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शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से बच्चों में आत्मविश्वास की कमी और हीनभावना: नायडू

नायडू ने कहा कि मातृभाषा हमारी आंख की तरह होती है जबकि विदेशी भाषा चश्मे की तरह होती है

Bhasha

उपराष्ट्रपति एम वैंकेया नायडू ने प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने पर जोर दिया और कहा है कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण बच्चों में आत्मविश्वास की कमी और हीनभावना पनपती है.

नायडू ने शुक्रवार को हिंदी दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में कहा, 'मैं सदैव नयी भाषायें सीखने का पक्षधर रहा हूं. हर भाषा नया ज्ञान लाती है परंतु प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना ही चाहिये.'


उन्होंने कहा, 'शिक्षा और ज्ञान का पहला संस्कार मातृभाषा में ही पड़ता है. ऐसे कई अध्ययन हुये हैं जो बताते हैं कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण बच्चों में आत्मविश्वास की कमी और हीनभावना देखी गयी है.'

उपराष्ट्रपति ने कहा, 'मैं वह दिन देखना चाहता हूं जब हमारी प्राथमिक शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा होगी. इससे हम उच्चतर शिक्षा और शोध में भी मातृभाषा का प्रयोग कर सकेंगे. इससे प्रशासन में भी मातृभाषा की सहज स्वीकार्यता बढ़ेगी और उसका आधिकारिक प्रयोग होगा.'

इस अवसर पर गृह मंत्री राजनाथ सिंह, गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू और हंसराज अहीर तथा केन्द्रीय मंत्री रामदास आठवले भी मौजूद थे.

उपराष्ट्रपति ने कहा, 'उन्होंने भाषाई आधार पर भेदभाव को मिटाने का आह्वान करते हुये कहा कि वह स्वयं गैर हिंदीभाषी क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं और एक समय उन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आंदोलन में हिस्सा भी लिया था.' बाद में दिल्ली आने पर उन्हें एहसास हुआ कि हिंदी के बिना हिंदुस्तान का आगे बढ़ना संभव नहीं है क्योंकि बहुसंख्यक लोगों की भाषा ही सफल संवाद का माध्यम हो सकती है. इसलिये उन्होंने बिना औपचारिक शिक्षा के ही हिंदी सीखी.

नायडू ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस सुझाव को भी समय की मांग बताया जिसमें उन्होंने उत्तर भारतीय लोगों को दक्षिण की कोई एक भाषा सीखने तथा दक्षिण भारतीय लोगों को उत्तर की कोई भाषा सीखने की बात कही थी.

उन्होंने कहा, 'आज प्रांतों की भाषायी सीमायें टूट रही हैं। देश की भाषायी एकता के लिये यह स्वर्णिम अवसर है जब हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच समृद्ध और स्वस्थ समन्वय किया जा सकता है. राजभाषा विभाग अन्य विभागों के साथ मिलकर इस दिशा में विशेष प्रयास कर सकता है.'

नायडू ने कहा, 'हिंदी को कार्यालयों से निकालकर समुदायों, विशेषकर अहिंदीभाषी क्षेत्रों में स्वीकार्य बनाने की आवश्यकता है. यह प्रश्न भाषाई प्रतिस्पर्धा या वैमनुष्यता का नहीं है. क्योंकि सभी भाषाओं में हमारे पूर्वजों के ज्ञान की धरोहर है और आशा है कि राजभाषा विभाग संविधान की भावना के अनुरूप इस दिशा में सजग होगा.'

नायडू ने विदेशी राष्ट्राध्यक्षों द्वारा अपनी मातृभाषा के प्रयोग का उदाहरण देते हुये कहा, 'अपनी भाषा का प्रोत्साहन बहुत जरूरी है. इस विषय में हमने सचमुच थोड़ा विलंब किया. इसका एक कारण विदेशी शासन रहा और दूसरा कारण मानसिकता भी है जो विदेशी हमारे बीच छोड़ कर गये. जिस कारण से पराई भाषा के प्रति ज्यादा प्रेम दिखता है.'

नायडू ने कहा कि मातृभाषा हमारी आंख की तरह होती है जबकि विदेशी भाषा चश्मे की तरह होती है. इसलिये बिना आंख के चश्मे का कोई काम नहीं. मातृभाषा के प्रसार के लिये मेरा सुझाव है कि क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हिंदी में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाया जाए.