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बस्तर सीरीज: नक्सलियों के गढ़ में विकास के साथ विश्वासबहाली भी जरूरी

सरकार को चाहिए वो आदिवासियों के अंदर विश्वास पैदा करे कि सरकार उनकी परेशानियों को लेकर संवेदनशील है और उनकी समास्या का समाधान वो जरूर करेगी.

Debobrat Ghose

(एडिटर्स नोट: इस साल अप्रैल में, गृह मंत्रालय ने वामपंथी अतिवाद से ग्रस्त जिलों में से 44 जिलों के नाम हटा लिए थे. ये इस बात का इशारा था कि देश में माओवादी प्रभाव कम हुआ है. ये एक ऐसी बहुआयामी रणनीति का नतीजा है, जिसके तहत आक्रामक सुरक्षा और लगातार विकास के जरिए स्थानीय लोगों को माओवादी विचारधारा से दूर लाने के प्रयास किए जा रहे हैं. हालांकि, ये नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों के कब्जे का अंत नहीं है. खतरा अब भी जंगलों में छुपा हुआ है- हारा हुआ, घायल और पलटकर वार करने के लिए बेताब. माओवादियों के गढ़ में घुसकर अतिवादियों की नाक के ठीक नीचे विकास कार्यों को बढ़ाना प्रशासन के सामने असली चुनौती है. तो फिर जमीन पर असल स्थिति क्या है? फ़र्स्टपोस्ट के रिपोर्टर देवव्रत घोष छत्तीसगढ़ में माओवादियों के गढ़ बस्तर में यही देखने जा रहे हैं. बस्तर वामपंथी अतिवाद से सबसे ज्यादा बुरी तरह जकड़ा हुआ है और यहीं माओवादियों ने अपने सबसे बड़े हमलों को अंजाम दिया है. इस सीरीज में हम देखेंगे कि यहां गांवों में कैसे बदलाव आए हैं, गांव वाले इन बदलावों को लेकर कितने उत्सुक हैं और ये भी कि खत्म होने का नाम नहीं लेने वाले माओवादियों के बीच में विकास कार्यों को बढ़ाने की मुहिम में प्रशासन और सुरक्षा बल कितने खतरों का सामना करते हैं.)

25, मार्च 1966 बस्तर राज्य के लिए स्याह दिन था. उस दिन बस्तर राज्य के भूतपूर्व राजा प्रवीर चंद्र भंज देव की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. प्रवीर बस्तर राजघराने के 20वें राजा थे. वही बस्तर राज्य आज छत्तीसगढ़ का बस्तर डिविजन है. राजा प्रवीर की हत्या, तत्कालीन एकीकृत मध्यप्रदेश की कांग्रेसी सरकार के अंतर्गत स्थानीय प्रशासन के द्वारा कर दी गई थी. स्थानीय लोगों का कहना था कि वो प्रशासन से अपने क्षेत्र के आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रह थे.


लेकिन प्रशासन का अपना अलग दावा था. उसके अनुसार वारंगल के काकतिया राजवंश के युवा वारिस प्रवीर चंद्र ने राष्ट्र के खिलाफ विद्रोह किया था. प्रवीर जगदलपुर के विधायक होने के साथ साथ उस इलाके में काफी लोकप्रिय भी थे लेकिन स्थानीय सरकार से मतभेद होने पर महज 36 साल के इस युवा की हत्या पुलिस ने कर दी. पुलिस ने उनके राजमहल के भीतर ही गोलियों से उन्हें छलनी कर दिया था.

पुलिस ने उस इलाके के एक ऐसे लोकप्रिय नेता की हत्या कर दी थी जिन्हें आज भी उस इलाके में पूजा जाता है. प्रवीर की हत्या के साथ ही बस्तर का एक अध्याय प्रशासन ने समाप्त कर दिया था. प्रवीर के जाने के बाद से ही बस्तर के आदिवासियों के मन में सरकार के प्रति संदेह का बीज उत्पन्न हो गया. इससे वहां पर आदिवासियों को बरगला कर नक्सलियों को पैर जमाने का बढ़िया मौका मिल गया.

पीपल्स वार ग्रुप नाम का नक्सली संगठन जो कि अपनी लड़ाई आंध्र प्रदेश में लड़ रहा था उसने 80 के दशक के मध्य में बस्तर में सुरक्षित ठिकाने की तलाश में कदम रखा. उसने पहले से ही हाशिए पर चल रहे आदिवासियों की लड़ाई को हथियार बना कर वहां पर अपनी पैठ बनाई. सालों से आदिवासियों के मन में सरकार के प्रति छिपे हुए गुस्से के बीज को उसने पल्लवित करते हुए वहां पर उसने खतरनाक नक्सलवाद और माओवाद को बढ़ावा देने का काम किया.

बस्तर के लिए प्रवीर चंद्र भंज देव की हत्या वो मील का पत्थर साबित हुई जिसने उसे हमेशा की लिए नक्सलियों के पक्ष में मोड़ दिया. बस्तर के उम्रदराज लोग और विशेषज्ञ आज भी मानते हैं कि वहां पर रहने वाले अधिकतर आदिवासियों के मन में सरकार और प्रशासन की मंशा को लेकर गंभीर संदेह है.

आदिवासियों के सामने दुविधा की स्थिति

देश के दूर-दराज कोनों में रहने वाले बड़ी संख्या में सीधे सादे आदिवासियों के सामने आज भी भारी दुविधा है. वो वहां पर नक्सली और सरकार के दो पाटों के बीच पिसने को मजबूर हैं. वो नहीं जानते हैं कि वो किस पक्ष की ओर हैं और किस पर भरोसा करना चाहिए. वो आज भी मानते हैं कि चार दशक पहले उनकी जिंदगी आज से ज्यादा चैनपूर्वक कटती थी. वो अपना जीवन अपने तरीके से जंगलों में जीते थे. उस समय न तो नक्सली हुआ करते थे और न ही सरकार उन तक पहुंचने की कोशिश करती थी.

छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष बीपीएस नेताम ने इसी दुविधा को फ़र्स्टपोस्ट के साथ साझा करते हुए कहा, 'बाद में सरकारों ने आदिवासी बहुल इलाकों में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने की दिशा में बहुत काम किया जो कि स्वागत योग्य है, लेकिन इतने सालों के बाद भी केवल सरकारें बदलीं लेकिन छत्तीसगढ़ में आदिवासियों का विश्वास जीतने में कोई भी सरकार सफल नहीं हो सकी. आज आदिवासी समुदाय के अंदर जबरदस्त गुस्सा है जो कि उनके दिलों में दबा हुआ है क्योंकि वो सरकार और नक्सली दोनों के बीच अपने आप को घिरा पाते हैं. आदिवासियों को सुरक्षाबलों और नक्सलियों के बीच की लड़ाई और फायरिंग में नुकसान उठाना पड़ता है. हम लोग अपने हक और अधिकारों की लड़ाई संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर लड़ रहे हैं ऐसे में हमें बागी या विद्रोही कहना उचित नहीं है.'

क्या इन इलाकों का विकास ही एकमात्र विकल्प है?

माओवाद प्रभावित बस्तर जिले के अडावल गांव की तस्वीर (देवव्रत घोष)

बस्तर में विकास के कई काम हुए हैं लेकिन इसके बावजूद भी ग्रामीणों की कई शिकायतें हैं खास करके दूर दराज के इलाकों में रहने वालों आदिवासियों की. उनका कहना है कि विकास के बावजूद अभी तक उनके पास पीने को साफ पानी, मेडिकल सुविधाएं और शिक्षा नहीं पहुंच सकी है.

सीपीएम के राज्य सचिव संजय पराटे आरोप लगाते हुए कहते हैं, 'बस्तर के आदिवासी इलाकों में चल रहे विकास कार्यों और पुनर्वास मामलों के बीच परस्पर संबंध नहीं है. बस्तर डिविजन में चारों तरफ सड़कें बन गई हैं लेकिन पिछड़े और सुदूर इलाकों में रहे आदिवासियों को आज भी मेडिकल सुविधाएं और स्वच्छ पेयजल की प्राप्ति नहीं हो रही. इसके अलावा पीडीएस सिस्टम और मनरेगा के अंतर्गत भुगतान किए जाने में भी यहां के लोगों को भारी भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता है.

उनका कहना है, 'वन अधिकार कानून के अंतर्गत बड़ी संख्या में आदिवासी अपनी जमीन का पट्टा नहीं प्राप्त कर सकते. जिनलोगों के पास पहले का पट्टा अगर है भी तो आज के समय में वो मान्य नहीं है. अगर सरकार जंगलों में व्यवस्था,राजस्व और पुलिस को सुधारने में कामयाब हो जाए तो नक्सल समस्या का अंत संभव है. सालों से इन विभागों के अधिकारी ग्रामीण आदिवासियों का शोषण कर रहे हैं.'

सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आदिवासी इलाकों में कॉरपोरेट सोशल रिस्पोंसिबिलिटी के अंतर्गत मिलने वाले फंड के दुरुपयोग का मुद्दा उठाया है. उन्हें लगता है कि अगर औद्योगिक घरानों से मिली राशि का सही उपयोग करके यहां के आदिवासियों का जीवन स्तर सुधारने की वास्तविक कोशिश की गई होती तो यहां कि तस्वीर कुछ और ही होती. एक्टिविस्टों का आरोप है कि बैलाडीला खदान के आसपास रहने वाले ग्रामीणों ने सरकार और प्रशासन के सामने प्रदुषण, कचरा और रसायनयुक्त पानी और उनके शरीर पर पड़ते बुरे प्रभावों के बारे कई बार शिकायत की लेकिन उनकी शिकायतों पर कभी गौर नहीं किया गया.

आदिवासी अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली एक्टिविस्ट सोनी सोरी आरोप लगाते हुए कहती हैं, 'यहां पर विकास हुआ है लेकिन उन इलाकों में जो कि राजमार्ग से सटे हुए हैं या फिर वहां जहां सड़कें एक जिले से दूसरे जिले को जोड़ती है या एक गांव दूसरे गांव से जुड़ते हैं. लेकिन बैलाडीला खदान के आसपास रहने वाले ग्रामीणों के सामने अभी प्रदूषण और रेड ऑक्साइड युक्त पानी की बड़ी समस्या है. इनकी वजह से वहां की उपजाऊ जमीन बंजर जमीन में तब्दील हो गई है. ये वहां पर सालों से हो रहा है. यहां तक कि वहां के पशुओं के लिए भी ये पानी पीने योग्य नहीं रह गया है.'

हालांकि जब इस मुद्दे पर हमने बस्तर के डिविजनल कमिश्नर दिलीप वासनीकर से बात की उन्होंने बताया कि बैलाडीला खदान के आसपास पर इस तरह की कुछ समस्या पहले थी लेकिन अब हमने इसे दूर कर लिया है. वहां पर सरकार ने वाटर फिल्ट्रेशन प्लांट लगा दिया है जिससे की ‘लाल पानी’ की समस्या का निदान हो गया है. इसके अलावा कई अन्य योजनाओं पर भी विचार चल रहा है. वासनीकर के मुताबिक वो लोग उन इलाकों की मैपिंग करने का प्रयास कर रहे हैं जहां पर पीने का पानी उपलब्ध नहीं है. बहुत सारे इलाकों में जहां पाइपलाइन के माध्यम से पानी पहुंचाना संभव नहीं है वहां पर प्रशासन के द्वारा बोरवेल लगवाया जा रहा है. ये प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है.

वहीं दूसरी तरफ बस्तर में आम आदमी पार्टी के रोहित सिंह आर्य का कहना है, 'बस्तर में लगभग पूरे सीएसआर फंड का इस्तेमाल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट में किया जा रहा है, अगर इसका इस्तेमाल यहां के लोगों के जीवनस्तर को सुधारने में किया जाता तो यहां के गरीबों को उससे ज्यादा फायदा पहुंचता. ये फंड लोगों के सामाजिक जीवन में बदलाव लाने के लिए दिया जाता है लेकिन यहां पर ऐसा हो नहीं रहा. कई बार तो सीएसआर फंड से सरकारी भवनों की साज सज्जा करा ली जाती है.'

शैक्षणिक गतिविधियां दूर दराज के गावों में पहले से ही निराशाजनक स्थिति में है क्योंकि वहां के स्कूलों में शिक्षक ही नहीं है. हालांकि कुछ मामलों में शिक्षक तो स्कूलों में पदस्थापित हैं लेकिन वो वहां जाना नहीं चाहते उनके पास स्कूल न जाने का कारण है. कई मौकों पर माओवादियों ने स्कूलों में आग लगा दी है ऐसे में उन इलाकों में डर की वजह से कोई शिक्षक जाना भी नहीं चाहता.

दंतेवाड़ा जिला प्रशासन ने पलनार गांव में एक स्कूल क्लस्टर निर्मित किया है जहां पर आस पास के उन गावों के स्कूलों को शामिल किया गया है जिन स्कूलों की इमारतों को माओवादियों ने नष्ट कर दिया है.

सरकार को क्या करने की जरूरत है?

(तस्वीर : देवव्रत घोष)

सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर नक्सल मामलों के एक्सपर्ट्स तक सभी को लगता है कि केवल बंदूक और गोली नक्सल समस्या का समाधान नहीं हो सकता. आज नक्सल समस्या देश की एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है.

• सबसे पहले और सबसे जरूरी ये है कि सरकार आदिवासी समुदाय का विश्वास जीतने की कोशिश करे.

• आदिवासियों को एक अच्छा वातावरण देने की कोशिश करे क्योंकि कई बार वो लोग माओवादियों और सुरक्षाबलों के बीच की लड़ाई का शिकार हो जाते हैं.

• एक बार जब वो इलाका नक्सलियों से मुक्त हो जाए तो उन क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और नियमित राशन जैसी मूलभूत सुविधाएं उन तक पहुंचाए जाने का इंतजाम किया जाए.

• सरकार को चाहिए को आदिवासी समुदाय को विश्वास में लेकर उन्हें वहां की योजनाओं में साझीदार बनाए.आदिवासियों की आवाज सुनी जानी जानी चाहिए.

• शिकायतों के निवारण के लिए मौजूद व्यवस्था को सुदृढ़ किया जाना चाहिए.

• सरकार को चाहिए कि वो ग्रामीण आदिवासियों के मन में प्रशासन के प्रति विश्वास पैदा कराएं. उन्हें ये एहसास दिलाया जाए कि उनपर पुलिस अत्याचार और प्रशासन के द्वारा शेषण नहीं किया जाएगा. उन्हें बेवजह की गिरफ्तारी, सरेंडर और एनकाउंडर्स से दूर रखा जाएगा.

• वन अधिकार और आदिवासी अधिकार कानूनों का सही तरीके से पालन किया जाए.

बीएसएफ के पूर्व डीजी और यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'सरकार विकास के मोर्चे पर कई काम कर रही है लेकिन आदिवासियों की शिकायतों को दूर करना केवल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप करने से ज्यादा जरूरी है. सरकार को आदिवासी समुदाय के प्रति ज्यादा सहानुभूति दिखानी होगी क्योंकि वो लोग पहले ही एक तरफ नक्सलियों से डरे हुए हैं वहीं दूसरी तरफ उन्हें सुरक्षा एजेंसियों से खतरा बना हुआ रहता है. उन्हें स्थानीय प्रशासन और स्थानीय पुलिस पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं होता. इसमें सुधार की जरूरत है.'

प्रकाश सिंह एक लेखक भी रहे हैं और नक्सल मामलों के एक्सपर्ट भी हैं. वो कहते हैं, 'नक्सल समस्या का समाधान सुधारों के माध्यम से ही किया जा सकता है. इसके लिए एक व्यवस्थित पुनर्वास नीति की आवश्यकता है. वहां वन अधिकार कानूनों का सही तरीके से पालन किया जाए और वहां के स्थानीय लोगों की समस्या का सुनी जाए और उसका निवारण किया जाए.'

सलवा जुडूम का काला अध्याय आज भी आदिवासियों को डराता है

सलवा जुडूम की सबसे पहले पहल कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा ने की थी जिसका परिणाम बाद में विध्वंसकारी रहा हालांकि बाद में कर्मा को माओवादियों के हाथों अपनी जान गंवानी पड़ी. उन्हें झीरम घाटी में नक्सलियों ने एक हमले में मार दिया था. 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम पर रोक लगा दी थी. दरअसल सलवा जुडूम का दुरुपयोग शुरू हो गया था. इसके अंतर्गत इस ग्रुप के सदस्य पुलिस के साथ मिलकर अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने लगे थे. ये लोग माओवादियों से लड़ने के नाम पर आम लोगों को मारने लगे, गावों में आतंक फैलाने लगे थे.

सोनी सोरी का कहना है कि सलवा जुडूम के दौरान स्पेशल पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के द्वारा किए गए अत्याचारों से भोले-भाले ग्रामीण आदिवासी पूरी तरह से टूट गए थे. उन्हें माओवादियों के साथ साथ पुलिस का भी कोपभाजन बनना पड़ रहा था. जाहिर है उनके पास जाने की कोई जगह ही नहीं बची थी.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अलग अलग तरीकों से सलाव जुडूम को बचाए रखने की कवायद 2014 से 2016 के बीच की गई थी. इसके लिए अलग अलग नामों जैसे, जनजागरण अभियान, विकास संघर्ष समिति, नागरिक एकता मंच, सामाजिक एकता मंच, वाले संगठनों का गठन बस्तर के अलग अलग जिलों में किया गया.

कुछ एक्टिविस्टों, स्थानीय पत्रकारों, प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों ने इस बात को माना कि इस तरह की कोशिश की गई थी. फ़र्स्टपोस्ट के साथ बातचीत में उन्होंने स्वीकार किया कि सलवा जुडूम को पुनर्जीवत करने की कोशिश एक भारी भूल थी.

एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना था, 'इस तरह की कोशिश से सरकार और पुलिस दोनों का नाम खराब हो रहा था. बस्तर के पूर्व आईजी एसआरपी कल्लूरी के कार्यकाल में पुलिसिया जबरदस्ती के कई मामले सामने आए थे.'

छत्तीसगढ़ के स्पेशल डायरेक्टर जनरल (एंटी नक्सल ऑपरेशन) डीएम अवस्थी ने फ़र्स्टपोस्ट को दिए एक इंटरव्यू में कहा, 'जब मैंने एंटी नक्सल ऑपरेशन के मुखिया के रूप में कमान संभाली तो मैंने निर्देश जारी किया कि कोई फर्जी एनकाउंटर, गिरफ्तारी या सरेंडर की शिकायत मुझे नहीं मिलनी चाहिए. अगर ऐसा होता है तो दोषियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जाएगी. पिछले डेढ़ सालों में हमें एक भी इस तरह की शिकायत नहीं मिली है.'

पुलिसिया ज्यादती के मामलों की वजह से माओवादियों को ग्रामीणों को अपनी तरफ मिलाने में सहायता मिलती है. क्योंकि माओवादी उन्हें सुरक्षाबलों की ज्यादती से बचाने का भरोसा दिलाते हैं. वो ग्रामीणों को ये कह कर बरगलाते हैं कि सड़कों को बना कर सरकार बड़े बड़े औद्योगिक घरानों को गावों तक पहुंचने का रास्ता दे रही है जिससे कि वो बस्तर के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर सकें.

इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज (आईडीएसए) के रिसर्च फेलो और नक्सल मामलों के जानकार पी.वी. रमन्ना कहते हैं कि भले ही विकास के काम लगातार किए जा रहे हों लेकिन जरूरी है कि सरकार और उसकी अन्य एजेंसियां लोगों का भरोसा जीतें. सरकार को चाहिए वो आदिवासियों के अंदर विश्वास पैदा करे कि सरकार उनकी परेशानियों को लेकर संवेदनशील है और उनकी समास्या का समाधान वो जरूर करेगी.

( इस सीरीज के अन्य लेख यहां क्लिक कर पढ़े जा सकते हैं. बस्तर सीरीज का यह आखिरी लेख है.)