हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक के चलन को 3:2 के बहुमत से अमान्य करार दिया है लेकिन लगता है कि जोर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) और उसके छुटभैये के मर्दवादी धार्मिक नजरिए का ही चलने वाला है. इस्लामी शरिया के इन स्वघोषित अलंबरदारों ने अदालत के फैसले पर जो प्रतिक्रियाएं दी हैं उनपर गौर करने से यह बात साफ जाहिर हो जाती है.
उर्दू दैनिक इंकलाब के गुरुवार के संस्करण के मुखपृष्ठ पर खबर छपी है कि ‘मुस्लिम संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एक और धक्के के रूप में देखा’. रिपोर्ट में पूरी तफ्सील से लिखा गया है कि एआईएमपीएलबी, जमीयत उलेमा-ए-हिंद (जेयूएच), दारुल उलूम देवबंद, जमात-ए-इस्लामी हिंद और अन्य अग्रणी मुस्लिम संगठन कैसे ‘एक बार में तीन तलाक’ के चलन को गैर-इस्लामी और असंवैधानिक करार देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए कमर कस रहे हैं.
हालांकि एआईएमपीएलबी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की व्याख्या में कहा है कि इस फैसले से मुस्लिम पर्सनल लॉ की हिफाजत को लेकर उसके रुख की पुष्टि हुई है लेकिन एआईएमपीएलबी ‘इंस्टेंट तीन तलाक’ के चलन को असंवैधानिक करार देने के अदालत के निर्णय से बहुत ज्यादा असहमत है.
आज अलग-अलग उर्दू दैनिकों में छपे एक बयान में एआईएमपीएलबी ने विस्तार से बताया है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के नतायज बहुत व्यापक होंगे क्योंकि यह फैसला अल्पसंख्यक समूहों के अधिकार पर असर डालता है. इसी कारण मुस्लिम लॉ बोर्ड 10 सितंबर के दिन भोपाल में एक सम्मेलन करने की योजना बना रहा है ताकि मसले पर विचार-विमर्श हो और सुप्रीम कोर्ट के लिए एक विस्तृत जवाब तैयार किया जा सके.
जमात-ए-इस्लामी हिंद की आधिकारिक वेबसाइट पर जारी बयान की टेक भी लगभग यही है, उसमें भी मामले में दोहरे रुख की झलक मिलती है. ‘इंस्टेंट तीन तलाक’ पर आए कल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जमात-ए-इस्लामी हिंद के महासचिव मोहम्मद सलीम इंजीनियर ने कहा है, 'हम इस मसले पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के साथ हैं. भोपाल में 10 सितंबर के दिन एआईएमपीएलबी के साथ जमात की बैठक होगी. वहां फैसले पर अध्ययन-मनन होगा और इसके बाद कोई टिप्पणी की जाएगी.'
देवबंदी ख्यालात वाला बड़ा मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद जिसकी अगुवाई मौलाना अरशद मदनी के हाथ में है, इससे भी एक कदम आगे है.
जमीयत ने इंस्टेंट तलाक पर आए अदालत के फैसले को शरिया-विरोधी करार देकर मजम्मत की है. हां, मौलाना अरशद मदनी को यह भी लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से धर्मपरायण मुस्लिम स्त्री-पुरुषों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
इंकलाब में छपी रिपोर्ट के मुताबिक मौलाना अरशद मदनी का तर्क है कि 'सच्चा मुसलमान शरियत से बंधा होता है कोर्ट से नहीं. अब यह फैसला मुसलमानों के विवेक के हवाले है कि वे शरिया के कहे के हिसाब से आचरण करते हैं या कोर्ट के कहे के हिसाब से.'
ध्यान रहे कि जमीयत उलेमा-ए-हिंद भारतीय मुसलमानों के सामने उठे दूसरे बड़े मुद्दे समान नागरिक आचार संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) के विरोध में अभियान चलाने की तैयारी शुरु कर चुका है. जमीयत ने उर्दू में एक पुस्तिका लिखकर बांटा है जिसका शीर्षक है, यूनिफॉर्म सिविल कोड के खिलाफ जमीयत उलेमा-ए-हिंद की जद्द-ओ-जहद. पुस्तिका के मुखपृष्ठ पर लिखा है, 'जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट से साफ-साफ कहा है कि मुसलमानों का धार्मिक संविधान-कुरान और हदीस-अपरिवर्तनीय रहे हैं और ताकयामत ऐसा ही रहेगा. सामाजिक सुधार की ओट बनाकर शरिया के नियमों को नए सिरे से नहीं लिखा जा सकता.'
तीन तलाक के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर मुस्लिम धर्मगुरुओं की विरोध भरी प्रतिक्रियाओं और तर्कों से यह साफ जाहिर है कि पूरे पर्सनल लॉ पर कौन कहे वे तीन तलाक पर भी अपनी धर्मकेंद्रित समझ से समझौता करने को राजी नहीं. सो, यह बात ध्यान में रखनी होगी कि भारतीय मुस्लिम उलेमा को सदा-सर्वदा के लिए अपना रहबर मानते हैं और ठीक इसी कारण सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उनकी जिंदगी पर कोई मानीखेज असर नहीं पड़ने वाला.
इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत के दौरान कई तरक्कीपसंद मुस्लिम विद्वानों जैसे मुस्लिम लॉ के एक्सपर्ट प्रो. ताहिर महमूद और ए रहमान (मुस्लिम लॉ के एक्सपर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वकील) ने साफ शब्दों में कहा कि इंस्टेंट तलाक का चलन कुरान-गैर और असंवैधानिक है. ये विद्वान अफसोस के स्वर में कहते हैं कि आम मुसलमान के साथ एक अनकही परेशानी यह है कि वह अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में हिदायत के लिए मौलवियों की तरफ देखता है.
इस बेलगाम अंधश्रद्धा का फायदा उठाते हुए मुस्लिम धर्मगुरु महिलाओं समेत मुस्लिम आबादी की एक बड़ी तादाद को अपनी बातों से बरगलाना बदस्तूर जारी रखेंगे. इंस्टेंट तीन तलाक को असंवैधानिक और कुरआन-गैर करार देने के फैसले के चंद घंटे के भीतर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की महिला शाखा ने कह दिया कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतर्विरोधी, उलझाऊ और खंडित है.
एआईएपीएलबी की महिला शाखा ने कहा कि, 'हम फैसले का सम्मान करते हैं लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप हमें पसंद नहीं क्योंकि धर्म संबंधी स्वतंत्रता का अधिकार संविधान में बुनियादी अधिकारों के तहत गारंटीशुदा है. अनुच्छेद 25 एक मौलिक अधिकार है और न्यायिक नैतिकता के तकाजे से इसे दरकिनार नहीं किया जा सकता.' महिला शाखा की यह बात उर्दू प्रेस में खूब रिपोर्ट हुई है.
दरअसल मुस्लिम महिलाओं का इस किस्म का तर्क मर्दों की बरतरी को तरजीह देने वाले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मौलवियों की सोच के अनुकूल है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का बुनियादी तर्क है कि, 'अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आचार-व्यवहार के जो मानक प्रचलित हैं उन्हें नजीर नहीं माना जा सकता क्योंकि तीन तलाक के चलन को अनुच्छेद 25 के अंतर्गत सुरक्षा हासिल है.' दिलचस्प बात यह है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की महिला शाखा इस नुक्ते पर जोर दे रही है कि तीन तलाक हमेशा महिलाओं के खिलाफ काम करता हो, ऐसा नहीं माना जा सकता.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की महिला शाखा की मुख्य संयोजक (चीफ आर्गनाइजर) डा. अस्मा जेहरा का कहना है कि, 'नाकाम और मुश्किल शादियों में कई दफे यह महिला के लिए निजात की राह भी साबित होता है.'
विडंबना कहिए कि हम मुस्लिम इस बात का अफसोस मनाते हैं कि मौलानाओं ने शिया और सुन्नी समुदाय में तीन तलाक, हलाला और निकाह-ए-मु’ताह (अस्थायी विवाह) जैसी कुप्रथाएं चला रखी हैं लेकिन साथ ही साथ हम में से ज्यादातर रोजमर्रा की जिंदगी को निर्णायक रुप से प्रभावित करने वाली इन प्रथाओं पर मौलवियों के एकाधिकार को चुनौती भी नहीं देना चाहते. भारत में शिया और सुन्नी संप्रदाय के ज्यादातर मुसलमान इन मौलवियों को अपने धर्म का गार्जियन और मुहाफिज मानते हैं.
चूंकि भोली-भाली मुस्लिम जनता धार्मिक और सामाजिक मामलों में मौलवियों की बात मानती है इसलिए उलेमा और मुफ्ती (इस्लामी न्यायशास्त्र के विद्वान) को पूरे मसले पर तनकीदी नजर डालते हुए खूब खोजबीन और पुनर्विचार करना चाहिए. उन्हें चाहिए कि वे ढेर सारे मुस्लिम देशों में प्रचलित तलाक संबंधी नए नियमों से अपने लिए कोई सूझ निकालें. इससे उन्हें तलाक संबंधी मुस्लिम कानूनों की व्याख्या और तैयारी में कुछ इस तरह मदद मिलेगी कि कानून कुरान के अनुकूल जान पड़े और संविधान के संगत भी. इस व्यापक उद्देश्य को सामने रखकर एआईएमपीएलबी को ईमानदारी से शोध-कार्य की योजना बनानी चाहिए और तहफ्फुज-ए शरियत (शरिया की सुरक्षा) जैसे अभियान चलाने या बड़े-बड़े सम्मेलन करने की जगह मामले पर खूब गहराई से खोजबीन करना चाहिए.
इस संदर्भ में देखें तो बहुत कम ही उलेमा अपने भीतर झांककर देखने की जरुरत को अहमियत देता दिखते हैं. सूफी सुन्नी मुसलमानों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था ऑल इंडिया उलेमा एंड मसायख बोर्ड ने इस दिशा में कुछ कदम उठाने का संकल्प लिया है. फर्स्टपोस्ट से बात करते हुए इस बोर्ड के संस्थापक अध्यक्ष सैयद मोहम्मद अशरफ किच्छौछवी ने कहा कि, 'हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरे दिल से स्वागत करते हैं लेकिन खुद को भारतीय मुसलमानों की संस्था घोषित करने वाले किसी जमात के आगे हम नहीं झुकेंगे.'
उन्होंने कहा कि ऑल इंडिया उलेमा एंड मसायख बोर्ड मुस्लिम पर्सनल लॉ के पक्ष में है ना कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पक्ष में. साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि, 'भारतीय संविधान में मुसलमानों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता के जो बुनियादी अधिकार दिए गए हैं हम उनपर किसी हस्तक्षेप का समर्थन नहीं करेंगे. भारतीय मुस्लिम समाज में साफ नीयत और पूरे जज्बे के साथ सुधार हो इसके लिए सरकार को मुस्लिम समुदाय के धर्म-विश्वासों और बरतावों का सम्मान करते हुए उनका विश्वास जीतना होगा.'