मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं. फिर काम की बात पर आऊंगा.
जब मैं छोटा था तो क्रिकेट खेलते हुए, मुझे मैदान पर एक परचा मिला. जिस पर लिखा था कि ये परचा मां वैष्णो देवी के एक महान भक्त ने छपवाया है. उसने इसकी 10,000 कॉपी छपवा कर भक्तों में बंटवाई और उसके घर में तुरंत ही धन और समृद्धि की बाढ़ आ गई.
आगे चलकर, जिसे-जिसे वो परचा मिला, यदि उसने उसकी 10,000 कॉपी छपवा कर आगे बढ़ा दी तो उनके साथ भी वैसा ही हुआ. धन, समृद्धि, सुख, वैभव, ऐशोआराम और क्या नहीं!
आखिर में लिखा था कि इसे झूठ मान कर परचा न छपवाने वाले का सब कुछ नष्ट हो जाता है और मां वैष्णो देवी उससे रुष्ट हो जाती हैं. घर में किसी न किसी कि मृत्यु भी हो जाती है. कोई कोढ़ी हो जाता है तो कोई लूला, लंगड़ा, अंधा.
मैं डर गया. पसीने से तर था. पापा से बहुत विनती की. परचा छपवा दीजिए. पापा नहीं माने. मैं रात भर रोता रहा. घर का सब नष्ट हो जाएगा. अगली सुबह पापा मुझे ‘राधे प्रिंटिंग प्रेस’ ले गए. उन्होंने उसके मालिक राधेश्याम चौरसिया के कान उमेठे और राधेश्याम तुरत-फुरत ही मिमियाता हुआ बोला, 'अब नहीं करूंगा बाबू जी माफ कर दीजिए.'
मालूम हुआ कि इस तरह के परचे राधेश्याम चौरसिया ही छाप कर सबके घरों में फिंकवा देता था. ताकि लोग डरकर 10,000 परचे छपवाने आएं और उसकी प्रिंटिंग प्रेस फलती-फूलती रहे और खूब कमाई करे.
प्रोपगेंडा पुराना, तकनीक नई
आजकल जब सोशल मीडिया, फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप पर टहलते हुए झूठ और प्रोपगेंडा को देखता हूं, अक्सर वही कहानी याद आ जाती है.
आपको जेएनयू में कन्हैया कुमार का वीडियो याद है? जिसमे कन्हैया को चीख़ते हुए दिखाया गया था, ‘हमें भारत से आजादी चाहिए.' मालूम हुआ कि वीडियो डॉक्टर्ड था.
ये भी मालूम हुआ कि वीडियो में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे नहीं लगाए गए थे. फोरेंसिक जांच में ऐसे तमाम वीडियो संदिग्ध पाए गए. जिनसे छेड़छाड़ हुई थी. साल भर बाद भी कन्हैया कुमार पर एक भी आरोप सिद्ध नहीं हो सका है.
आजकल व्हाट्सऐप पर गुरमेहर कौर का वीडियो टहल रहा है जिसमें उसे नशे में धुत, अश्लील अदाओं से गाने गाते हुए दिखाया जा रहा है. वही वीडियो जिसे देखकर, उसे, उसके शहीद पिता के नाम पर कलंक बताया जा रहा है. मजेदार बात ये है कि वो भी फेक निकला.
अधिक समय नहीं हुआ है जब आपने ये मान लिया था कि 2000 रुपए के नोट में नैनो चिप, जीपीएस, बौट्स से लेकर न जाने क्या-क्या है. आपने तो उसे अलादीन का चिराग ही मान लिया था. अचंभा हो कि उसके अंदर से जिन्न की तरह देश के प्रधानमंत्री निकल कर आपसे हाथ ही मिला लें. कह उठें - ‘मित्रों'. ये खबर झूठ निकली.
हर कोई लगा है अफवाहबाजी में
और इससे पहले कि आप मुझे एंटी-नैशनल मान लें, मैं आपको एक ऐसा उदाहरण दे दूं जो आपको सुनने में अच्छा लगेगा. क्योंकि ऐसा नहीं है कि सारी अफवाहें सरकार के समर्थन में ही फैलाई जाती हैं.
नोटबंदी के दौरान सरकार के साहसिक कदम को फुस्स करने के लिए तमाम अफवाहें फैलाई गईं. मीडिया ने सैकड़ों लोगों की मौत रिपोर्ट की, जिसकी वजह नोटबंदी को बताया गया. और हैरानी क्यों हो? वो भी झूठ निकला.
आपने कितनी ही तस्वीरें देखी होगीं जिसमें गांधी जी को विदेशी महिला को चूमते हुए दिखाया गया है या देश के प्रधानमंत्री को सालों पहले आरएसएस के दफ्तर में झाड़ू लगाते हुए, उनकी कर्मनिष्ठा के कसीदे के रूप में दिखाया गया है. ये सब सफेद झूठ है.
मैं तुमसे यही कहना चाह रहा हूँ मेरे प्यारे भाई. इंटरनेट, सोशल मीडिया पर टहलती हुई हर वो चीज, जिसे देखते ही तुम सच मान लेते हो और तुम्हारी राष्ट्रभक्ति उबाल मारने लगती है, कम से कम उसकी जांच पड़ताल तो कर लिया करो.
कन्क्लूड करने की इतनी जल्दी क्यों?
तुम्हें कन्क्लूड कर लेने की इतनी जल्दी क्यों है? इतना उतावलापन क्यों है कि तुम कन्क्लूड कर लेने के बाद ये भी भूल जाते हो कि जवाब का सवाल क्या था?
बचपन में गणित का सवाल हल करते हुए, मेरे साथ ऐसा कई बार होता था. मैं थ्योरम हल कर देता था. हेंस प्रूव्ड भी लिख देता था. लेकिन प्रूव करते-करते भूल जाता था कि सवाल क्या था?
याद रखो कि फासीवादी सरकार जितनी खतरनाक नहीं होती, उससे कहीं अधिक खतरनाक होती ही फासीवादी भीड़. जो सोचती नहीं है. ऐसी भीड़ की देशभक्ति कम खतरनाक नहीं होती.
ये अंधभक्ति तुम्हें ले डूबेगी. पहले भी तुम्हें मूर्ख बना गई थी. जब मुंहनोचवा आया था और तुम मुंह नोचवाते बिलबिला रहे थे. जब गणेश जी की मूर्ति दूध पी रही थी और तुम लाखों लीटर दूध बहाते फिर रहे थे.
व्हाट्सऐप पर चल रही किसी साजिश को फॉरवर्ड करने से भला तो यही था कि तुम व्हाट्सऐप पर गुलदस्ते, फूल और पत्तियों से बने ‘गुड मॉर्निंग’ मैसेजेस फॉरवर्ड करते फिरते.
नक्कालों से सावधान
झूठी साजिश से बचो. तमाम दफा खौफ यूं ही रचा जाता है. बड़ी-बड़ी चुनावी पार्टियां अपने-अपने आईटी सेल में राधेश्याम चौरसिया जैसे हजारों लोगों को दिहाड़ी पर तैनात रखे हुई हैं. उसकी प्रिंटिंग प्रेस का पुराना गोरखधंधा अब टेक्नोलॉजी से लैस है. पहले से भी अधिक खतरनाक.
चुनाव की फितरत ही कुछ ऐसी है मेरे भाई. तुम्हारे प्रिय गजल-गो राहत इंदौरी ने भी कहा था-
'सरहदों पर बहुत तनाव है क्या?
जरा पता तो करो चुनाव है क्या?
खौफ बिखरा है दोनों सम्तों में
किसी तीसरी सम्त का दबाव है क्या?'