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पटरियों पर मौत: ड्राइवरों को ट्रेन चलाने के दौरान कई मुश्किलों से जूझना पड़ता है

दिन के वक्त ट्रेन के विंड स्क्रीन से ड्राइवर को बाहर के दृश्य विहंगम और काफी बड़े इलाके में फैले दिखते हैं. लेकिन रात के समय में वो रेल पटरियों पर ज्यादा से ज्यादा 150 मीटर की दूरी तक देख सकता है

Pragya Singh

बीते शुक्रवार को दशहरे की शाम अमृतसर रेल दुर्घटना के बाद से, भारतीय रेलवे आम बहस-मुबाहिसों में सबसे गर्मा-गर्म मुद्दा बनी हुई है. इस दुर्घटना में 60 लोग मारे गए थे. शायद आज से पहले किसी ट्रेन के ड्राइवर के बारे में इतनी बातें नहीं हुई होंगी, जितनी इस ड्राइवर के बारे में. दुर्घटना रोकने के लिए ट्रेन का ड्राइवर क्या-क्या कर सकता था या नहीं कर सकता था, इस बात को लेकर लोग अब उसके समर्थन और विरोध में खड़े हो गए हैं. लेकिन लोगों को जो बात नहीं मालूम है, वो यह है कि ट्रेन के इंजन में बैठे ड्राइवर को विंड स्क्रीन से बाहर की दुनिया कैसी दिखती है. दिन के वक्त सामने के विंड स्क्रीन से बाहर के जो दृश्य ड्राइवर को दिखते हैं, वो विहंगम और काफी बड़े इलाके में फैले दिखते हैं.

लेकिन रात के समय में ड्राइवर पटरियों पर, ज्यादा से ज्यादा 150 मीटर की दूरी तक देख सकता है. इंजन में बैठ कर ड्राइवर उस रिश्ते का गवाह भी होता है, जो ट्रेन में सफर कर रहे आम आदमी का रेल विभाग और रेल की पटरियों के बीच होता है. पंजाब में काम कर रहे ट्रेन ड्राइवरों के लिहाज से यह रिश्ता हमेशा सकारात्मक नहीं होता, बल्कि अक्सर बड़ा जटिल होता है. पंजाब के फिरोजपुर से ताल्लुक रखने वाले 36 साल के ट्रेन ड्राइवर परमजीत और यूपी के 27 साल के असिस्टेंट ड्राइवर संजय कुमार के मुताबिक ट्रेन का इंजन चलाना बहुत खतरनाक, जोखिम वाला और उबाऊ काम है.


ड्राइवरों को ट्रेन चलाते हुए 5 श्रेणियों के लोगों से पाला पड़ता है

ट्रेन चलाते हुए, जिन लोगों से उनका पाला पड़ता है, वो पांच तरह की श्रेणियों में रखे जा सकते हैं. लेकिन उस विस्तार में जाने से पहले आइए जानते हैं कि ट्रेन ड्राइवर अपने काम को कैसे लेते हैं. परमवीर कहते हैं, 'ट्रेन की ड्राइवरी आम तौर पर कोई खतरनाक काम नहीं है, लेकिन असाधारण परिस्थितियों में तो कुछ भी हो सकता है, जैसा अभी अमृतसर में हुआ है. कभी-कभी रेलवे ट्रैक पर जानवर आ जाते हैं तो उन्हें बचाने के लिए अगर समय है, तो हम ब्रेक लगा कर उन्हें बचाने की पूरी कोशिश करते हैं. कुछ ड्राइवर तो इतने नरमदिल होते हैं कि कोई कुत्ता भी गाड़ी के पहियों के नीचे आ जाए , तो उनके लिए यह बड़ा दर्दनाक होता है. वो उसे डराने के लिए जोर से हॉर्न बजाते हैं, स्पीड कम करते हैं और उसे रेलवे ट्रैक से भगाने के लिए जो मुमकिन होता है, करते हैं. लेकिन दरअसल, यह जानवर किसी ट्रेन ड्राइवर के लिए मुश्किल साबित नहीं होते. परेशानी ऐसे लोगों से होती है, जो पहली श्रेणी में आते हैं. यह ऐसे लोग होते हैं, जो ट्रेन के सामने कूदकर खुदकुशी करने आते हैं. इन मामलों में ट्रेन ड्राइवर सिर्फ ऐसे हादसों का गवाह बनकर रह जाता है, और ऐसे हादसे उनकी ड्यूटी का दर्दनाक हिस्सा बन कर रह जाते हैं.'

अमृतसर में दशहरा के दिन रावण दहन देख रहे लोगों की भीड़ को दनदनाती ट्रेन ने कुचल दिया (फोटो: पीटीआई)

इन दोनों अनुभवी ड्राइवरों के मुताबिक ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या करने वाला हर इंसान, चौकस से चौकस ड्राइवर को भी गच्चा देने की पूरी कोशिश करता है. परमवीर बताते हैं, 'कुछ लोग रेलवे ट्रैक से कुछ मीटर दूर खड़े रहते हैं, जैसे वो बस यूं ही खड़े हुए हैं, लेकिन जैसे ही ट्रेन उनके पास आती है, वो झट से उसके आगे पटरियों पर कूद जाते हैं. यह ऐसे लोग होते हैं, जो तय कर के आते हैं कि उन्हें आज मरना ही है और कुछ ऐसा करना है कि इंजन ड्राइवर को सोचने का भी वक्त न मिले और वो गाड़ी रोक न पाए. दूर से खड़ा अगर कोई दिख गया, तब तो हम बचा लेते हैं. लेकिन अक्सर लोग अचानक गाड़ी के सामने आ जाते हैं और फिर उन्हें किसी भी कीमत पर बचाया नहीं जा सकता.'

ट्रैक पर खुदकुशी की किसी घटना में ड्राइवर ‘पहला चश्मदीद’ माना जाता है 

पहली बार परमवीर के साथ 2008 में जब ऐसा हुआ तो उसने रेलवे की नौकरी जॉइन ही की थी और उसकी उम्र बस 26 बरस की थी. 65 बरस की एक बूढ़ी महिला उसके ट्रेन के आगे कूद गई थी. उसकी स्पीड 90 किलोमीटर प्रति घंटे थी और वो महिला उसके इंजन से सिर्फ 15-20 मीटर की दूरी पर रह गई थी. वो कुछ सेकेंडों पहले ट्रैक के किनारे-किनारे कुछ इस अंदाज में चल रही थी, जैसे कुछ हुआ ही न हो. और अगले कुछ ही सेकेंडों में वो पटरियों पर बेजान पड़ी थी. ऐसी हर घटना के बाद इंजन ड्राइवर को अगले स्टेशन पर अधिकारियों को सूचित करना पड़ता है. उसे ऐसी किसी घटना का ‘पहला चश्मदीद’ माना जाता है. इस कागजी कार्रवाई की जिम्मेदारी दरअसल ट्रेन के गार्ड की होती है. डीजल इंजन अगर है, तो ड्राइवर के साथ उसका असिस्टेंट ड्राइवर नहीं होता.

अब चूंकि नियमों के तहत इंजन को अकेला छोड़ा नहीं जा सकता, और असिस्टेंट ड्राइवर होता नहीं, तो यह काम ट्रेन के गार्ड को ही करने होते हैं. जो शख्स मरा है, उसके शव का निरीक्षण कर अगले स्टेशन पर अधिकारियों को सूचित करने के लिए पूरी कागजी कार्रवाई गार्ड की ही जिम्मेदारी होती है. उनकी रिपोर्ट में कुछ ऐसी जानकारियां होती हैं, जैसे घटना से पहले वाला किलोमीटर पत्थर कौन सा है, खुदकुशी करने वाला ट्रेन की बाईं ओर से कूदा या दाहिनी ओर से, वगैरह वगैरह. खुदकुशी करने वाले स्टेशन या उसके आसपास ट्रेन के आगे खुदकुशी करने से बचते हैं, क्योंकि वहां स्पीड आम तौर पर बहुत कम होती है. खुदकुशी के लिए ट्रेन के सामने कूदने वाली घटनाएं स्टेशन से दूर ऐसे इलाके में होती हैं, जो खाली होते हैं और जब ट्रेन की स्पीड बहुत ज्यादा होती है.

दिन में काफी दूर तक देख सकने वाले ट्रेन के ड्राइवरों को रात को अंदर से बमुश्किल 150 मीटर ही दिखाई पड़ता है (फोटो: ANI)

ऐसी घटनाओं के बाद आम तौर पर ट्रेन ड्राइवर खुद को मजबूर पाता हुआ एक अजीब से अपराधभाव से ग्रस्त हो जाता है. हालांकि उसे मालूम होता है कि वो किसी को बचाने के लिए अपनी गाड़ी के साथ वो कौशल नहीं कर सकता, जो सड़क पर गाड़ी चला रहे लोग कर लेते हैं. ट्रेन तो हमेशा एक ट्रैक पर चलती है और जो लोग तय कर के आए हैं कि उन्हें आज मरना ही है, तो उन्हें बचाने के लिए ड्राइवर के पास बहुत ही कम विकल्प रहते हैं. परमवीर कहते हैं, 'पहली बार जब मेरे साथ ऐसा हुआ, तो मुझे बहुत दुख हुआ कि मेरी ट्रेन के नीचे किसी की जान चली गई.'

हालांकि संजय कुमार ने परमवीर से 10 साल बाद रेलवे की नौकरी जॉइन की थी, उन्होंने भी खुदकुशी करने वाले हादसे खूब देखे हैं. वो कहते हैं, 'अजीब सा लगता है.' परमवीर और संजय दोनों बुदबुदाते हैं, 'जाने किस परेशानी के चलते इन्हें यह कदम उठाना पड़ता है, शायद जिंदगी में कोई समस्या... या फिर कोई पारिवारिक वजह.'

ट्रैक पर जान गंवाने वालों में लापरवाह, बातूनी लोगों की भी संख्या होती है 

ट्रेन के आगे आकर मरने वाले लोगों की दूसरी श्रेणी उन लोगों की होती है, जो लापरवाह और बातूनी होते हैं. ड्राइवरों को ऐसे लोग रोज दिख जाते हैं, कान में मोबाइल फोन लाए हुए, बगैर यह परवाह किए हुए कि पीछे से जानलेवा स्पीड से कोई ट्रेन आ रही है. अक्सर वो मोबाइल पर कोई वीडियो या संगीत सुनने में इतने मशगूल हो जाते हैं, कि उन्हें होश ही नहीं रहता कि सामने से या पीछे से दनदनाती ट्रेन आ रही है. संजय कुमार बताते हैं, ट्रेन आने से पहले रेलवे की पटरियां बहुत सुनसान और भयंकर सन्नाटे में डूबी हुई रहती हैं. तो ऐसी जगह आप जो कहते हैं, सुनते हैं. कोई और सुन नहीं सकता. इसलिए अक्सर रेलवे लाइन पर बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड और पति-पत्नी की बातचीत फोन पर होती रहती है. वो यह भूल जाते हैं कि वो कहां हैं और किन खतरों से खेल रहे हैं.

एक तीसरी श्रेणी के लोग भी होते हैं, जिनकी जान रेलगाड़ियों के पहियों के नीचे कट कर अक्सर चली जाती है. यह ऐसे लोग हैं जो रेलवे ट्रैक के साथ-साथ चलते रहते हैं, यह जानते हुए भी कि ट्रेन सामने से आ रही है. जैसे ही ट्रेन उनके पास से गुजरने को होती है, वो कूद कर पटरियों से दूर हो जाते हैं. पंजाब में परमवीर और संजय दोनों ने ऐसे मामले खूब देखे हैं. ऐसी घटनाओं से कई बार इंजन ड्राइवर भ्रम की स्थिति में जाता है. वो अंदाजा लगाते रह जाते हैं कि कहीं यह शख्स ट्रेन के आगे तो नहीं कूद जाएगा, उसने ट्रेन का हॉर्न सुना कि नहीं सुना, उसने गाड़ी आते हुए देख ली है या नहीं. संजय ने बताया, 'इस तरह कई बार कुछ लोगों की हरकतों की वजह से कई ऐसे लोग भी घायल हो जाते हैं, जिन्हें वाकई ट्रेन का अंदाजा नहीं होता.'

भारत में अक्सर लोग आती हुई ट्रेन के खतरे को दरकिनार कर रेलवे पटरियों को लापरवाही से पार करते हैं (फोटो: पीटीआई)

ट्रेन ड्राइवर अक्सर चौथी श्रेणी के लोगों का भी सामना करते हैं, जो आदतन  रेलवे ट्रैक पर आते रहते हैं. यह लोग ट्रैक पर ही खाते-पीते, ऐश करते हैं और सारा दिन वहीं गुजार देते हैं. लेकिन वो अंदाजा लगा लेते हैं कि ट्रेन आ रही है और बहुत पहले ही पटरियों से दूर हट जाते हैं. अगर आप ड्राइवरों से पूछें, तो यह लोग दरअसल मौत की दहलीज पर रहना पसंद करते हैं.

कई बार तो ऐसा भी होता है कि जब ट्रेन ऐसे लोगों के पास से गुजरती है, पटरियों पर ऐश कर रहे यह लोग ट्रेन ड्राइवरों को शराब भी ऑफर करते हैं. हालांकि इंजन ड्राइवरों और गार्डों को ड्यूटी को वक्त एल्कोहल से परहेज करने के सख्त आदेश हैं. सफर की शुरुआत और अंत में उनका एल्कोहल टेस्ट होता है. सड़कों पर गाड़ियां चला रहे लोगों को तो कुछ मात्रा में अल्कोहल की छूट है, लेकिन ट्रेन ड्राइवरों को तो बिलकुल भी नहीं. ब्रेथ लाइजर पर टेस्टिंग के दौरान पॉजीटिव होने की एक बीप सीधे सस्पेंशन करा सकती है. सफर के दौरान अक्सर ऐसे लोग ड्राइवरों से टकरा जाते हैं, जो पीने का लालच देते हैं.

ट्रेन ड्राइवरों को अमृतसर हादसे की खबर एक दिन बाद लगी

अमृतसर हादसे की खबर दूसरे ट्रेन ड्राइवरों को करीब एक दिन बाद लगी. परमवीर और संजय यह सोच कर कांप उठते हैं कि उस रात जब यह हादसा हुआ, तो उस ट्रेन के ड्राइवरों के ऊपर क्या बीती होगी. हालांकि उन्हें उन परिवारों के साथ भी सहानुभूति और संवेदना है, जिनके लोग इसके शिकार हुए. ट्रेन ड्राइवरों के बीच अमृतसर के हादसों के बाद दूसरी घटनाओं को लेकर भी खूब चर्चा हो रही है. इनमें से कुछ में लोगों ने ड्राइवरों और गार्ड की पिटाई की, यात्रियों से भिड़े और ट्रेन को भी नुकसान पहुंचाया.

भारत में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है. देश में 64 हजार किलोमीटर से भी ज्यादा लंबी रेलवे ट्रैक हैं

परमवीर कहते हैं, 'दुर्घटनाओं के बाद आम तौर पर ड्राइवर भाग जाते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि गुस्साई भीड़ उन्हें मार डालने की हद तक पीट सकती है और ट्रेन को आग लगा सकती है.' यह पांचवीं श्रेणी के लोग होते हैं, और हर ट्रेन ड्राइवर यही चाहेगा कि ऐसे लोगों से उसका जीवन में कभी भी सामना न हो.