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डेमोक्रेसी इन इंडिया पार्ट 9: नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल का उभार हमारी लोकतांत्रिक मजबूती का सबूत है

नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल और जिग्नेश मेवानी की जीत ये भी बताती है कि भारत में लोगों की लोकतंत्र को लेकर सोच-समझ बेहतर हो रही है

Tufail Ahmad

(संपादक की ओर से- भारत गणराज्य अपने 70 बरस पूरे करने जा रहा है. ऐसे वक्त में पूर्व बीबीसी पत्रकार तुफ़ैल अहमद ने शुरू किया है, भारत भ्रमण. इसमें वो ये पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में लोकतंत्र जमीनी स्तर पर कैसे काम कर रहा है. तुफैल अहमद को इसकी प्रेरणा फ्रेंच लेखक एलेक्सिस डे टॉकविल से मिली. जिन्होंने पूरे अमेरिका में घूमने के बाद 'डेमोक्रेसी इन अमेरिका' लिखी थी. तुफ़ैल अहमद इस वक्त वॉशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं. वो भारत भ्रमण के अपने तजुर्बे पर आधारित इस सीरिज में भारत की सामाजिक हकीकत की पड़ताल करेंगे. वो ये जानने की कोशिश करेंगे भारत का समाज लोकतंत्र के वादे से किस तरह मुखातिब हो रहा है और इसका आम भारतीय नागरिक पर क्या असर पड़ रहा है. तुफ़ैल की सीरीज़, 'डेमोक्रेसी इन इंडिया' की ये नौवीं किस्त है. इस सीरीज के बाकी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

भारत में लोकतंत्र किस तरह काम कर रहा है, इसका पता लगाने के लिए मैंने इस सफर में अब तक मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात का दौरा किया है. मैंने लोगों से अक्सर साधारण से सवाल किए हैं, जैसे कि बड़े पैमाने पर गरीबी और सरकारी विभागों में भयंकर भ्रष्टाचार के बावजूद क्या वजह है कि लोग बड़ी तादाद में वोट देने के लिए पोलिंग बूथों पर इकट्ठे हो जाते हैं. कई बार तो मौसम खराब होने के बावजूद मतदान केंद्रों पर हुजूम उमड़ पड़ता है. ऐसा कैसे होता है? समाज पर लोकतंत्र का और सामाजिक हालात का लोकतंत्र पर क्या असर हुआ है?


हम नहीं समझते लोकतंत्र क्या है

राजस्थान के अलवर में इस्मिता भाटी सेंट एनसेल्म्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल में टीचर हैं. भाटी ने हमें बताया कि किस तरह भारतीय राजनीति का भ्रष्टाचार समाज की नसों में समा रहा है. भाटी ने बताया कि स्कूल में चुनाव की प्रक्रिया समझाने के लिए, चुनाव का खेल खेला गया. छात्र इसमें उम्मीदवार बने. भाटी कहती हैं कि, 'हम ये देखकर हैरान रह गए कि क्लास का शैतान बच्चा ही चुनाव जीत गया. जबकि होशियार बच्चे नाकाम हो गए'. इस्मिता भाटी इसे इस तरह से देखती हैं कि कक्षा 9 के बच्चों को भी पता है कि चुनाव कैसे जीतते हैं. वो मानती हैं कि भारत में राजनीति के चलते समाज के हर तबके में नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है.

अजमेर में मेरी मुलाकात एक्टर और नाटक लिखने वाले उमेश कुमार चौरसिया से हुई. वो नेशनल काउंसिल फॉर एजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग यानी एनसीईआरटी (NCERT) की तरफ़ से स्कूलों में बच्चों के लिए शिक्षाप्रद नाटक आयोजित करते हैं. चौरसिया दुख जताते हैं कि लोगों के बीच लोकतंत्र समझने का मतलब बस इतना समझना है कि सिस्टम कैसे काम करता है. जब चुनाव होंगे, तो संसद और विधानसभाओं में कितने सदस्य चुने जाएंगे. चुनाव लड़ने की प्रक्रिया क्या है. पार्टियों का रजिस्ट्रेशन कैसे होता है और सिस्टम से जुड़े ऐसे ही दूसरे सवालों के जवाब ही लोग जानना चाहते हैं. चौरसिया कहते हैं कि लोगों में इस बात के लिए बिल्कुल भी जागरूकता नहीं है कि नागरिक के तौर पर लोगों का अपना रोल क्या है.

चौरसिया कहते हैं कि, 'सत्ता के लिए होड़ लगी हुई है. लोकतंत्र क्या है, ये बात युवा नहीं समझते हैं. वो सोचते हैं कि छात्र संघ का चुनाव जीतना, किसी पार्टी में शामिल होकर सत्ता हासिल करना ही असल मकसद है'. उमेश चौरसिया ने एनसीईआरटी के तहत, अजमेर में शिक्षाप्रद नाटकों की एक वर्कशॉप आयोजित की थी. उसके बारे में चौरसिया का निष्कर्ष ये है कि, 'छात्रों को ये समझ है कि लोग वोट करते हैं, लेकिन वो ये बात नहीं समझते कि सभी लोगों के एक साथ वोटिंग की लाइन में लगने का मतलब लोकतंत्र में बराबरी का अधिकार है. ऐसा लगता है कि हम नींद के झोंके में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बन रहे हैं. आज ज्यादातर लोग इसलिए मतदान करते हैं क्योंकि उन्हें किसी ने बताया है कि वोट देना है'.

कम उम्र से ही देनी होगी लोकतंत्र की शिक्षा

कुछ अमेरिकी राज्यों में कार चलाना, स्कूल के सिलेबस का हिस्सा है. उमेश चौरसिया सलाह देते हैं कि छात्रों को भी लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतो को 14 साल की उम्र से पढ़ाया जाना चाहिए. ताकि वो लोकतंत्र को गहराई से समझें. चौरसिया कहते हैं कि, 'शिक्षा का मकसद लोकतांत्रिक सिद्धांतों और मूल्यों को समझाना होना चाहिए, न कि सिर्फ पार्टी की राजनीति, और राजनीतिक व्यवस्था में विधायिका के रोल को बताना'.

उन्होंने ये भी गौर किया है कि पंचायत चुनावों में भी, लोग दूसरे इलाकों से आकर किसी पंचायत क्षेत्र में बस जाते हैं. वहां चुनाव लड़कर जीत जाते हैं. वो मानते हैं कि लोगों को ये बात पता है कि लोकतंत्र कैसे काम करता है.

इस बात की सबसे बड़ी मिसाल पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं. उन्होंने ने राज्यसभा का चुनाव असम से जीता था, जबकि वो असम में कभी रहे नहीं. जैसा कि राजनीति विज्ञान के जानकार कहते हैं कि, वो 'व्यवहारिक लोकतंत्र' के काम करने के ढंग को समझने का सबसे अच्छा उदाहरण हैं. हम ये बात कह सकते हैं कि भारत में लोकतंत्र के सफर के 70 सालों में लोगों ने ये बात समझी है कि लोकतंत्र काम कैसे करता है.

लोकतंत्र को निचले स्तर से काम करना चाहिए

वडोदरा में मैं प्रोफेसर प्रफुल्ल कार से मिला. प्रोफेसर कार, सेंटर फॉर कंटेंपररी थ्योरी के निदेशक हैं. मैंने प्रोफ़ेसर प्रफुल्ल कार से भारत में लोकतंत्र को लेकर यही सवाल पूछे. उन्होंने कहा कि, 'भारत में हमारे पास व्यवहारिक लोकतंत्र तो है. सियासी प्रक्रिया की शुरुआत सरकार से होती है. यानी सबसे ऊपर से. सरकार नागरिकों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने को मजबूर करती है. लोगों में लोकतांत्रिक बर्ताव को लेकर आम राय नहीं है'. प्रोफेसर कार मानते हैं कि असल लोकतंत्र तो अमेरिका में देखने को मिलता है. वहां राजनैतिक प्रक्रिया नीचे से शुरू होती है. वहां के लोगों में लोकतांत्रिक बर्ताव देखने को मिलता है.

प्रोफ़ेसर कार कहते हैं कि, 'लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं निचले स्तर से सोचने की प्रक्रिया की शुरुआत करती हैं. अमेरिका में लोग लोकतंत्र को लेकर गर्व महसूस करते हैं. अमेरिका में लोग बाहर से आकर बसते हैं और वहां के लोकतंत्र पर अभिमान करते हैं. भारत से इतर, अमेरिकी समाज में लोग सरकार के काम की पड़ताल करते हैं. खराब फैसलों का विरोध करते हैं. लेकिन भारत में अगर आप सरकार के काम-काज की निंदा करते हैं, तो आप को राष्ट्र विरोधी करार दे दिया जाता है'.

भारत में लोकतंत्र बचपने के दौर में

प्रोफेसर प्रफु्ल्ल कार कहते हैं कि भारत में व्यवहारिक और कामचलाऊ लोकतंत्र ही है. चुनाव होते हैं. लोग चुने जाते हैं. ये प्रक्रिया बिल्कुल मशीनी तरीके से होती है. प्रोफेसर कार के मुताबिक़, 'भारत में लोकतंत्र सरकार की वजह से काम करता है. वहीं अमेरिका में लोकतंत्र वहां के समाज और नागरिकों की मजबूत राय की मदद से चलता है. इसमें सरकार का रोल बहुत कम होता है. लोगों की जिंदगी पर सरकार का कंट्रोल बहुत कम है'.

प्रोफेसर प्रफुल्ल कार

जब मैंने उनसे पूछा कि आखिर आम भारतीय में लोकतांत्रिक सोच क्यों नहीं है? तो, प्रोफेसर कार ने कहा कि इंग्लैंड में लोकतंत्र, राजशाही से पैदा हुई थी. लेकिन फिर वहां की सरकार का कामकाज और लोकतांत्रिक प्रक्रिया लोगों की मानसिकता पर सैकड़ों साल के सफर की वजह से जगह बना सकी. प्रोफेसर कार के कहने का मतलब है कि भारत में लोकतंत्र अभी बचपने के दौर से ही गुज़र रहा है. जैसे-जैसे इसके तजुर्बे का सफर आगे बढ़ेगा, तो, लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर समाज में जागरूकता भी बढ़ेगी. प्रोफेसर कार कहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र में बहुमत की चलती है. इसमें जाति और धर्म का भी अहम रोल है. जबकि अमेरिकी लोकतंत्र में विविधता की कोई अहमियत नहीं रही. मतलब ये कि वहां आप किसी भी जाति या धर्म से ताल्लुक रखते हों, एक नागरिक के तौर पर आपको बराबरी का ही हक मिलेगा.

महान अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र के बारे में कहा था कि, 'ये जनता की, जनता के द्वारा चुनी हुई और जनता के लिए काम करने वाली सरकार है'. प्रोफेसर कार मानते हैं कि फिलहाल भारत में लोकतंत्र 'जनता के द्वारा' के दौर से गुजर रहा है. हालांकि ये कुछ हद तक 'जनता के लिए' भी काम करता है. लेकिन वो ये भी कहते हैं कि भारत में लोगों के खयालात बदल रहे हैं. उनकी सोचने की प्रक्रिया बदल रही है. अब लोकतंत्र जनता का बन रहा है.

मनमोहन सिंह की मिसाल देते हुए प्रोफेसर कार कहते हैं कि वो कामचलाऊ लोकतंत्र की मिसाल इसलिए हैं क्योंकि उन्हें जनता पर ऊपर से थोपा गया था. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनाव और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का चुनाव, जनता ने वोट देकर किया. दोनों ही इस बात की मिसाल हैं कि देश में लोकतंत्र मजबूती से जड़ें जमा रहा है.

प्रोफेसर कार, उमेश चौरसिया की इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते हैं कि आम जनता नींद की हालत में लोकतंत्र का हिस्सा बन रही है. वो कहते हैं कि, 'लोग एक चुनाव में किसी एक दल को वोट देकर सत्ता में बैठा देते हैं. फिर वो उसे अगले चुनाव में सत्ता से बेदखल भी कर सकते हैं. इसका मतलब है कि आम नागरिक सोचता है, और जरूरत पड़ने पर अपने खयालात में बदलाव भी करता है'.

हम ये कह सकते हैं कि सात दशकों के अपने सफर में भारत में लोकतंत्र ने लोगों को इस बात को समझाया है कि 1950 में देश के संविधान के साथ जो व्यवस्था लागू हुई है, वो कैसे काम करती है. लेकिन नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल और जिग्नेश मेवानी की जीत ये भी बताती है कि भारत में लोगों की लोकतंत्र को लेकर सोच-समझ बेहतर हो रही है.