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विश्वास कीजिए अयोध्यावासी चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान, इस विवाद से निराश है

'ब्रजमोहन दास हों या बबलू खान सबके होठों पर एक ही बात है, अयोध्या का विकास, गरीबी से निजात, अच्छे स्कूलों की कामना, शहरी सुविधाओं की चाहत'

Nazim Naqvi

यह लेखक पहली बार अयोध्या 1987 में गया था, पत्रकार विनोद दुआ की टीम का हिस्सा बनकर. तब वहां मस्जिद थी और एक सरकारी पुजारी, उसमें स्थापित राम-लला का संरक्षक था. बाद में उसे गोली मार दी गई. फिर ये लेखक 1995 में अयोध्या गया, बीबीसी चैनल-फोर के लिए एक डाक्यूमेंट्री बनाने. तब वहां मस्जिद नहीं थी. राम-लला तंबू में विश्राम कर रहे थे. जिसके चारों ओर नाकेबंदी थी. कुछ लोग दर्शन के लिए जाते दिखे थे. लेखक भी दर्शन के लिए गया. पुलिसकर्मी तैनात थे, एक चीज़ का सख्ती से पालन किया जा रहा था. वह ये कि दर्शन-अभिलाषी, चमड़े की किसी भी वस्तु को धारण किए हुए अंदर नहीं जा सकते थे, सिवाय अपने चमड़े के. लेखक को भी कमर में बंधी बेल्ट उतारनी पड़ी थी.

यहीं लेखक ने पहली बार विनय कटियार को देखा था जो अपने कुछ साथियों के साथ विवादित भूमि के आस-पास बने छोटे-छोटे मंदिरों को जबरदस्ती खाली करवाते घूम रहे थे. कहा जा रहा था कि यह राम-मंदिर की विशाल योजना के घेरे में आते हैं जिन्हें हटाए बगैर कल्पना को साकार नहीं किया जा सकता.


लेखक ने इस तोड़-फोड़ की रिकॉर्डिंग शुरू की तो पुलिसकर्मियों ने सख्ती से उसे घेर लिया. जब बलपूर्वक मंदिरों को हटाने निकला दल चला गया तो लेखक और उसके कैमरामैन को आज़ाद कर दिया गया. जब हम बाहर गालियों में

आए तो देखा कि एक पुजारी आंखों में मोटे-मोटे आंसू भरे, रास्ते में बैठा, अपने बिखरे सामान को देख रहा था, जैसे उसे यकीन न आ रहा हो कि जो कुछ उसके साथ हुआ था. हमें देखा तो रुंधी हुई आवाज में उसके मुंह से निकला, ‘देखो या हाल कर दिया हमारे ठाकुर का...’, जब हमने पूछा कि किसने ये सब किया है तो वह कुछ नहीं बता सका, बस गली की दाईं दिशा में अपनी आँखें उठा दीं, शायद उसी तरफ वे लोग गए थे.

6 दिसंबर की तारीख अयोध्या के भूत और भविष्य के बीच आकर खड़ी

लेखक आज 6 दिसंबर की पूर्व-संध्या पर, फिर अयोध्या में है. ऐसा लगता है जैसे 6 दिसंबर की यह तारीख, अयोध्या के भूत और भविष्य के बीच में आकर खड़ी हो गई है. एक तरफ 6 दिसंबर से पहले का हज़ारो साल का इतिहास है और दूसरी ओर 6 दिसंबर के बाद, ‘अब क्या होगा?’ के सवाल से जूझता भविष्य है, जो आज 25 साल का हो गया है.

इतने अरसे बाद अयोध्या से मिलने की ख़ुशी दिल में हिलोरें मार रही है. शायद इसलिए कि पहले भी यह हमारे प्राचीन तीर्थस्थलों में अपना एक ख़ास मुकाम रखती थी लेकिन अब तो पूरी दुनिया इसे जानती है. पहले यहां रामभक्त ही आते थे, अब तो इतिहास-भक्त, समाज-भक्त, उत्सुकता-भक्त और भविष्य-भक्त, हर किस्म के देशी- विदेशी सैलानी यहां आते हैं. ज़ाहिर है इसे अब तक सुख-सुविधा संपन्न हो जाना चाहिए था. क्या यहां बस राम-मंदिर ही बनेगा? और कुछ नहीं होगा?

इन 25 बरसों में कुछ भी तो नहीं बदला है यहां. राम-मंदिर की प्रतीक्षा इतनी बड़ी हो गई है कि सब कुछ ठहरा हुआ है. 25 वर्षों में जो एकमात्र फर्क महसूस किया जा सकता है वो है दिल्ली से अयोध्या की दूरी का. पहले यहां पहुंचने के लिए, 18 से 20 घंटे लगते थे, अब 7-8 घंटों में अयोध्या पहुंचा जा सकता है. पहले ये सफ़र थका देने वाला था, अब यमुना एक्सप्रेस-वे, लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे और लखनऊ-गोरखपुर हाई-वे ने मिलकर इसे रोमांचक

बना दिया है.

इसके अलावा कुछ भी नहीं बदला है. न व्यवसाय में कोई तरक्की हुई है, न रहन-सहन में. सरयू के किनारे घाट पक्का हो गया है, लेकिन उसकी सीढ़ियों पर पूजा-अर्चना की चीजें बेचते लोग अपनी छोटी-छोटी दुकानों में गरीबी सजाए बैठे हैं. कुछ टीवी चैनलों के लोग इधर-उधर स्टेज बना रहे हैं. 6 दिसंबर को इन्हीं मंचों से बड़ी-बड़ी बातें की जाएंगी, शायद वादे भी. इनके आ जाने से चाय-बीडी- सिगरेट की दुकानों पर थोड़ी रौनक आ गयी है. औसतन सौ-पचास कमाने वाले आज दो सौ तक कमा लेंगे.

करीब एक दर्जन नावें सजी हुई इधर-उधर डोल रही हैं. इनका विकास बस इतना हुआ है कि अब इनमें छोटी-छोटी मोटरें लगी हैं. लेकिन हमारे तीन-चार घंटे के प्रवास में एक-दो पर ही सवारियां चढ़ती हुई दिखीं. आने वालों की सुविधा के लिए एक सुलभ-शौचालय भी है जिसकी दुर्गन्ध से हर कोई आकर्षित हो रहा है.

हिंदू-मुसलमान किसी को नहीं दिखता विकास

आज यहां से 700 किलोमीटर दूर, दिल्ली में देश की सबसे बड़ी अदालत में, अयोध्या-विवाद की सुनवाई हो रही है, इसलिए कुछ महंत (गेरुए कपड़ों में सजे-धजे) और कुछ मुसलमान कुर्ता-पैजामा- टोपी में ढके हुए इधर-उधर कैमरों से बाते कर रहे हैं.

लेखक की दाईं ओर हैं दशरथ गद्दी के प्रमुख बृजमोहन दास और बाईं ओर हाशिम अंसारी के पुत्र इकबाल अंसारी

एक तरफ दशरथ गद्दी के ब्रजमोहन दास और हाशिम अंसारी (बाबरी-केस के पक्षकार) के सुपुत्र खड़े बतिया रहे हैं. जब तक कैमरा इनसे बात न करे ये अयोध्यावासी की तरह एक दूसरे से बात करते हैं लेकिन जैसे ही कैमरा इनकी

तरफ मुड़ता है यह हिंदू और मुसलमान हो जाते हैं. बार-बार भेस बदलते हुए इन लोगों की सहजता देखते ही बनती है.

ब्रजमोहन दास हों या बबलू खान सबके होठों पर एक ही बात है, अयोध्या का विकास, गरीबी से निजात, अच्छे स्कूलों की कामना, शहरी सुविधाओं की चाहत. कुछ इस तर्ज़ पर कि ‘भैय्या राम-मंदिर से नजरें हटाकर थोडा ध्यान अयोध्या पर भी डालो... हमारी भी सुध लो...’ यहां सब इस बात पर एक राय हैं कि अदालत से बहार किसी समाधान पर बात नहीं होगी. जो अदालत का फैसला होगा वही मान्य होगा.

अयोध्यावासी चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान, इस विवाद से निराश है. बार-बार वही सब बातें बोलते-बोलते थक चुका है क्योंकि हर बात घूम-फिर कर असहमति की उसी अनिश्चितता में खो जाती है, जहां से शुरू हुई थी.

गोरखपुर हाई-वे से उतरते ही अयोध्या की पसरी हुई बेहाली आंखों को अखरती है. जिसे तेज गुजरती गाड़ियों की धूल के झोंके रात-दिन झिंझोड़ते रहते हैं, ताकि कहीं फैसला आने तक वह बेहोश न हो जाए.