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'लाठी गोली खाएंगे, फिर भी आगे जाएंगे' के नारे क्यों लगा रहे हैं किसान?

अगर यही हाल रहा तो भारत में बहुत जल्द ही कृषि का कॉर्पोरेटाइजेशन होने वाला है.

Jyoti Yadav

The Earth, that's Nature's Mother, is her tomb·

What is her burying grave, that is her womb. '


- FRIAR LAWRENCE, Romeo and Juliet (Act2/Scene 3)

प्रकृति की मां धरती ही उसकी कब्र भी है. जो कब्र है, वही गर्भ है. शेक्सपियर के नाटक रोमियो और जूलियट के एक दृश्य में फ्रायर लॉरेंस कहता है. यही बात दिल्ली के रामलीला मैदान में किसान कह रहे हैं. रामलीला मैदान में आठ बजे रात को ‘‘छोरा गंगा किनारे वाला” गाना बजने लगा. मंच के ऊपर से उद्घोषक समां बांध रहा था. मंच के ऊपर कुछ उत्साही युवा चढ़ गए और उन्होंने विरोध प्रदर्शन की जगह को डीजे फ्लोर की शक्ल दे दी. मंच के चारों तरफ अन्य युवाओं का झुंड इनको घेरे खड़ा था. जिससे मंच के सामने और बगल में बैठे किसानों को देखने में दिक्कत हो रही थी. कुछ किसान अपनी जगह से उठकर आए और उन्होंने युवाओं से हटने का आग्रह किया ताकि प्रोग्राम बाकी लोगों को भी दिख सके. लेकिन युवाओं ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया. इनमें से कुछ युवाओं से बात करने पर पता चला कि ये लोग दिल्ली में शिक्षारत या रोजगारोन्मुख थे और भारतीय मिडिल क्लास से जुड़े थे और किसान आंदोलन को समर्थन देने आए थे.

यहीं पर हमारे देश की विडंबना सामने आती है. मिडिल क्लास के जो युवा एक जबर्दस्ती का डीजे बजने पर किसानों के देखने के लिए अपनी जगह से नहीं हट सकता तो क्या ये मिडिल क्लास किसानों के कर्ज माफी और उनकी सब्सिडी के लिए राजी होगा? क्योंकि किसानों को सरकार के जरिए इस तरीके की मदद मिडिल क्लास की जेब भी ढीली कराएगी. योगेंद्र यादव ने अपनी किताब ‘मोदीराज में किसान- डबल आमद या डबल आफत’ में साफ-साफ लिखा है कि मिडिल क्लास यानी मुख्य उपभोक्ताओं के डर की वजह से सरकार पॉलिसी मेकिंग में किसानों को दरकिनार करती है.

28 नवंबर से ही दिल्ली के रामलीला मैदान में देश भर से किसान इकट्ठा हो रहे हैं. 29 नवंबर को रामलीला मैदान में गाने-बजाने के साथ किसानों का धरना शुरू हो गया. 30 नवंबर को किसानों की ये भीड़ रामलीला मैदान से संसद मार्ग की तरफ मार्च कर रही है. बताया जा रहा है कि 2017 में बनी संपूर्ण भारत किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले देश भर के 207 किसान-पार्टियों और समितियों के लोग यहां पर इकट्ठा हुए हैं. इसे किसान मुक्ति मोर्चा कहा गया है.

क्या कह रहे थे किसान?

कुछ किसान दिल्ली के पास से आए थे. कुछ दिल्ली से दो हजार किलोमीटर दूर से आए थे. कुछ बहुत कुछ कह रहे थे, कुछ बोल पाने की स्थिति में ही नहीं थे. कुछ उत्साही युवा नारे लगा रहे थे- 'लाठी गोली खाएंगे, फिर भी आगे जाएंगे', 'मोदी सरकार होश में आओ'. किसानों की पहचान और सुविधा के लिए चारों ओर राज्यों की तख्तियां लगी हुई थीं. आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा इत्यादि. इसके बावजूद स्टेज से घोषणा हो रही थी कि फलाने के दोस्त खोज रहे हैं, कृपया स्टेज के पास आ जाएं. किसी की चाभी भी गुम हो गई थी.

पिछले महीने हरियाणा के भिवानी में बैंक कर्ज वसूली मामले में किसान रणबीर की मौत हुई थी. उनके गांव के लोग भी इस मार्च में शामिल हुए. बहल के किसान हरियाणा के कृषि मंत्री से खासे नाराज हैं. कहते हैं कि पिछली सरकारों के विरोध में हम ओपी धनखड़ के साथ मिलकर ट्रेन रुकवा दिया करते थे, आज वही कृषि मंत्री बनकर किसानों की आवाज नहीं सुन रहा. इस सरकार ने साफ-साफ कहा था कि स्वामीनाथन की रिपोर्ट के सारे नियम लागू करेगी लेकिन ये सरकार तो पिछली सरकारों से निकम्मी निकली. बीच में ही भलके एक और ताऊ ने जोर देते हुए कहा कि कांग्रेस तो 'गई बीती' थी ही ये बीजेपी भी 'गई बीती' निकली. ये राम मंदिर का झांसा देकर जनता को बेवकूफ बना रहे थे अब वो राम मंदिर भी नहीं बनवा रहे.' बगल में बैठे 75 साल के रामबीर ने कहा कि राम मंदिर इतना ही जरूरी है तो चलो हम ईंटें टिकवा देंगे, फेर तो म्हारी सुनो.

हरियाणा के किसानों के साथ आए एक नौजवान ने बताया कि रणबीर किसान के मामले में चेक बाउंस करवाया गया था. लेकिन आप भिवानी कोर्ट में जाकर वकीलों से पूछोगे तो वो भी चेक और मामूली कागज में फर्क नहीं कर पाएंगे. जब वकीलों तक को समझ नहीं है तो गरीब अनपढ़ किसान बैंक के पेचीदे मामले कैसे समझेगा. हरियाणा किसानों के जत्थे में महिला किसान नदारद थी. सब पुरुष ही आए थे. रामलीला मैदान में किसानों के मल-मूत्र त्याग करने के लिए मोबाइल शौचालय लगे थे. खाने पीने के लिए लंगर के अलावा छोटे-छोटे स्टॉल भी लगे थे जो बीस-पच्चीस रुपए में खाना बेच रहे थे. कुछ लोग लंगर में खा रहे थे, जो दुकान पर पहुंच रहा था, वो पैसे दे के खा रहा था. केरल के एक किसान को स्टॉल पर पैसे देने को लेकर थोड़ी गफलत हो गई. स्टॉल के मालिक यूपी के थे. जैसे-तैसे दोनों लोगों ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात कर मामला सुलझाया. अंत में स्टॉल मालिक ने खुद की तरफ अंगुली दिखाते हुए किसान से कहा- राइट. फिर दोनों हंस पड़े.

कुछ जगहों पर एमयू और एम्स के डॉक्टर फ्री दवाइयां दे रहे थे. हरियाणा के एक ताऊ वहां पर अपनी पुरानी खांसी का इलाज कराने पहुंच गए. दूसरे ताऊ ने आंख खोलकर रख दी. डॉक्टरों के पास हंसने के अलावा कोई चारा नहीं था. ज्यादातर किसान तमाम बीमारियों से ग्रसित हैं. कई को तो नवंबर में ही इतनी ठंड लग रही थी कि आग जला के बैठे. किसानों का मार्च सुन के लगता है कि हट्टे कट्टे तगड़े किसान सरकार को झकझोरने आए हैं. पर ऐसा नहीं है. ज्यादातर किसान कुपोषण से जूझ रहे हैं. इनकी बीमारियों का इलाज नहीं हो पाता. जितने से भी बात हुई, सबके घरों में कोई ना कोई स्थायी रूप से बिस्तर पर है. बिहार के एक किसान ने मुस्कुराते हुए कहा कि लग रहा है मोदी जी ने डॉक्टरों को भेजा है.

क्या कह रही थीं महिला किसान

पूछने पर ज्यादातर महिला किसान जवाब नहीं दे पाती हैं कि वो क्यों आई हैं. लेकिन कुछ महिलाऐं कर्ज की वजह से आत्मदाह कर चुके पतियों की तस्वीरें लेकर आई हैं. इनमें उन किसानों के बच्चे भी शामिल हैं. नासिक से मुंबई प्रोटेस्ट करने गए एक किसान की बाद में मृत्यु हो गई थी. उस किसान का बेटा भी इस मार्च में शामिल होने आया है. महिला किसानों की हालत खराब है. कमजोर शरीर की ये महिलाएं बताती हैं कि किस तरह ऐसे मार्चों में शामिल होने के बाद उन्हें स्वास्थ्य संबंधी दिक्क्तों का सामना करना पड़ता है. बाथरूम के इंतजाम ठीक से ना होने पर उन्हें घंटों बाथरूम जाए बिना रहना होता है. ऐसे मार्च में आना आसान नहीं है लेकिन अपने हकों के लिए उन्हें आना पड़ता है. रामलीला मैदान में उन्नाव से आईं सुशीला से जब बातचीत हुई तो उन्होंने बताया कि जो बस नुमा बाथरूम बने हुए हैं, वहीं जाना पड़ रहा है. अगर किसी को इस दौरान माहवारी आ जाए तो इसका जवाब देते हुए वो बोलीं कि कपड़े से ही काम चलाना पड़ेगा. दिक्कत तो होती है, लेकिन ये भी जरूरी है. उन्नाव से ही आई रमा देवी ने बताया कि कर्ज माफी और सूखा तो अलग चीजें हैं, हमारी जमीन पर ही लोगों ने कब्जा कर रखा है. हमें हमारी जमीन चाहिए. अगर इस लिहाज से देखा जाए तो किसानों को उनका हक मिल जाए तो इसके 100 साल बाद ही महिला किसानों को हक दिया जाएगा.

क्या कह रहे थे समर्थक

मैदान में आईआईटी के छात्र, नौकरीपेशा, पत्रकार, जेएनयू, डीयू के छात्रों समेत तमाम पत्रकार दिखाई दे रहे थे. लोग काफी उत्साह में थे. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ बड़ा होनेवाला है. कुछ छात्र ऐसे थे जो जमीन संबंधी मामलों पर शोध कर रहे थे. वो सरकार से खासे नाराज दिखे. त्रिपुरा के एक छात्र ने बताया कि उनके राज्य के किसान तो नहीं दिखाई दे रहे हैं, पर समस्याएं तो बदस्तूर वहां भी जारी हैं. उन्होंने ये भी जोड़ा कि पहली बार त्रिपुरा में मूर्ति गिराने और कम्युनल लड़ाई होने की घटनाएं हो रही हैं. आईआईटी मुंबई के एक नेत्रहीन शोधछात्र भी किसानों के समर्थन में आवाज बुलंद कर रहे थे. हालांकि शोधछात्रों को छोड़कर ज्यादातर लोग बस क्रांति की आशा में थे. उनको मुद्दे की समझ नहीं थी. वो बस सरकार का विरोध कर रहे थे. ये युवा जोश जैसा ही नजर आ रहा था. ये पूछने पर कि मंहगाई बढ़ेगी तो आप क्या करेंगे, वो यही कह पा रहे थे कि ये सरकार की जिम्मेदारी है. हालांकि सारे लोग इसी बात पर लामबंद हो रहे थे कि किसानों की कर्जामाफी होनी चाहिए और उनको पूरा पैसा मिलना चाहिए.

क्या है मांग और क्या ये मांग किसानों की समस्या को हल कर देगी

हर राज्य के किसान इस मोर्चे की दो मुख्य मांगें- कर्जा माफी और न्यूनतम मूल्य की बढ़ोत्तरी के समर्थन में थे. पर उन्हें कुरेदने पर हर राज्य के अलग मामले पता चलते थे. कहीं के किसान रजिस्ट्रेशन ऑनलाइन हो जाने से दुखी हैं. कहीं के किसान न्यूनतम मूल्य की घोषणा के बाद भी सरकार के जरिए खरीदारी ना होने से दुखी हैं. ये बातें करके पता चला कि भारत सरकार कोई भी एक पॉलिसी सारे राज्यों के किसानों के लिए लागू नहीं कर सकती. अगर सबके लिए एक पॉलिसी की बात करें तो सारे राज्यों के किसान प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से खासे नाराज दिखे. सबका यही कहना था कि प्रीमियम बटोरते समय सारे एजेंट आ जाते हैं, पर बीमा का पैसा देते समय तरह तरह के नियम लगा देते हैं. कई का कहना था कि पांच प्रतिशत किसानों को भी बीमा नहीं मिलता. हालांकि सरकार की तरफ से ये कहा गया है कि पिछले साल तमिलनाडु में पिछले 140 साल में आए सबसे बड़े कृषि सूखे के दौरान बीमा का काफी पैसा दिया गया था. पर योगेंद्र यादव अपनी किताब में इससे जुड़े आंकड़े पेश करते हैं और बताते हैं कि ये पैसा भी जरूरत के मुताबिक नहीं था.

पी. साईनाथ का कहना है कि मौजूदा भारत सरकार ने 2014 में वादा किया कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को एक साल के भीतर लागू कर देंगे. इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत प्लस 50 फीसदी देने का वादा शामिल था. लेकिन एक साल के भीतर ही 2015 में सरकार अपनी बातों से पलट गई और कोर्ट और आरटीआई में जवाब दिया कि हम ये नहीं कर सकते हैं, ये बाजार को प्रभावित करेगा. दिक्कत की बात ये ही कि स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट को आए बारह साल हो चुके हैं और लागू होने तक वो रिपोर्ट ही पुरानी पड़ जाएगी और देश के किसानों को नई रिपोर्ट चाहिए होगी. पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा ने किसानों के हक में बोलना शुरू किया. पर इससे कुछ नहीं होगा. योगेंद्र यादव अपनी किताब में लिखते हैं कि देवेगौड़ा की सरकार व्यवस्थागत रूप से उतनी ही किसान विरोधी थी, जितनी कि मोदी सरकार है. तो देवेगौड़ा जी को अपनी सरकार की खामियों के बारे में बात करनी चाहिए थी.

योगेंद्र यादव ने अपनी किताब में दो बड़े अच्छे शब्द लिखे हैं- आसमानी और सुल्तानी. किसानों पर आसमानी मार सूखे और बाढ़ की पड़ती है. सुल्तानी मार सरकारी नीतियों की वजह से पड़ती है. स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट इन दोनों समस्याओं से निपटने की बात तो करती है. पर पिछले बारह सालों में इंटरनेशनल मार्केट के बदल जाने से नई समस्याएं भी तो पैदा हो गई हैं. स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट इन चीजों से निपटने में सक्षम है या नहीं, ये सरकार को बताना पड़ेगा.

क्या है भारत में कृषि का भविष्य

अगर यही हाल रहा तो भारत में बहुत जल्द ही कृषि का कॉर्पोरेटाइजेशन होने वाला है. आसमानी और सुल्तानी दोनों मार से बचाने का आजकल दुनिया भर की सरकारों के पास एक ही उपाय है- कृषि का निजीकरण. 2000-2001 में पाकिस्तान के वित्त मंत्री ने बजट में घोषणा की कि अब कृषि मार्केट में मल्टीनेशनल कंपनियां भी आएंगी. उन्होंने बताया कि देश में खेती का भविष्य कॉर्पोरेट के ही साथ है. देश में हंगामा मचा था उस वक्त. पर्यावरणविद् तारिक बनूरी ने कहा कि ये किसानों की जमीन और सारे प्राकृतिक संसाधन छीन लेंगे. बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा और गरीबी फैलेगी. विडंबनात्मक रूप से 29 और 30 नवंबर को दिल्ली में किसान मार्च कर रहे हैं और इन्हीं दोनों दिनों में केंद्र सरकार के कृषि मंत्री श्री राधामोहन सिंह झारखंड की राजधानी रांची में ग्लोबल एग्रीकल्चरल समिट का उद्घाटन कर रहे हैं. इस समिट का उद्देश्य बताया गया है- एक प्लेटफॉर्म तैयार करना जिस पर पूरा एग्रीकल्चरल इकोसिस्टम दिखाया जाएगा. झारखंड की खेती और फूड प्रोसेसिंग की संभावनाओं को नीति-निर्माताओं, खेती उपकरण बनानेवाले, विद्वानों, स्टार्टअप्स, एग्रीकल्चरल कंपनियों से जोड़ा जाएगा. हालांकि ये समिट झारखंड के लिए ही है. पर धीरे-धीरे ऐसे ही बाकी राज्यों की खेती को भी 'ग्लोबल' किये जाने की घोषणाएं होंगी.

सोशल मीडिया और यमुना के जहरीले पानी में खेती करनेवाले क्या कह रहे थे

दिल्ली में हो रहे मार्च में दिल्ली के ही किसान नजर नहीं आ रहे थे. दिल्ली में भी कई गांव हैं जहां खेती होती है. यमुना किनारे भी खेती होती है. यहां खराब पानी और प्रदूषण की समस्या है. पर किसानों को ये समस्या नजर नहीं आई शायद. संभवतः मार्केट की सहज उपलब्धता की वजह से ये हो रहा होगा. ये एक अलग समस्या है. ज्ञात हो कि रांची में श्री राधामोहन सिंह ऑर्गेनिक खेती की वकालत रहे हैं. संभवतः दिल्ली के किसान कृषि मंत्री की परिधि में नहीं आते. या फिर ये हो सकता है कि सोशल मीडिया पर जो लोग किसानों को किसान हो ना होने का सर्टिफिकेट दे रहे हैं, उन लोगों ने दिल्ली के किसानों को स्टार्टअप उद्यमी मान लिया होगा. सोशल मीडिया पर अलग ही तनाव है. तमाम लोग तरह तरह के कमेंट कर रहे हैं कि मार्च में शामिल लोग किसान तो नहीं लगते. उनको किसानों का ये जत्था मोदी सरकार के खिलाफ शरारत लग रही है. लोगों का ये भी कहना है कि किसानों के पास पैसा ही नहीं है तो ये दो हजार किलोमीटर की दूरी कैसे तय कर के आए. ये भी कहा जा रहा है कि लाल रंग के झंडे के नीचे ही क्यों इकट्ठा हो रहे हैं लोग.

क्या है आगे का रास्ता

जैसा कि हर सरकार करती है, मौजूदा सरकार तो खुद को सही ही साबित करेगी, पर विरोधियों को ये नहीं कहना चाहिए कि हम सत्ता में आएंगे तो ये करेंगे, वो करेंगे. क्योंकि अब ये समस्या किसी के वश की नहीं रही. इसे हल करने के लिए सबको साथ आना ही पड़ेगा. सारी पार्टियों को ये बताना पडे़गा कि उन्होंने किसानों की समस्या को लेकर क्या गलत चीजें की हैं और क्या करने से सही होगा. हमें सत्ता बदलने की जरूरत नहीं है, बल्कि सत्ताधारियों से मांगें मनवाने की जरूरत है. पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा किसानों का समर्थन करते हुए उतने ही विडंबनात्मक लग रहे थे, जितना कि श्री राधामोहन सिंह का ग्लोबल समिट लग रहा है. क्योंकि किसानों की समस्या बिल्कुल टीबी की तरह है. देश की खेती टीबी की चपेट में है. इसका वन टाइम इलाज नहीं हो सकता. लंबे समय तक इलाज चलेगा और लगातार हेल्थ इंप्रूवमेंट की जरूरत रहेगी.