़ी से भरा ट्रक है. बताया गया कि इस ट्रक में 50 क्विंटल देवदार के पेड़ की लकड़ियां हैं, जबकि इसमें 132 क्विंटल लकड़ी थी और इस ट्रक ने सफलतापूर्वक तीन चेक पोस्ट (चलथी, बस्तिया और ककराली) को पार कर लिया था.'

रिपोर्ट में तस्करी के सिस्टम का खुलासा करते हुए बताया गया कि जंगल में रहने वाले लोगों द्वारा अवैध गतिविधियों को अंजाम देने के लिए उन्हें (जंगल के निवासियों) एक से ज्यादा लाइसेंस जारी किए गए. उदाहरण के तौर पर टल्ली खटोली के निवासी प्रयाग सिंह को अपनी जमीन पर मौजूद पेड़ों को बेचने के लिए 14 फरवरी 2012 और 14 जुलाई 2015 को दो लाइसेंस जारी किए गए. इसी तरह, तानमल्ला गांव के निवासी चेतराम को चार लाइसेंस जारी किए गए. उन्हें ये लाइसेंस 30 अगस्त 2013, 4 फरवरी 2015, 20 अक्टूबर 2015 और 10 मार्च 2017 को जारी किए गए. जांच टीम ने इस सिलसिले में गांव के लोगों से भी बातचीत की.

इस बातचीत के आधार पर टीम ने संकेत दिए हैं कि लाइसेंस और ट्रांसपोर्ट की सुविधा के लिए अवैध रूप से परमिट हासिल करने, जंगल के संरक्षित इलाके से बड़े पैमाने पर लकड़ियां लाने और इसे बाजार में ऊंची कीमत पर बेचने के काम में वन विभाग के अधिकारियों और स्मगलर्स की सांठगांठ है. अगर इस इलाके के एक गांव के किसी शख्स की जमीन पर 4 पेड़ हैं, तो वन विभाग के अधिकारियों ने स्मगलर्स की मदद करते हुए संरक्षित वन क्षेत्र से 100 पेड़ काटने की इजाजत दे दी. साथ ही, 4 पेड़ों के लाइसेंस के दस्तावेजों के आधार पर अधिकारी इन लकड़ियों की बाजार में बेरोकटोक एंट्री का भी इंतजाम कर देते थे. रिपोर्ट की मानें तो जंगल के इस इलाके से काटी गई इन लकड़ियों का बड़ा हिस्सा तस्करी के जरिये नेपाल भेजा जाता है और कुछ को राज्य के स्थानीय बाजार टनकपुर में भी बेच दिया जाता है.

निगरानी के लिए पर्याप्त संख्या में नहीं हैं स्टाफ

कुबेर सिंह बिष्ट ने हाल में चंपावत के डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट अधिकारी की जिम्मेदारी संभाली है. बिष्ट ने फर्स्टपोस्ट को बताया कि उन्होंने स्मगलर्स पर कार्रवाई के जरिये शिकंजा कसना शुरू कर दिया है, लेकिन यूनिट में स्टाफ की संख्या कम होने के कारण कार्रवाई पर तेजी से अमल में दिक्कत होती है.

उन्होंने बताया, 'मेरे इलाके में जंगल का विशाल क्षेत्र है, जो नेपाल सीमा तक फैला हुआ है. हालांकि, अवैध गतिविधियों पर नजर रखने के लिए सिर्फ 100 स्टाफ हैं. वन संरक्षण वाले पूरे इलाके में नजर रखना नामुमिकन है. बहरहाल, हम पेड़ों की अवैध कटाई और स्मगलिंग को खत्म करने की हरमुमकिन कोशिश कर रहे हैं. '

जांच रिपोर्ट से संबंधित पेज 6 के पैराग्राफ 4 में पेड़ों की कटाई और इसकी लकड़ियों को गांव वालों द्वारा बेचे जाने के लिए लाइसेंस जारी करने में शामिल अधिकारियों पर काफी सख्त टिप्पणी की गई है. इसमें कहा गया है, 'चंपावत रीजन के पूरे वन विभाग ने बिना जांच-पड़ताल किए आवेदनों को मंजूरी दे दी और दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिए. उन्होंने (वन विभाग के अधिकारियों) यह पता लगाने के लिए गांवों का निरीक्षण नहीं किया कि आवेदन में बताई गई जानकारी के मुताबिक क्या उनकी जमीन पर उतनी ही बड़ी संख्या में पेड़ मौजूद हैं. यह बिल्कुल संभव नहीं है कि इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए गांव वालों के पास पर्याप्त संख्या में पेड़ होंगे. जांच के दौरान भी पेड़ों की संख्या के मामले में भारी अंतर पाया गया. वन संरक्षित क्षेत्र के पेड़ों की अवैध कटाई के जरिये इस अंतर को पाटा गया.'

जांच रिपोर्ट के अनुलग्नक 'ए' के पैराग्राफ 2.2 के मुताबिक, अधिकारियों को जांच में सहयोग के लिए साफ तौर पर निर्देश जारी किए गए थे. इस निर्देश के बावजूद रेवेन्यू अधिकारी जानबूझकर जांच प्रक्रिया के दौरान गायब रहे. मिसाल के तौर पर अनुलग्नक 'ए' के पेज 8 के टेबल में 3 में बताया गया कि मदयोली गांव में लाइसेंस के जरिये वैध रूप से पेड़ मालिक द्वारा 3 पेड़ काटने की इजाजत दी गई थी. बाद में जब जांच टीम ने जब वहां के सबसे पास के पालविलोन वन संरक्षित क्षेत्र का दौरा किया, तो वहां 47 पेड़ों के ठूंठ पाए गए.

इसी तरह, बालटाडी (Balatadi) में वैध रूप से 13 पेड़ों को काटा गया, जबकि अधिकारियों ने पाया कि पास के संरक्षित इलाके में 128 पेड़ों के अवशेष मिले. अधिकारियों ने आशंका जताई है कि इन पेड़ों को अवैध रूप से काटकर इनकी स्मगलिंग की गई. देवीधुरा वन क्षेत्र की औचक जांच के दौरान जांच टीम ने पाया कि लाइेंसस मिलने के बाद 8 पेड़ों को गिराया गया था, लेकिन अधिकारियों को पास के वन संरक्षित क्षेत्र में 167 बेशकीमती पेड़ों के नुकसान की जानकारी मिली.

औचक जांच के दौरान टीम ने पेड़ों की पहचान कर सूख चुके पेड़ों को चिन्हित कर दिया था. जांच टीम का सीधे तौर पर कहना था कि विभिन्न वन संरक्षित क्षेत्रों में पेड़ों की स्मगलिंग के काम में बड़े पैमाने पर संगठित नेटवर्क शामिल है. जांच रिपोर्ट के पेज 16 के पैराग्राफ 2.4.2 में पेड़ों की अवैध कटाई से जुड़े गिरोह के काम करने के तरीकों पर विस्तार से जानकारी दी गई है.

इसमें कहा गया है, 'रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि गांव वाले एक शख्स के खेत से पाए गए पेड़ों के ठूंठ और ट्रकों पर ढोई गई लकड़ियों की मात्रा संबंधी कागजों के रिकॉर्ड में भारी अंतर है. ऐसा लगता है कि इस अंतर की वजह वन संरक्षित क्षेत्रों से पेड़ों की कटाई है.'

पैराग्राफ 2.4.5 में कहा गया है कि संबंधित वन अधिकारी ने देवीधुरा और भीगरादा (Bhigrada) वन क्षेत्र में ट्रांसपोर्ट वाउचर जारी किया, लेकिन इसे किसी अन्य स्टाफ ने न तो इसे प्रमाणित किया और न ही किसी ने इसकी पुष्ट की. रिपोर्ट के मुताबिक, यह इस बात का साफ संकेत है कि पेड़ों की स्मगलिंग को बढ़ावा देने के लिए पूरी प्रक्रिया के कायदे-कानून से समझौता किया गया. रिपोर्ट से जुड़े अनुलग्नक 'बी' के पेज 468 में जांचकर्ताओं द्वारा कुकदौनी, नीद, हराम, रेसांग, आमगूंठ, सल्ली और मोनपोखरी जैसे गांवों की स्थिति की जांच की गई.

जांच में बड़े पैमाने पर देवदार के पेड़ों की अवैध कटाई का मामला पाया गया. हालांकि, टीम ने अपनी ग्राउंड रिपोर्ट में बिजनेसमैन और वन अधिकारियों के बीच सांठगांठ को लेकर अहम टिप्पणियां की हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, इन पूरी गतिविधियों को वैध बनाने के लिए गांव वालों का शोषण किया जाता है.

रिपोर्ट में आगे कहा गया है, 'दूरदराज के और दुर्गम इलाकों में अधिकांश आबादी शहरों में पलायन कर गई है और बाकी बचे-खुचे लोग पशुओं और जंगल के उत्पादों पर निर्भर हैं. भोले-भाले गांव वाले इस बात को समझे बिना इन उत्पादों को इकट्ठा करते हैं कि यह उनकी अपनी जमीन का है या वन संरक्षित क्षेत्र का. वन विभाग के अधिकारियों से सांठगांठ कर कारोबारी लकड़ियों को गाड़ी पर ले जाने के लिए जरूरी कागजात हासिल कर लेते हैं और इस तरह से बहुमूल्य चीजें अवैध तरीके से बाजार में पहुंच जाती हैं. यह काम बिना किसी रोक-टोक के लगातार जारी है.'