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दिल्ली गोल्फ क्लब मामला: पूर्वाग्रह तो हैं लेकिन चीजें बदली भी हैं

अब किसी को अपने अपमान को 'समझाने' की आवश्यकता नहीं है

Bikram Vohra

दिल्ली गोल्फ क्लब में मेघालय की ताइलीन लिंगदोह के साथ जो हुआ, वो भारत में हर क्षण होता है. हमारी सामाजिक व्यवस्था में कौन कैसा दिखता है और उसकी हैसियत क्या है, इस आधार पर तय होता है कि उसके साथ किस तरह बात की जाए और कैसा बर्ताव किया जाए. इस व्यवस्था में बगैर किसी कारण शर्मिंदा करना का एक चलन है. ऐसा सिर्फ यह बताने के लिए किया जाता है कि उस व्यक्ति को अपनी औकात मालूम होनी चाहिए.

निजी क्लब के नियम होते हैं और वे ड्रेस कोड समेत अपने तमाम नियमों का पालन कर सकते हैं. लेकिन क्लब के अधिकारियों ने जिस असभ्य और अपमानजनक व्यवहार का परिचय दिया, वह बहुत से जवाब मांगता है. ‘नौकर’ होने या नौकर जैसा दिखने की वजह से एक अतिथि को मेज पर बैठने से मना कर देना एक पूर्वाग्रह है.


हर व्यक्ति को किसी एक निश्चित रूप या पोशाक में होना जरूरी नहीं है. भले ही एक व्यक्ति घरेलू सहायक हो, अगर उसे अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया है तो आप आपत्ति करने वाले कोई नहीं होते. वह व्यक्ति नशे में हो, माहौल खराब कर रहा हो या गलत व्यवहार कर रहा हो, तो अलग बात है.

किसकी संवेदनशीलता चोटिल हो रही है?

पारंपरिक खासी पोशाक उत्तर-पूर्व की सरकारी पोशाक है और औपचारिक पोशाक के रूप में पूरी तरह वैध है. यह सिक्किम की भाकू या म्यांमार की हतामीन, थाईलैंड की चुट थाई या सरोंग जैसी है.

जरा कल्पना कीजिए कि यह महिला नीरस और उदास जगह पर बैठी है और एक मैनेजर और कोई महिला अधिकारी अहंकार के साथ उस पर हथौड़ा जैसा वार करें: वह घरेलू नौकरानी जैसी दिखती है!

दिल्ली गोल्फ क्लब (तस्वीर: फेसबुक से साभार)

2017 में मध्ययुगीन मानसिकता  

बहुत पहले की बात नहीं है. एक समय ऐसा भी था कि तथाकथित उच्च वर्ग के लोग इस व्यक्ति की उपस्थिति मात्र से सामूहिक रूप से नाराज हो सकते थे और हम लोग क्लब के घमंड और हेकड़ी को स्वीकार भी कर लेते क्योंकि यही सामाजिक व्यवस्था थी.

ऐसा कहना कि 'ताइलीन अपनी जगह भूल गई थी और वह दंभी हो गई थी!' यह एक आजाद देश का आचरण नहीं हो सकता. इसलिए गलत सामाजिक व्यवहार के लिए इसे सुविधाजनक बहाना न बनाइए.

दरअसल, हमारा देश इसी तरह का था और और अब भी काफी हद तक इस तरह का है. ज्यादातर मेजबान उसे गोल्फ क्लब न लाते और शायद उसे वेटिंग या पार्किंग एरिया में छोड़ देते. लेकिन अच्छी बात यह है कि यह सोच बदल रही है और ताइलीन प्रकरण बदलाव की राह में महत्वपूर्ण मील का पत्थर है.

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हम तकलीफ के साथ ही सही धीरे-धीरे सामाजिक रूप से समान हो रहे हैं. सदियों से चले आ रहे कई पूर्वाग्रह खत्म हो रहे हैं. यह अच्छी बात है कि ताइलीन के एम्प्लॉयर और मेजबान उसके साथ खड़े हैं. ताइलीन को लोगों का समर्थन मिलना और उस पर जो गुजरी उसका खबर बनना भी अच्छी बात है. यह एक नई समानता को रेखांकित करती है. लेकिन हमें एक लंबा रास्ता तय करना है.

रंग, कपड़े और भाषा को लेकर अभी भी हैं पूर्वाग्रह

मशहूर अमेरिकी वकील रिक वॉटरमैन और उनकी मलयाली पत्नी मुंबई में एक होटल में ठहरे हुए थे. पत्नी गोरी थी, लेकिन उसका चचेरा भाई काला था. जब रिक और उसके रिश्तेदार समुद्र तट से वापस आ रहे थे तो सुरक्षाकर्मियों ने चचेरे भाई को होटल में प्रवेश करने से रोका.

रिक ने रंग पूर्वाग्रह के लिए होटल पर मुकदमा करने की धमकी दी और उन्हें माफी मांगने के लिए मजबूर किया. दरअसल, रंग के मामले में हम पूर्वाग्रह से ग्रसित बेहद खराब लोग हैं. यह एक ऐसा मामला है जिसका हमें हल खोजना होगा. एक काली चमड़ी वाले भारतीय दोस्त या सहयोगी के साथ किसी रेस्तरां या सार्वजनिक जगह पर जाइए तो लोग घूरते हैं और सर्विस के स्तर में भी साफ अंतर दिखता है.

एक बार मुंबई की अपनी यात्रा के दौरान मैं एक दोस्त के लिए कुछ सामान लाया था, जो एयर इंडिया बिल्डिंग में काम करती थी. उसने अपने कार्यालय के एक सहायक को होटल से समान लेने के लिए भेजा. मैंने होटल के कर्मचारियों को उसे आदमी को ऊपर भेजने को कहा. लेकिन उन्होंने इसे होटल के नियमों के खिलाफ बताकर मना कर दिया. मुझे काफी झुंझलाहट के साथ कपड़े बदलकर नीचे आना पड़ा.

मैंने उनसे पूछा कि उस आदमी को क्यों रोका गया तो काफी हुज्जत के बाद सच्चाई सामने आई. दरअसल, उस व्यक्ति ने तीन 'घोर पाप' किए थे: वह अंग्रेजी नहीं बोलता था, उसने 'साहब' शब्द का इस्तेमाल किया और उसकी वर्दी उसके निचले सामाजिक दर्जे की पुष्टि कर रही थी.

मैंने होटल से माफी मंगवाई और उस आदमी को कॉफी शॉप में आमंत्रित किया लेकिन वह बहुत शर्मिंदा था. वह अपने अपमान को 'समझ' गया था.

लेकिन अब यही अंतर है. अब किसी को अपने अपमान को 'समझाने' की आवश्यकता नहीं है. ताइलीन को तो निश्चित रूप से नहीं.