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नोटबंदी: क्‍या हम फिर बार्टर सिस्टम की कगार पर हैं?

नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली और अरविंद केजरीवाल का काम कैसे चल रहा है?

Bikram Vohra

शुक्रवार की सुबह बैंकों ने हमें बताया कि उनके पास पैसा नहीं आया है और अब अगला कोटा सोमवार का है. इसका मतलब हमारे पास इस वीकेंड केवल चार हजार रुपये खर्च करने को होंगे. सो आपका सादा जीवन-उच्च विचार के मंत्र पर चलना होगा.

खैर यह सब तो किसी भले कारण से ही रहा है न? आपके पास कुछ तो है वरना कुछ लोगों के पास तो 4000 भी नहीं हैं. खुद को खुशकिस्‍मत मानिए.


बहरहाल, मुझे इस बात पर आश्‍चर्य हो रहा है कि इस बीच नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली और अरविंद केजरीवाल का काम कैसे चल रहा है? चूंकि मैं उम्र में उन सब से बड़ा हूं इसलिए उनसे सवाल पूछने को जोखिम पाल सकता हूं. मसलन, अरविंद के पेट्रोल का खर्चा कौन दे रहा है? राशन-पानी कैसे आ रहा है? क्‍या आपने अपने घर के नौकरों की तनख्‍वाह दे दी है? अरुण, आपने अपने टीवी चैनलों का मासिक किराया कैसे चुकाया?

मैं इस पेटीएम, ई-कॉमर्स और कैशलेस व्‍यवस्‍था के लिए नहीं बना हूं. मुझे मोबाइल पर सिग्‍नल पाने के लिए आरके पुरम में भटकना पड़ता है और उस पर इंटरनेट रुक-रुक कर हकलाता सा आता है. मैं साइबर हैकिंग को लेकर भी जरा ऐहतियाती हूं.

ये लोग तो सर्च इंजन में आने वाली फीड पर अश्‍लील पॉप-अप तक को नहीं रोक पाते, फिर कैसे मान लूं कि ये मेरा पैसा किसी दूसरे तक सुरक्षित पहुंचा देंगे? मेरा डर यह नहीं है कि पैसा नहीं पहुंचेगा, मेरी चिंता यह है कि बीच में अगर कोई तकनीकी लफड़ा फंसा तो उसकी शिकायत करने मैं किसके पास जाऊंगा?

जब तक रियल टाइम में कोई ऐसी आधुनिक प्रणाली न हो जो चीजों को दुरुस्‍त करने और गलतियों को सुधारने की सुविधा दे, तब तक मैं अपना तमाम विवरण सार्वजनिक करने से बचूंगा.

पता नहीं मैं तकनीक के मामले में अल्‍पसंख्‍यक हूं या फिर उन मौन बहुसंख्‍यकों का हिस्‍सा हूं जिनके पास यह कहने की हिम्‍मत नहीं बची है कि ‘देखिए, हमें कोई आइडिया नहीं है कि यह कैसे काम करता है और हमें इससे भी कोई मतलब नहीं है कि आप टीवी पर ऐसे कितने विज्ञापन चलाते हैं जिसमें कैशलेस समाज के नाम पर किसी आम आदमी को कैमरे में भौंचक दिखाया जाता हो. अब तो हमारे पास अर्नब गोस्‍वामी तक नहीं है जो सरकार को बता सकता कि 'यह देश जानना चाहता है' कि बटन कैसे दबाए जाएं.' हमारी तकनीकी दक्षता के मामले में लैडब्रोक्‍स भी इस बात पर 10 के बदले 1 का दांव लगाएगा कि हममें से 90 फीसदी को कुछ नहीं आता.

हम अपर्याप्‍त हैं. हम असमर्थ हैं.

बाकी के 10 फीसदी लोग जितना चाहे हमपर हंस सकते हैं लेकिन जब तक यह भरोसा नहीं दिलाया जाएगा कि सूचना के राजमार्ग पर हमें सुरक्षा मुहैया होगी और पुलिस की गश्‍ती रहेगी, तब तक कम से कम मैं तो इससे सहमत नहीं होने वाला हूं.

मैं अपने ये विचार अपने महावीर चक्र विजेता चाचा के साथ साझा कर रहा था. वे बताते हैं कि हम लोग पुराने दौर की ओर लौट रहे हैं जब हमारे यहां बार्टर प्रणाली चला करती थी (एक सामान के बदले दूसरा सामान). उस वक्‍त हम लोग बच्‍चे थे और चकवाल (अब पाकिस्‍तान में) में रहते थे. तब हमारे चाचा अगर किसी दिन कहते कि ''आज कुकड़ा खाना है'', तो इसका मतलब यह होता कि एक सौदे के तहत मुर्गेवाला एक बढ़िया और स्‍वस्‍थ मुर्गा हमें देगा और बदले में आटा या ऐसी ही कोई चीज हमसे ले लेगा.

उस वक्‍त पूरे का पूरा गांव लेन-देन की व्‍यवस्‍था पर ही आश्रित होता था. आपको गन्‍ना चाहिए तो कोई दिक्‍कत नहीं है, बदले में सरसों भिजवा दीजिए. चावल कम पड़ रहा है? बदले में बकरी देकर ले जाइए.

एकाध हफ्ते अगर ऐसे ही और बीते कि बैंकवाले लोगों से इंतजार करने को कहते रहे, तो शर्तिया हम लोग ऐसी स्थिति में पहुंच जाएंगे जहां धीरे-धीरे लेनदेन और अदला-बदली की बार्टर प्रणाली चलन में आ जाएगी.

वैसे देखें तो अपने-अपने मोबाइल के छोटे से जादुई परदे पर किसी कामयाब सौदे का जश्‍न मना रहे तकनीक कुशल लोगों की हरकत से यह चीज बहुत अलग नहीं है.

बल्कि हो सकता है कि आप उनसे बेहतर स्थिति में हों. आखिर बकरी देते वक्‍त आप कम से कम सामने वाले का चेहरा तो देख सकते हैं...