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निर्भया कांड: सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जश्न पीड़िता की यादों का अपमान क्यों है

2015 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 3,27,394 मामले दर्ज किए गए थे

Akshaya Mishra

शुक्रवार 16 दिसंबर, 2012 को हुए सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले के अपराधियों को सुप्रीम कोर्ट ने भी दोषी ठहराते हुए हाइकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मनाए जाने वाले जश्न और बधाई का शोर संवेदनशीलता पर निराशा की खरोंच छोड़ जाता है.

ऐसा नहीं है कि फांसी के फंदे का सामना करने वाले समाज के निचले तबके से आए चार लोगों के साथ इसका कोई संबंध नहीं है. अदालतें ऐसे कई मामलों में ऐसा ही फैसला नहीं दे रही हैं, जहां कोई जबरदस्त सार्वजनिक और मीडिया दबाव नहीं है.


अपराधियों के लिए और न्यायिक दृष्टिकोण से भी ऐसे मामलों में किसी तरह की कोई सहानुभूति नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसे सभी समान मामलों के साथ समान रूप से व्यवहार करना आसान भी नहीं होता है.

क्या वाकई पीड़िता को न्याय मिला

प्रतीकात्मक तस्वीर

लेकिन, उत्सव के खत्म होने से पहले, जो सवाल राष्ट्र के लोगों को परेशान करते हैं, वो ये हैं कि क्या पीड़िता को न्याय दिया गया? क्या पीड़िता के लिए देश की लड़ाई का एकमात्र उद्देश्य अपराधियों को फांसी पर लटकाया जाना ही था? जवाब माकूल और गहरे होने होने चाहिए. जब हम बारीकियों पर जाते हैं, तो एक डर, जो सामने आता है, वह यह है कि जब सार्वजनिक लालसा बदला लेने पर उतारू हो जाती है, तो थोड़ी सी गुंजाइश सब कुछ ले डूबती है.

ज्योति सिंह केस मामला पुलिस रिकॉर्डों के आंकड़ों के मुकाबले ज्यादा कुछ था. यह महिला सुरक्षा के एक बड़े मुद्दे का प्रतिनिधित्व करने वाला ऐसा मामला था, जो न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पूरे देश में महिलाओं की सुरक्षा का सवाल उठा रहा था. इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के करीब पांच साल बाद, क्या हमने बड़ा लक्ष्य पाने की दिशा में किसी तरह की कोई प्रगति की है?

अखबारों में दिए गए शहर के पन्नों को पढ़ें. उन खबरों के बार-बार होने की घटना को नोट करें, जिनके साथ बलात्कार और छेड़छाड़ शब्द सुर्खियां बनते हैं. ये सुर्खियां यही तो बताती हैं कि जमीनी स्तर पर वास्तव में कुछ भी बदलाव नहीं हुआ है. अगर कुछ बदलाव आया भी है, तो वो ये हैं कि हालात बद से बदतर हो गए हैं.

मामले की सुनवाई करने वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ का हिस्सा रहीं न्यायमूर्ति आर भानुमति ने मामले पर सटीक टिप्पणी करते हुए कहा, 2015 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 3,27,394 मामले दर्ज किए गए थे, 2011 से इस तरह के अपराध में 43 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी, जबकि पिछले दशक में 110.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है.

असल में वह राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े के हवाले से ये कह रही थीं. निश्चित रूप से हमें इसके लिए ब्यूरो के आंकड़े की जरूरत नहीं है. हमारे रोजमर्रा के अनुभव हमें इसे लेकर बेहतर बताते हैं.

यह मायने नहीं रखता है कि हम कितना जश्न मनाते हैं, वास्तविकता यह है कि ऐसे मामलों के अपराधियों के लिए मौत की सजा देकर सही अर्थों में हम इसके लक्षणों का इलाज कर रहे होते हैं, बीमारी का नहीं.

अगर मौत की सजा के प्रावधानों से महिलाओं के खिलाफ अपराध रुक जाता, तो हमारे पास ऐसे लोग होते ही नहीं, जो इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं. अगर देश महिलाओं की सुरक्षा के बारे में सचमुच गंभीर होता, तो ऐसे मामलों में सिर्फ कड़े कानूनी प्रावधानों तक ही बात आकर नहीं रुकती.

जस्टिस भानुमति अपने फैसले में इसे और साफ करती हुई बताती हैं, 'महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों से लड़ने के लिए सिर्फ कड़े कानून और सजा ही पर्याप्त नहीं हो सकते हैं. हमारे परंपरावादी समाज में, महिलाओं के सम्मान और जेंडर जस्टिस को सुनिश्चित करने के लिए मनोवैज्ञानिक ढांचे में बदलाव लाने की जरूरत है. बचपन के दिनों से ही बच्चों में महिलाओं के सम्मान के लिए उन्हें संवेदनशील बनाया जाना चाहिए.'

2012 में हुए थे जबरदस्त विरोध प्रदर्शन

2012 के सामूहिक बलात्कार के बाद पीड़िता के लिए देशभर में सहानुभूति का एक जबरदस्त प्रदर्शन हुआ था. हालांकि इसके बाद भी हमारे समाज में महिलाओं के सम्मान में वृद्धि नहीं हुई है. आंकड़े वास्तविक कहानी बताते हैं.

एक आसान उपाय है. ज्यादा से ज्यादा पुलिसकर्मियों की तैनाती. उनकी मौजूदगी मात्र से ही अपराध में कमी आती है. लेकिन इस मोर्चे पर कुछ भी नहीं बदला है. अजीब बात है कि महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों की ओर से ऐसी कोई मांग भी नहीं की जा रही है.

महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए पितृसत्तात्मक समाज और उससे उपजी हमारी मानसिकता को दोष देना आसान है. नागरिक समाज के जानकार और महिला कार्यकर्ता इसे लेकर हमें बार-बार याद दिलाना बंद नहीं करेंगे. यह असमानता तो हमारे समाज में सदियों से रही है. ऐसे में आप किस तरह एक पल में ही समाज को बदलने की उम्मीद कर सकते हैं ?

तो फिर इसका हल क्या है? जैसा कि विद्वान न्यायाधीश कहती हैं, हमारे बच्चों में जेंडर इक्वैलिटी का संदेश शुरू से ही देना चाहिए और इस सीख को उनके मन के भीतर बैठा देना चाहिए. इस संबंध में पहला काम शिक्षा समेत अन्य साधनों से लोगों को संवेदनशील बनाना है. कोई भी महिलाओं के खिलाफ अपराधों को लेकर बने कानूनों के बारे में ज्यादा प्रचार-प्रसार नहीं करता है.

हम इसके लिए मीडिया का उपयोग क्यों नहीं कर रहे हैं? पुलिस में भी बिना देर किए सुधार करना होगा. लेकिन सवाल ये है कि आख़िर इस तरह की मांग को कौन रखने जा रहा है?

ज्योति सिंह इस जघन्य अपराध के खिलाफ आए फैसले का जश्न मनाते लोगों को देखकर बहुत खुश नहीं होंगी. वो इससे बेहतर की हकदार हैं.