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5 बातें जो साबित करती हैं कि नोटबंदी का फैसला सही नहीं है

सरकार का कदम काले धन की जड़ पर प्रहार करने वाला नहीं है.

Debobrat Ghose

सरकार द्वारा नोटबंदी का बड़ा फैसला लेने के हफ्तों बाद भी देश में चर्चा का सबसे बड़ा मुद्दा कालाधन ही बना हुआ है. हालांकि, इस मसले पर हो रही ज्यादातर बहस जानकारी के अभाव से भरी हुई है.

फ़र्स्टपोस्ट के साथ एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में मशहूर अर्थशास्त्री और ‘द ब्लैकमनी इन इंडिया’ के लेखक प्रोफेसर अरुण कुमार ने कहा कि सरकार का कदम काले धन की जड़ पर प्रहार करने वाला नहीं है. इसकी बजाय इससे अर्थव्यवस्था मुश्किल में फंसेगी और लोगों को तकलीफ होगी.


पेश हैं इस इंटरव्यू की 5 बड़ी बातें.

जरूरी नहीं कि जमा कैश ब्लैकमनी ही हो

नोटबंदी काले धन को नहीं रोक पाएगी. मौजूदा व्यवस्था में कालेधन का एक मामूली हिस्सा ही इससे खत्म होगा. जबकि जरूरत इसको जमा होने से रोकने की है.

आय को संपत्ति से और काले धन को काली कमाई से अलग करके देखने की जरूरत है. काली कमाई इकट्ठा किए गए अकूत कालेधन का एक मामूली सा हिस्सा है.

काली कमाई के तरीके आज भी जस के तस हैं, इसलिए कालाधन बनना बंद नहीं होगा.

फर्जी बिल, नकली दवा, स्कूल कालेजों में डोनेशन के नाम पर लिया जाने वाला पैसा और खाने-पीने की चीजों में मिलावट जैसी काली कमाई  के तरीकों पर कोई रोक नहीं लगी है.

कालेधन का सबसे ज्यादा इस्तेमाल कारोबार में होता है. हमें कालेधन, काली कमाई और काली संपत्ति के अंतर को समझना होगा. यह तीनों अलग-अलग हैं. काली संपत्ति में कालेधन की हिस्सेदारी एक फीसदी से अधिक नहीं होगी.

नोटबंदी से काली संपत्ति बनाने पर कोई रोक नहीं लगेगी. इसके पीछे के असली गुनहगारों पर कारवाई नहीं की जा रही है. यह एक भ्रम है कि अर्थव्यवस्था में कालेधन का मतलब नकदी है.

यहां सरकार की समझ मात खा जाती है. उसे लगता है कि नकदी खत्म करने से कालेधन की अर्थव्यवस्था भी खत्म हो जाएगी, जबकि ऐसा नहीं होगा.

नोटबंदी से जाली नोट के कारोबार पर असर नहीं

रिजर्व बैंक के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था में 400 करोड़ रुपए के जाली नोट चलन में हैं. जो कि 17.5 लाख करोड़ रुपए की कुल मुद्रा का काफी छोटा हिस्सा है. नए नोटों की नकल और जाली नोट छापने का काम दोबारा शुरू करना कोई मुश्किल काम नहीं है.

अमूमन जाली नोटों का इस्तेमाल आतंकवादियों को फंड करने में किया जाता है. आतंकियों को पैसा देने वाले लोग ऐसा करना कभी बंद नहीं करेंगे. जाली नोटों की छपाई बंद करनी होगी.

अगर पुराने नोटों के जाली नोट बनाए जा सकते हैं, तो यह काम नए नोटों के साथ भी हो सकता है. भले ही इनमें कितने भी एडवांस्ड फीचर क्यों न हों.

नोटबैन से लड़खड़ाएगी अर्थव्यवस्था

1000 और 500 के नोटों को बंद करने का फैसला ऐसा है जैसे शरीर में दौड़ रहे खून का 86 फीसदी निकाल लिया गया हो. ठीक ऐसा ही हमारी अर्थव्यवस्था के साथ किया गया है.

नए नोट बेहद धीमी गति से चलन में आ रहे हैं. देश के बड़े बाजारों और मॉल्स में ग्राहक नहीं आ रहे. छोटे व्यापारी सामान नहीं बेच पा रहे हैं. लोगों की आय को बाजार तक पहुंचने में वक्त लग रहा है.

नोटबंदी की मार आम घरेलू उपभोक्ताओं, किसानों, छोटे उत्पादकों और परिवहन समेत सभी पर पड़ी है. मांग में कमी का असर लगभग सब पर पड़ा है. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले गरीब और दिहाड़ी मजदूरों पर इसका सबसे ज्यादा असर हुआ है.

अगर थोड़े लंबे समय तक यही हालात बने रहे तो अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी. हमारी नोट छपाई की क्षमता को देखते हुए 50 दिनों में इसकी भरपाई हो पाना नामुमकिन है.

ऐसे में बेराजगारी और कर्ज, जिन्हें बैंक डूबे हुए खाते(एनपीए) में मानता है, में इजाफा होने के साथ-साथ निवेश में भी कमी आएगी.

यह सब इतना ज्यादा हो सकता है कि न केवल जीडीपी की दर में 2 फीसदी की गिरावट आएगी, बल्कि इससे भारत मंदी के दौर में दाखिल हो सकता है.

पैसे का सर्कुलेशन शरीर में खून के उतार-चढ़ाव की तरह है. अगर इसकी कमी होगी तो मुश्किल पैदा होगी. नोटबंदी से आने वाले महीनों में कई नई दिक्कतें उभर कर सामने आएंगी.

मकसद नहीं, इस काम का दायरा बड़ी समस्या है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सही कहा है कि कालाधन ही गरीबी और भ्रष्टाचार की जड़ है. लेकिन, यह साफ किया जाना चाहिए कि क्यों नोटबंदी जैसा बड़ा कदम इसका समाधान नहीं है, बल्कि यह अर्थव्यवस्था बुरे दौर में धकेल देगा.

यह एक गलत कदम है. 1978 में जब 10,000 और 5,000 के नोटों पर बैन लगाया गया था, तब उसका ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था. आम लोगों पर बुरा असर नहीं हुआ था क्योंकि उच्च-मूल्य के नोटों का आम लोग इस्तेमाल नहीं करते थे. साथ ही इन नोटों की कुल मुद्रा में हिस्सेदारी न के बराबर थी. उस वक्त 10 रुपये और 100 रुपये के नोटों का सर्कुलेशन ज्यादा था.

ऐसे में इसका आम लोगों के रोजाना के कामकाज पर बुरा असर नहीं हुआ. इसके उलट, आज आम आदमी 500 रुपये और 1,000 रुपये के नोटों का इस्तेमाल कर रहा है. 14.5 लाख करोड़ रुपये के 500 और 1,000 करोड़ रुपये के नोट सर्कुलेशन में हैं जो कि कुल करेंसी का 86 फीसदी हिस्सा है.

सरकार ने एक झटके में इतने बड़े पैमाने पर मौजूद मुद्रा को कचरा बना दिया, जबकि इसके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था पहले से तैयार नहीं की गई. इससे हड़बड़ी और भगदड़ जैसे हालात पैदा हो गए.

चूंकि, पहले से कोई तैयारी नहीं थी, ऐसे में सरकार को हर दिन नीति आधारित बदलाव करने पड़ रहे हैं. बैंक और एटीएम अभी भी लोगों की जरूरत के मुताबिक कैश देने में असफल साबित हो रहे हैं. 30 दिन गुजर जाने के बाद भी तकरीबन हर दिन बैंक शाखाओं और एटीएम के बाहर बड़ी कतारें बनी हुई हैं. तनख्वाह पाने वाले और पेंशनयाफ्ता लोगों को अपनी पगार और पेंशन निकालने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.

दूर नहीं हो रही कैश की किल्लत

तात्कालिक रूप से ही सही, लेकिन व्यवस्था से नकदी खत्म हो रही है और नई नकदी की सप्लाई में समस्या आ रही है. 86 फीसदी मुद्रा को बदलने में कई महीने लग सकते हैं. आपको तेजी से 500 और 1000 रुपए के 14.5 लाख करोड़ रुपये के नोट बदलने होंगे, जिनकी छपाई कई सालों में हुई है. अगर आप 100 रुपए के नोट छापते हैं तो आपको 1000 रुपए के नोट के मुकाबले 10 गुना ज्यादा नोट छापने होंगे और इसमें काफी वक्त लगेगा. अगर सरकार ने पहले से तैयारी की होती और कैश की पर्याप्त सप्लाई का इंतजाम किया होता तो शायद लोगों को इतनी परेशानी नहीं होती. लेकिन, नकदी की जमाखोरी और छोटे नोटों की छपाई और स्याही और कागज की कमी को देखते हुए ऐसा लगता है कि नकदी की सप्लाई बहाल होने में एक साल तक का वक्त लग सकता है.