अगर चुनाव आयोग की चली तो जल्द ही चुनाव में पैसे के ताकत का जोर कमजोर पड़ सकता है. इसके लिए आयोग ने कानून ने बदलाव की बड़ी सिफारिशें की हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब नोटबंदी का फैसला सुनाया था तो माना गया कि इससे राजनीतिक फंडिंग में करप्शन पर भी असर पड़ेगा. कुछ दिनों बाद, सुप्रीम कोर्ट ने धर्म, जाति व भाषा के आधार पर वोट मांगने को भ्रष्ट आचरण में शामिल किया.
चुनाव आयोग ने 5 राज्यों में चुनाव का एलान करते हुए कहा कि उम्मीदवारों को नो-डिमांड सर्टिफिकेट देना होगा, जिससे साबित होगा कि उनपर कोई सरकारी बकाया नहीं है.
अब इसी कड़ी में चुनाव आयोग ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव के लिए कई सिफारिशें रखी है. आयोग का कहना है कि इनसे चुनाव में पैसे के जोर और अपराधीकरण को कम किया जा सकेगा.
पैसे के जोर को कम करने की कोशिश
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के सर्वे के मुताबिक साल 2016 में हुए केरल चुनाव में खड़ें 1125 उम्मीदवारों में 202 करोड़पति थे.
एडीआर और यूपी इलेक्शन वाच के उत्तर प्रदेश की 60 सीटों पर कराए गए एक सर्वे के मुताबिक उम्मीदवारों में 21 फीसदी ठेकेदार, 18 फीसदी बिल्डर, 17 फीसदी प्राइवेट शिक्षण संस्थान चला रहे थे और 13 खनन व्यापार से जुड़े थे. ऐसे और कई सर्वे हैं जिनसे चुनावी राजनीति में पैसे की भूमिका साफ दिखती है.
चुनाव आयोग भी पैसे की इस भूमिका को स्वीकार किया है और यही कारण है कि वह आयोग इस चुनौती से निपटने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून (आर पी एक्ट) में कुछ बदलाव चाहता है. आयोग ने इन बदलावों की चर्चा सुप्रीम कोर्ट में चुनाव सुधारों पर दायर एक जनहित याचिका के जवाब में दिया है.
ईसी की ओर से इस मामले को लेकर दाखिए किए गए काउंटर-एफिडेविट में कहा गया है कि आयोग भी याचिकाकर्ता के ‘स्वस्थ लोकतंत्र, मुक्त और निष्पक्ष चुनाव और लोकतांत्रिक हिस्सेदारी के लिए समान अवसर’ के उद्देश्य का समर्थन करती है.
बेहतर उम्मीदवारों को रोकता है मनी पावर
दायर जवाब में कहा गया है कि चुनाव में पैसे का बढ़ता जोर जगजाहिर है. इसमें कहा गया कि पैसे की ताकत के कारण कुछ संपन्न उम्मीदवारों के दूसरों के मुकाबले में फायदे की स्थिति में आने से कभी-कभार चुनाव एक मजाक बन जाता है. ऐसे चुनाव के नतीजे असली जनमत नहीं हो सकते. यह सिस्टम में सक्षम और काबिल लोगों के जनता का प्रतिनिधित्व के अधिकार से चूक जाते हैं.
चुनाव में पैसे की ताकत के असर की बात करते हुए चुनाव आयोग ने अपने हलफनामे में लिखा है वह दूसरी एजेंसियों के साथ मिलकर इसे रोकने के लिए कोशिश कर रहा है. आयोग ने लिखा, ‘हमने जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में कई संशोधनों की सिफारिश की है ताकि इस कोशिश को आगे बढ़ाया जा सके और कैंडिडेट्स के क्रिमिनल इतिहास और पैसे के बेजा इस्तेमाल के दुष्प्रभावों को रोका और खत्म किया जा सके.’
आरपी एक्ट में बदलाव की बात करते हुए आयोग लिखता है कि फिलहाल चुनाव के समय हलफनामे में कैंडिडेट या उसके संबंधियों के आय के स्रोत की जानकारी नहीं होती जिसके आधार पर मतदाता यह राय बना सकें कि पिछले चुनाव से अब तक उनकी आय में बढ़ोतरी जायज है या नहीं.’ फिलहाल मतदाताओं को केवल उम्मीदवारों, उनके जीवनसाथी और आश्रितों के पैन डिटेल्स की जानकारी ही मिलती है.
आयोग ने कहा कि कई कानूनी बंधनों के कारण जनता को कैंडिडेट की आय के स्रोत की कोई जानकारी नहीं मिल पाती है और ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की सोच का पूर्ण रूप से पालन नहीं हो पाता है. आयोग ने इसके लिए फॉर्म 26 में बदलाव की सिफारिश की है.
फर्जी हलफनामों पर सख्ती
चुनाव आयोग ने फर्जी हलफनामे दायर किए पर सख्त कार्रवाई की मांग करते हुए लिखा, ‘बेहतर होगा कि झूठे हलफनामे दायर करने को आरपी एक्ट के सेक्शन 123 के तहत भ्रष्ट आचरण में शामिल किया जाए ताकि इसके खिलाफ सख्ती की जा सके.’
आयोग ने आरपी एक्ट के कुछ अन्य प्रावधानों में भी बदलाव की मांग रखी है. इनमें से एक सेक्शन 9ए है जो ‘सरकारी ठेकों के लिए अयोग्यता’ के बारे में है.
इस सेक्शन के तहत , ‘अगर किसी व्यक्ति ने अपने व्यापार या काम के सिलसिले में कोई सरकारी काम कराने या उसके लिए सामान आपूर्ति करने का ठेका लिया है तो उसे अयोग्य ठहराया जाए.’ आयोग चाहता है कि इसमें केंद्रीय सिविल सेवा नियमों की तर्ज पर बदलाव करते हुए इसके दायरे में उम्मीदवारों के साथ-साथ उनके परिवार के सदस्यों को भी शामिल किया जाए.
नोटबंदी, सुप्रीम कोर्ट के आदेश और चुनाव आयोग के हालिया निर्देशों से चुनाव सुधारों के लेकर उम्मीद की किरण जागी है. अगर कानून में बदलाव की चुनाव आयोग की सिफारिशें मान ली जाती हैं तो संभव है ‘स्वस्थ लोकतंत्र, मुक्त और निष्पक्ष चुनाव और लोकतांत्रिक हिस्सेदारी के लिए समान अवसर’ के उद्देश्य पाया जा सके.